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पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में अधिगम संसाधनों का चयन व विकास

पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में अधिगम संसाधनों का चयन व विकास
पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में अधिगम संसाधनों का चयन व विकास

पाठ्यक्रम के क्रियान्वयन में अधिगम संसाधनों का चयन व विकास (Selection & Development of Learning resources in Curriculum implementation)

पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन के अन्तर्गत अधिगम संसाधनों का चयन, जैसे- पाठ्य-पुस्तकें, शिक्षण अधिगम सामग्री व अन्य संसाधन जो बाह्य विद्यालयीय व स्थानीय वातावरण से सम्बन्धित होते हैं, आदि आता है। इसके साथ ही समुदाय व मीडिया की पाठ्यचर्या के क्रियान्वयन में भी हिस्सेदारी रहती है।

शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उपयुक्त संसाधनों को ढूँढ़ना तथा उनको प्रस्तुत करना होता है। अधिगम की क्रिया उस समय प्रारम्भ होती जब छात्रों को उचित संसाधनों द्वारा कुछ अनुभव प्राप्त होते हैं। अतः उचित अधिगम संसाधनों की सहायता से बालकों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाने के प्रयास किए जाते हैं।

अधिगम संसाधनों का प्रबन्ध उपलब्ध साधनों के अनुसार ही किया जा सकता है। उदाहरण के लिए ‘ताजमहल’ के सम्बन्ध में शिक्षण हेतु आगरा एवं उसके आस-पास के विद्यालयों के शिक्षक स्थानीय यात्रा का आयोजन कर सकते हैं, जबकि तमिलनाडु के विद्यालय के शिक्षक को इसके लिए अधिगम संसाधन के रूप में चित्र, मॉडल आदि का प्रयोग करना ही सम्भव होगा इस प्रकार उपलब्ध साधनों द्वारा अधिगम की प्रक्रिया उपयुक्त बनती है, किन्तु संसाधनों की व्यवस्था की रूपरेखा शिक्षक की योग्यता एवं क्षमता पर निर्भर करती है।

अधिगम संसाधनों के अन्तर्गत पाठ्चर्या के विकास के लिए मुख्यतः पाठ्य-पुस्तक को ही अधिगम संसाधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता है, परन्तु आज इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है और यह आवश्यक समझा जा रहा है कि इसके साथ बहुत सारी अन्य सामग्री भी विकसित जाए जिसे अधिगम संसाधन की तरह प्रयुक्त किया जा सके। इस प्रकार सूचनाओं के बोझ से तो बचा ही जा सकता है बल्कि शिक्षक को यह मौका भी मिल सकता है कि वह अवधारणाओं की समझ पर बल दे पाए। इसके लिए सहायक पुस्तकें, कार्य-पुस्तिकाओं के विकास के अतिरिक्त ऐसी सामग्री के विकास की भी जरूरत है जो छात्रों में अवधारणात्मक समझ का विकास कर सके। वर्तमान पुस्तकों में विभिन्न विधाओं के अरुचिकर पाठ और कार्य-पुस्तिकाओं में उसी तरह के अभ्यासों को दोहरा दिया जाता है। जो पहले से ही पाठ्य-पुस्तकों में मौजूद होते हैं। अतः गणित, विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के विषयों के लिए ऐसी अधिगम सामग्री का विकास करने की आवश्यकता है जो बच्चों का ध्यान पाठ से आगे ले जाकर अपने आस-पास के संसार पर केन्द्रित कर पाये। निश्चय ही, कला जैसे विषयों के लिए कार्य पुस्तिकाएँ (Work books) मुख्य कक्षा सामग्री के रूप में काम करती हैं। पर्यावरण के अध्ययन हेतु अधिगम संसाधन के रूप में तैयार की गई अधिगम सामग्री छात्रों को उनके ही परिवेश में रहने वाले पेड़, पक्षी और प्राकृतिक आवास का अवलोकन कराती है। ऐसे संसाधन कक्षा में उपयोग के लिए और शिक्षक के लिए उपलब्ध होने चाहिए।

