B.Ed. / BTC/ D.EL.ED / M.Ed.

बालकों का विकास व पाठ्यचर्या अनुभवों के संगठन पर प्रकाश डालें।

बालकों का विकास व पाठ्यचर्या अनुभवों के संगठन पर प्रकाश डालें।
बालकों का विकास व पाठ्यचर्या अनुभवों के संगठन पर प्रकाश डालें।

बालकों का विकास व पाठ्यचर्या अनुभवों के संगठन पर प्रकाश डालें। (Throw light on the development of Children and organisation of Curriculum experiences)

शिक्षार्थी निष्क्रिय वस्तु नहीं हैं। वे तो सक्रिय और जिज्ञासु व्यक्ति हैं। ऐसा नहीं कि परिवेश उनको रचता हो, बल्कि वे ही परिवेश को बड़े पैमाने पर रचते हैं। ये शिक्षार्थी विद्यालय में खाली दिमाग लेकर नहीं आते बल्कि उनके मन में कुछ पूर्व विचार विद्यमान होते हैं। कक्षाई अनुभवों की व्याख्या इन्हीं पूर्व विचारों के आधार पर होती है। इस प्रकार ये पूर्व अनुभव, निष्ठाएँ और भावनाएँ व्यक्ति की समझ और घटनाओं के निर्वचन को प्रभावित करती हैं। ज्ञान प्राप्त करने की यह प्रक्रिया रचनात्मक और उत्पादक होती है और प्रत्येक छात्र का ज्ञान उसका वैयक्तिक एवं अपने आप में अनूठा होता है।

वर्षों से बच्चों या शिक्षार्थियों को एक प्राकृतिक या विशेष रूप से प्रदत्त श्रेणी में रखा जाता है। इससे इस बात का महत्त्व कम हो जाता है कि छात्र अपने समाज में घटित होने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों और ऐतिहासिक स्थितियों से अंतरंग रूप से जुड़ा हुआ है। इस प्रकार समूहों में परस्पर भिन्नताएँ और समूह के अन्दर होने वाले परिवर्तन सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करते हैं। इसलिए शिक्षार्थी और शिक्षण के प्रति एकतरफा या खण्डित दृष्टिकोण अपनाना तर्कसंगत नहीं है। दूसरी ओर शिक्षार्थी की विशेषताओं को समेकित रूप से समझना अधिक उपयुक्त और सहायक प्रतीत होता है।

पूर्व प्राथमिक स्तर के दौरान बच्चों के भौतिक और मानसिक विकास में बहुत बड़े परिवर्तन होते हैं। निर्भरता और असहायपन की स्थिति से बच्चे धीरे-धीरे मुक्त होने लगते हैं और जिज्ञासु छात्र बन जाते हैं। जैसे-जैसे उनका शारीरिक विकास सामाजिक और सांस्कृतिक संकेतों के साथ प्रतिक्रिया करने लगता है, वैसे-वैसे उनका स्नायु तंत्र परिपक्व होता जाता है और संज्ञानात्मक अनुभवों की संवृद्धि होती जाती है। वे तेजी से पूरी दुनिया को अपने अनुकूल बनाने लगते हैं और धीरे-धीरे कल्पना करना और काम करने के तरीके खोजना प्रारम्भ करते हैं ताकि वे भूत वर्तमान की घटनाओं से जुड़ी स्मृतियों को मन में संगृहीत कर सकें। क्रियात्मक खेलों से अर्थात् किसी वस्तु अथवा बिना किसी वस्तु को आसानी से बार-बार अंग-संचालन करने से शिक्षार्थियों का समग्र विकास सम्भव हो पाता है। इस तरह वे रचनात्मक गतिविधियों का आयोजन भी करने लगते हैं जिनमें कोई चीज बनाने के लिए अपने हस्तकौशल द्वारा वस्तुओं को अपने ढंग से काम लायक बना लेते हैं। बच्चों की यह अवस्था भाषा-विकास की अवस्था होती है। इसी समय वे कई प्रतीकों और अहं-केन्द्रित सोच की ओर प्रवृत्त होते हैं। वे अपने और किसी दूसरे के विचारों में भेद नहीं कर पाते। इस अवस्था में बच्चे कुछ काल्पनिक खेल भी खेलने लगते हैं।

प्राथमिक स्तर में प्रवेश करने की उम्र में आकर बच्चों के शारीरिक विकास प्रक्रिया अपेक्षाकृत धीमी होने लगती है और इस उम्र में उनकी चंचलता में भी कमी आने लगती। है कुछ छरहरे होने के साथ-साथ वे मांस-पेशियों से भी अधिक बलिष्ठ होने लगते हैं और ऐसे नए कौशलों में प्रवीणता प्राप्त करने लगते हैं जो उन्हें अपने साथियों के साथ स्पर्धा करने योग्य बनाते हैं। पर्यावरणीय और सांस्कृतिक परिवेश से पड़ने वाले प्रभाव से और अपने विकसित होते हुए क्रियात्मक कौशलों के आधार पर अब बच्चों का व्यक्तित्व अधिक समन्वित होता जाता है उनकी सोच अधिक तर्कसम्मत होती जाती है। यहाँ आकर बच्चों के सम्भावित विकास का परिक्षेत्र (जोन ऑफ प्रॉक्सीमल डेवलपमेंट) अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है यह परिक्षेत्र बच्चे के वास्तविक विकास स्तर पर उच्चस्तरीय योग्यता के बीच को दूरी प्रकट करता है यह वह भेद है जो बच्चे स्वयं स्वतंत्र रह कर क्या हासिल कर सकते हैं और उन्हें मार्गदर्शन देने पर उनकी योग्यता का स्तर क्या हो जाता है, इन दोनों के बीच के भेद को स्पष्ट करता है। जब उनके वास्तविक विकास स्तर के बजाय उनकी व्यक्तिगत क्षमता पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है, छात्रों की संज्ञानात्मक क्षमताएँ बढ़ जाती हैं। इस विचार से इस दृष्टिकोण को बल मिला है कि सामाजिक प्रभाव बच्चों की संज्ञानात्मक योग्यता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं और मार्गदर्शन या परामर्श उनके विकास को सुगम बनाते हैं। अहं केन्द्रित भाषा (जो कि व्यक्ति के स्वयं के व्यवहार को नियंत्रित करती है और अक्सर मौखिक होती है) से बच्चे आंतरिक भाषा (जिसमें स्वयं से बातचीत का स्वगत-संलाप होता है) की ओर प्रवृत्त होते हैं। इस स्थिति के दौरान बच्चे जो कहने वाले हैं, पहले उसकी रिहर्सल (आत्म-अभ्यास) कर लेते हैं। उनके विकास का नियामक उनका साथी समूह होता है अपने साथियों के समूहों में बच्चे दैनिक प्रतिरोधों, चिन्ताओं और डरों से काल्पनिक खेलों के माध्यम से निपट लेते हैं। साथियों के साथ अंतःक्रिया से उनमें सहकार या आपसी सहयोग और मिल-जुलकर रहने जैसे सामाजिक मूल्य विकसित होते हैं।