मानचित्रावलियों की भी पृथ्वी के बारे में बच्चों की जानकारी बढ़ाने में ऐसी ही भूमिका होती है चाहे पृथ्वी को प्राकृतिक आवास के रूप में देखें या मानवीय आवास के रूप में देखें तारों, जल, थल, लोगों और जीवन के प्रतिमानों, इतिहास एवं संस्कृति आदि की मानचित्रावलियाँ प्रत्येक स्तर पर भूगोल, इतिहास और अर्थशास्त्र की सीमाओं का विस्तार कर सकती है। ज्ञान के इन क्षेत्रों और सरोकारों के अन्य मुद्दों जिन पर सामान्य जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है, पर बनाए गए पोस्टर भी अधिगम का विस्तार कर सकते हैं। इनमें से कुछ सरोकार हैं-लिंग भेद, विशिष्ट जरूरतों वाले बच्चों का समावेशन और संवैधानिक मूल्य इस तरह की सामग्री संसाधन पुस्तकालय या संकुल के स्तर पर उपलब्ध हो सकती हैं ताकि स्कूल उन्हें उपयोग के लिए लें पाएँ। ऐसी सामग्री को स्कूल के पुस्तकालय में भी रखा जा सकता है और शिक्षकों द्वारा भी बनाया जा सकता है।

शिक्षकों के लिए मार्गदर्शिकाएँ और संसाधन भी उतने ही जरूरी हैं जितनी पाठ्य-पुस्तकें नयी पाठ्य-पुस्तकें लागू करने के किसी भी प्रयास या नयी तरह की पाठ्य-पुस्तकें बनाने के प्रयास में शिक्षकों के लिए सहायक पुस्तिका की व्यवस्था भी होनी चाहिए। ये पुस्तिकाएँ पाठ्य-पुस्तकों से पहले प्रधानाचार्यों और शिक्षकों तक पहुँच जानी चाहिए । शिक्षकों की सहायक पुस्तिकाएँ विविध रूपों में तैयार की जा सकती हैं। पढ़ाने के अन्य रूप भी उतने ही वैध हो सकते हैं जो स्थापित तरीकों की आलोचनात्मक समीक्षा करें और नए तरीके सुझाएँ और जिसमें संसाधन सामग्री, दृश्य एवं श्रव्य सामग्री और इंटरनेट की साइट की सूची शामिल हो। इससे शिक्षकों को ऐसी मदद मिलेगी जिनका वे नियोजन में इस्तेमाल कर सकते हैं। इस तरह की संसाधनात्मक किताबें शिक्षकों को सेवाकाल के दौरान दिए जाने प्रशिक्षण के समय में उपलब्ध होनी चाहिए और उन बैठकों में भी उपलब्ध होनी चाहिए जब वे अपनी शिक्षक इकाईयों की योजना बनाते हैं।

पुस्तकालय- आज पुस्तकालय काफी समय से नीतिगत सुझावों के हिस्सा रहें हैं, लेकिन आज भी स्कूलों में चालू हालात में पुस्तकालय बिरले ही देखने को मिलते हैं। यह जरूरी है कि भविष्य में योजनाएँ बनाते समय पुस्तकालय को स्कूल में हर स्तर के लिए एक आवश्यक घटक के रूप में देखा जाए। शिक्षकों और विद्यार्थियों दोनों को ही इस बात के लिए प्रोत्साहित और प्रशिक्षित करने की जरूरत है कि वह पुस्तकालय को अधिगम, आनन्द एवं तन्मयता के साधन के रूप में इस्तेमाल करें। स्कूल पुस्तकालय की संकल्पना एक ऐसी बौद्धिक स्थल के रूप में की जानी चाहिए जहाँ शिक्षक, विद्यार्थी और निकटस्थ समुदाय के लोग ज्ञान के गहरे अर्थों और कल्पनाशीलता की तलाश में आएँ। किताबों के सूचीकरण और अन्य व्यवस्थाओं को वहाँ इस प्रकार विकसित किया जाना चाहिए कि बच्चे आत्मनिर्भर रूप से पुस्तकालय का उपयोग कर पाएँ। किताबों और पत्रिकाओं के अलावा, पुस्तकालय में सूचना तकनीक के नए आयामों की सुविधा होनी चाहिए ताकि विद्यार्थी विस्तृत विश्व से जुड़ पाएँ नियोजन के आरम्भिक चरणों में खण्ड के स्तर या संकुल स्तर पर पुस्तकालयों को समृद्ध किया जा सकता है। भविष्य में भारत को प्रत्येक स्कूल में पुस्तकालय स्थापित करने की तरफ कदम उठाने चाहिए, चाहे स्कूल किसी भी स्तर का हो। देश के विभिन्न हिस्सों में, ग्रामीण इलाकों में सामुदायिक पुस्तकालय चल रहे हैं और जिलों के मुख्यालयों में भी सरकारी पुस्तकालय की व्यवस्था है। भविष्य में नियोजन की यह माँग होगी कि इस तरह की संस्थाओं को स्कूली पुस्तकालयों के नेटवर्क में जोड़ दिया जाए जिससे संसाधनों का अधिकतम उपयोग हो पाए। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउण्डेशन को अतिरिक्त संसाधन उपलब्ध करवाए जा सकते हैं कि वह स्कूली पुस्तकालयों के नेटवर्क की संकल्पना में एक संयोजन संस्था की तरह काम करे और नेटवर्क बन जाने के बाद उसके रख-रखाव पर भी ध्यान दे।

शैक्षिक तकनीकी

पाठ्यचर्या के नियोजन के एक महत्त्वपूर्ण पहलू के रूप में शैक्षिक तकनीक व्यापक रूप से पहचानी गई है, लेकिन इसके अनुकूलतम शैक्षिक उपयोग के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश और रणनीतियाँ अभी बन नहीं पाए हैं  सामान्य तौर पर, तकनीक का प्रयोग प्रसार के लिए किया जाता है, या अच्छे शिक्षकों की के मुद्दे को सम्बोधित करने के लिए जो सामान्यतः भर्ती की घटिया नीतियों का परिणाम होता है। शिक्षण तकनीक को अगर शिक्षा की गुणवत्ता में कमी को पूरा करने मात्र के लिए प्रयोग में लाया जाए तो शिक्षकों का शिक्षण से मोह भंग हो सकता है। अगर शिक्षक तकनीक का उपयोग पाठ्यचर्या के सुधार के लिए होना है तो शिक्षकों और बच्चों को केवल उपभोक्ता की तरह नहीं बल्कि सक्रिय उत्पादों के रूप में ही देखना होगा। इसके विकास और प्रयोग के लिए विस्तृत स्तर पर विचार-विमर्श की आवश्यकता है। शिक्षण तकनीक का साक्षात् अनुभव कराने के लिए खण्ड से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के प्रत्येक स्कूल में इसकी तकनीकी सुविधाएँ करवाई जानी चाहिए। बच्चों, शिक्षकों और शिक्षक-प्रशिक्षकों को दिए जाने वाले ऐसे अनुभवों में एक ग्रामीण वृद्ध के साक्षात्कार पर एक वीडियो फिल्म या ऑडियो टेप बनाकर उसे शामिल किया जा सकता है या किसी वीडियो गेम को ले सकते हैं। अगर बच्चों को मल्टी मीडिया उपकरण और सूचना सम्प्रेषण तकनीक के उपकरण सीधे उपलब्ध करवाएँ और उन्हें यह छूट भी हो कि वे उन्हें जोड़-तोड़कर अपनी खुद की रचनाएँ बनाएँ और उनसे अपने अनुभव प्रस्तुत करने के लिए कहा तो बच्चों को अपनी सृजनात्मक कल्पनाशीलता को निखारने के अवसर मिलेंगे।

शिक्षण तकनीक के लिए बनाए गए कार्यक्रमों को निष्क्रिय रूप से देखने और सुनने के बदले अगर उपर्युक्त तरीके से शैक्षिक तकनीक में उत्पादन के अनुभव हों तो देश के तकनीकी संसाधनों का कहीं बेहतर उपयोग किया जा सकता है। सीडी-आधारित कम्प्यूटरों की बजाय नेट से जुड़े कम्प्यूटरों के प्रयोग को बढ़ावा देकर ग्रामीण और सुदूर इलाकों में पाठ्यचर्या सुधार का प्रभाव पहुँचेगा और नए विचारों और सूचनाओं को पहुँचाने के लिए उनका प्रयोग हो पाएगा । एक तरफा अभिग्रहण से नहीं बल्कि दोतरफा अन्तःक्रियात्मकता से ही यह तकनीक वास्तव में शैक्षिक हो पाएगी।

उपकरण और प्रयोगशालाएँ

स्कूल को शिल्प और कलाओं की दृष्टि से आवश्यक उपकरणों से लैस किए जाने की आवश्यकता है पाठ्यचर्या के ये क्षेत्र स्कूल को एक सृजनात्मक स्थान बनाने के लक्ष्यों को पूरा करने में तभी मदद कर सकते जब हम संसाधनों लिए सतर्क योजना बनाएँ।

अपने साप्ताहिक एवं पाक्षिक चक्रों में धरोहर शिल्प का करघे, कैंची, कढ़ाई के फ्रेम, खराद इत्यादि की जरूरत होती है। विभिन्न शिल्पों की जरूरतें अलग होती हैं। यह जरूरी है कि पाठ्यचर्या के नियोजन का यह हिस्सा लिंग एवं जाति भेद से ग्रासित न हो, नहीं तो इसका मुख्य लक्ष्य कहीं खो जाएगा। यह लक्ष्य है सामग्री और मानव के वातावरण से कल्पनाशील एवं सक्रिय रूप से जुड़ने की संस्कृति को बढ़ावा देना। यह बात कलाओं के लिए भी सही है जिन्हें पाठ्यचर्या के अन्य क्षेत्रों में समेकित करने के अलावा विशेष सामग्री एवं उपकरणों की भी जरूरत है। उपकरणों के इस्तेमाल के मौके, उनके उपयोग में निपुणता हासिल करने के मौके और उपकरणों की देखभाल के मौके बच्चों को मूल्यवान अनुभव दे सकते हैं। कला की मदद से किए गए बच्चों की इन्द्रियों एवं क्षमताओं के प्रशिक्षण में किया गया निवेश उनकी साक्षरता को समृद्ध करने में और शान्ति की संस्कृति को विकसित करने में सजीव भूमिका निभाता है।

स्कूलों, विशेषकर ग्रामीण इलाकों के स्कूलों की विज्ञान प्रयोगशालाएँ दीन-हीन हैं और उनमें गणित की गतिविधियों के लिए भी उपकरण नहीं हैं। इस तरह की सुविधाओं का अभाव विद्यार्थियों के विषय-विकल्प को सीमित करता है और भविष्य के लिए समान अवसरों से वंचित कर देता है। इसलिए यह आवश्यक है कि पर्याप्त संसाधनों वाली प्रयोगशालाएँ स्कूलों में उपलब्ध हों और स्कूलों में पर्याप्त सुविधाएँ हों। जहाँ प्राथमिक स्कूलों को विज्ञान और गणित दोनों लाभ हो सकता है, वही माध्यमिक एवं उच्च माध्यमिक स्कूलों को सुसज्जित प्रयोगशालाओं की जरूरत है।

अन्य स्थल एवं अवसर

पाठ्यचर्या के स्थल जो भौतिक रूप से स्कूल परिवार से बाहर होते हैं, वे भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने कि वे जिनकी ऊपर चर्चा की गई है। ये स्थल हैं— स्थानीय स्मारक एवं संग्रहालय, प्राकृतिक सम्पदा जैसे नदी और पहाड़, रोजमर्रा की जरूरतें जैसे बाजार और डाक घर । अगर शिक्षक सुन्दर ढंग से इन संसाधनों के प्रयोग से स्कूल की दिनचर्या बनाएँ तो बच्चों को स्कूल में प्राप्त होने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर सीधा प्रभाव पड़ेगा। कक्षा की गतिविधियों को पाठ्य पुस्तकों तक सीमित कर देने से बच्चों की रुचियों और उनके सामर्थ्य के विकास में बाधा जाती है। इनमें से कई बाधाएँ इसीलिए उठती हैं क्योंकि स्कूल की दैनिक और वार्षिक सारणी का बहुत ही सख्ती से अनुसरण किया जाता है। तारों के अध्ययन के लिए रात का आकाश नहीं हो पाता स्कूल के गेट न तो रात को खुलते हैं, न ही रात को स्कूल की छत पर किसी को जाने की इजाजत होती है ढलते हुए सूरज का अध्ययन या जून में मानसून का आगमन, स्कूल की सारणी से बाहर ही रह जाते हैं। देश के विभिन्न भागों के स्कूली बच्चों के एक-दूसरे के स्कूल के दौरों, आदान-प्रदान और यहाँ तक कि दक्षिण एशियाई देशों के साथ भी इस तरह का आदान-प्रदान आपसी समझ को बढ़ावा देने में सहायक हो सकता है।

शिक्षकों और प्रशासकों को एकजुट होकर इस तन्त्र को ऐसी रूढ़ियों से मुक्त कराने की जरूरत है। साथ ही, पाठ्यक्रम बनाने वालों, पाठ्य-पुस्तक लेखकों और शिक्षक पुस्तिकाओं के लेखकों में ऐसी गतिविधियों की योजना की विस्तृत चर्चा हो जो पाठ्यचर्या की सीमाओं का विस्तार करती है। इसके लिए इस मानसिकता से मुक्ति की जरूरत है कि शारीरिक गतिविधियों और कला-शिल्प के विषय पाठ्येत्तर होते हैं।

संसाधनों का संयोजन एवं उनकी व्यवस्था

शिक्षण की सहायक सामग्री तथा अन्य पुस्तकें, खिलौने आदि स्कूल को बच्चों के लिए रुचिकर बना देते हैं। देश के कुछ राज्यों में तो डीपीईपी एवं अन्य कार्यक्रमों के धन द्वारा सीखने-सिखाने की सामग्री का निर्माण भी हुआ है। कई जगह काफी कुछ बनी-बनाई सामग्री उपलब्ध है और शिक्षकों एवं खण्ड और संकुल स्तर के सभी सन्दर्भ व्यक्तियों को यह प्रशिक्षण देने की जरूरत है कि उनमें उपलब्ध सामग्री की जानकारी बढ़े और वे उसका बेहतर उपयोग कर पाएँ । बच्चों और शिक्षकों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न गैर-सरकारी संगठन तथा अन्य संस्थाओं द्वारा तैयार की गई सामग्री भी उपलब्ध है। इसके अलावा स्थानीय स्तर की सामग्री उपलब्ध होती है जिसकी कीमत बहुत कम होती है पर वह कक्षा के लिए बड़ी उपयोगी होती है, विशेषकर प्राथमिक स्तर के स्कूलों में शिक्षकों को विभिन्न प्रकार की आधार सामग्री जुटानी चाहिए जिनसे ऐसी सहायक सामग्री बनाई जा सके जिसका साल दर साल इस्तेमाल हो सके ताकि शिक्षकों के द्वारा लगाए मूल्यवान समय का सदुपयोग हो सके। उपकरणों में स्टायरोफोम या कार्डबोर्ड न तो आकर्षण होते हैं न ही टिकाऊ, उनकी जगह रेक्सिन, रबर और कपड़े के विकल्प बेहतर हैं। अन्य प्रकार की आधार सामग्री जैसे नक्शे और चित्रावली को अगर संकुल केन्द्र पर रखा जाए जो सन्दर्भ पुस्तकालय की तरह काम करें। तो उन्हें स्कूलों द्वारा आपस में बाँटा जा सकता है। पढ़ाने समय शिक्षक संकुलन से सामग्री उधार ले लें और काम खत्म होने के बाद लौटा दे जिससे बाकी शिक्षक भी जरूरत पड़ने पर उस सामग्री को ले पाएँ। इस तरह से एक शिक्षक द्वारा जुटाए गए संसाधन का लाभ दूसरे शिक्षकों को मिल पाएगा और यह भी सम्भव होगा कि पूरी कक्षा के उपयोग के लिए सामग्री के कई सेट तैयार हो जाएँ।

इस प्रकार के संसाधनों की उपलब्धता वित्तीय संसाधनों पर निर्भर करती है और ज्यादातर स्कूलों में धनाभाव रहता है। फिर स्कूल इस प्रकार के संसाधन कैसे बना सकते हैं? कुछ तो सरकारी कार्यक्रम हैं; जैसे—ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड, जिसमें प्राथमिक और उच्च माध्यमिक स्तर पर न्यूनतम सामग्री उपलब्ध कराई गई है। उसी प्रकार एक योजना है जो स्कूलों के लिए साइकिल और खिलौने खरीदने का प्रावधान करती है। स्कूलों को इन अवसरों से फायदा हो सकता है और वे स्थानीय स्तर पर मौजूद संभावनाओं का इस्तेमाल करके अपनी शिक्षण और खेलकूद सामग्री को बेहतर बना सकते हैं। प्रभावी शिक्षण के लिए आजकल शैक्षिक तकनीकों पर बड़ा ही जोर दिया जाता । कुछ स्कूलों में अब ‘कम्प्यूटर आधारित शिक्षा का चलन बढ़ा है तो कुछ इलाकों में अध्यापन में रेडियो और टेलीविजनों का इस्तेमाल हो रहा है।

अंततः ऐसी सामग्री के इस्तेमाल को नियोजन की जरूरत होती है। अगर सामग्री उपयोग को प्रभावी बनाना है और भागीदारी एवं समझ बढ़ाने के लिए उसका उपयोग करना है तो उसे नियोजन का भाग बनाना होगा। शिक्षक अगर कक्षा में प्रदर्शन के लिए सामग्री का उपयोग कर रहा है तो उसे पहले से तैयारी करनी होगी और योजना बनानी होगी। अगर कक्षा में किसी गतिविधि की योजना बनाई जाए तो पर्याप्त सामग्री होनी चाहिए ताकि कक्षा का हर विद्यार्थी उसका इस्तेमाल कर सके चाहे अकेले या समूह में। अगर केवल एक विद्यार्थी को उपकरण चलाने का मौका मिले और बाकी विद्यार्थी देखते रहे तो यह शिक्षण समय की बर्बादी है।

माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों में विज्ञान शिक्षण के लिए प्रयोगशालाओं की बात एक महत्त्वपूर्ण हिस्से के रूप में की जाती रही है। लेकिन वे अभी भी उस पैमाने पर उपलब्ध नहीं हैं जिस पैमाने पर उनकी आवश्यकता है और जैसा विज्ञान के पाठ्यक्रम में अपेक्षित है प्रयोगों और उपकरणों का अनुभव बच्चों को देने के लिए कम से कम संकुल स्तर पर एक संकुल-प्रयोगशाला तो बनाई ही जा सकती है। संकुल के स्कूल अपनी समय सारणी इस प्रकार बनाएँ कि सप्ताह में एक बार आधे दिन उनकी कक्षा संकुल की विज्ञान प्रयोगशाला में लगे। खण्ड स्तर पर शिल्प सम्बन्धी प्रयोगशालाओं का भी विकास किया जा सकता है कि ताकि बेहतर उपकरण मुहैया कराए जा सकें।

अधिगम की एक ऐसी संस्कृति के विकास के लिए न केवल कक्षा के स्तर पर, उसके बाहर और स्कूल के भी बाहर स्थान भी ऐसे कार्यस्थल बन सकते हैं जिसके अन्तर्गत बल्कि कई प्रकार की गतिविधियाँ आयोजित की जा सकें। शिक्षक इस प्रकार की परियोजनाएँ, गतिविधियाँ, चाहे वे पाठ्यपुस्तकों से सम्बन्ध रखती हों या नहीं, तैयार करें कि विद्यार्थियों को स्वयं कुछ करने/रचने का अवसर मिल सके।

समय 

स्कूल का वार्षिक कैलेंडर आजकल राज्य स्तर पर तय होता है। पहले भी इस सम्बन्ध में सुझाव आते रहे हैं कि वार्षिक कैलेंडर को कुछ अधिक विकेन्द्रीकृत किया जाए, ताकि वह स्थानीय मौसम और त्यौहार के मुताबिक हो सके। इस प्रकार के कैलेंडर को जिला स्तर पर किया जा सकता है और जिला पंचायत की मदद से बनाया जा सकता है।

मौसम परिवर्तन के आधार पर सारणी में बदलाव लाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, जहाँ भारी बरसात हो और इलाका बाढ़ वाला हो तो बेहतर है कि स्कूल की छुट्टियाँ उसी दरम्यान हों। कुछ इलाकों के अभिभावक स्कूल से गर्मी के महीनों में भी स्कूल चालू रखने के लिए कहते हैं क्योंकि बाहर गर्मी इतनी ज्यादा होती है कि बच्चे खेल भी नहीं सकते। कुछ ऐसे भी इलाकें हैं जहाँ अभिभावकों को यह लग सकता है कि छुटट्टी कटाई के मौसम में हों ताकि बच्चा घर के पेशे में हाथ बँटा सके। इस प्रकार के परिवर्तन से बच्चों को उस संसार से सीखने का मौका मिलेगा, जिसमें वे रहते हैं। बच्चे जीवन के महत्त्वपूर्ण कौशलों और वृत्तियों को ग्रहण करके अपने संसार से सीखते हैं। घरेलू पेशे में भाग लेने से वे स्कूल के कारण स्थानीय समुदाय से पृथक् भी नहीं होंगे।

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