उच्च प्राथमिक स्तर पर बच्चों में अनेक शारीरिक परिवर्तन शुरू हो जाते हैं क्योंकि यह समय बचपन से किशोरावस्था में संक्रमण का है। संज्ञानात्मक स्तर पर बच्चे विशेष समस्याओं से जुड़ी समस्त काल्पनिक स्थितियों के बारे में धीरे-धीरे तार्किक ढंग से सोचने लगते हैं । वे अपनी पहचान स्थापित करने के लिए भी प्रयत्न करते हैं। पहचान स्थापित करने की प्रक्रिया के लिए आवश्यक है कि अपने दृष्टिकोण के साथ-साथ दूसरों के और समाज के दृष्टिकोण को भी समझें। इस प्रकार साथी-समूह का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। इस आयु में बच्चे मनःस्थिति में बदलाव और अंतर्विरोधी विचारों को भी लगातार महसूस करते हैं।

पहले उच्च प्राथमिक स्तर पर जिन विशेषताओं का विकास हो चुका है, माध्यमिक स्तर पर वे विशेषताएँ और सुदृढ़ होती हैं। अमूर्त अवधारणाओं के बारे में सोचना, सामाजिक पहचान स्थापित करना और साथी-समूहों को महत्त्व देना, ये सब बातें काफी हद तक बढ़ जाती हैं। इसलिए इस नाजुक उम्र में, बच्चों के अन्दर सामाजिक अंतर्क्रिया को प्रोत्साहित करना जरूरी है। प्रभावी शिक्षण और बौद्धिक विकास के लिए शिक्षार्थियों को अपने साथियों से सहयोग करना होगा, उनके अनुभवों को बाँटना होगा, उनकी खोजों पर चर्चा करनी होगी और मतभेदों के लिए बहस करनी होगी।

बौद्धिक विशेषताओं के अतिरिक्त अन्य विशेषताएँ भी पाठ्यचर्या संरचना के लिए महत्त्वपूर्ण मार्गदर्शन करती हैं। इनको शिक्षार्थियों के पृथक्-पृथक् व्यक्ति के रूप में विकास और राष्ट्रीय लक्ष्यों एवं सामाजिक-सांस्कृतिक प्राथमिकताओं के सन्दर्भ में विकास के लिए आधार बनाया जा सकता है। शिक्षार्थी छात्रों की शारीरिक, सामाजिक और संवेगात्मक विशेषताएँ, दृष्टिकोण और रुचियों का विकास बचपन, प्रारम्भिक-किशोरावस्था और मध्य-किशोरावस्था में होता है। इसलिए जब पूर्व प्राथमिक, प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर पाठ्यचर्या के उद्देश्य, विषयवस्तु, कार्यनीतियाँ और प्रयोग आदि निर्धारित किए जाएँ तो इन तथ्यों पर सावधानीपूर्वक विचार करना होगा।

शारीरिक कुशलक्षेम, भावनात्मक परिपक्वता और समुचित सामाजिक से सम्बन्धित आदतों, दृष्टिकोणों और विश्वासों के विकास के लिए पूर्व प्राथमिक और प्राथमिक शिक्षा के वर्ष बच्चों की जिन्दगी में सर्वाधिक प्रभाव डालने वाले और निर्माणकारी वर्ष होते हैं। इस तथ्य को पूरी गम्भीरता से पाठ्यचर्या निर्माताओं और पाठ्यचर्या लागू करने वालों को समझना होगा ताकि छात्रों को उपयुक्त और पर्याप्त शिक्षण अनुभव दिए जा सकें।

विद्यालय में प्रवेश के समय तक बच्चे सामान्य रूप से सामूहिक जीवन में सहभागिता की मानसिक तैयारी कर चुके होते हैं। फिर भी रीति-रिवाजों और सामाजिक घटनाओं के प्रति विवेकपूर्ण दृष्टिकोण और महान सामाजिक आदर्शों के प्रति सुरुचि पैदा होना अभी बाकी रह जाता है। इसी प्रकार यद्यपि इस स्तर पर आकर वे सही और गलत में भेद तो करने लगते हैं फिर भी इस प्रक्रिया में जो उच्च नैतिक आदर्श निहित होते हैं, उनका विकास उनमें नहीं हो पाता। बच्चे अपने व्यवहार में दूसरों पर निर्भर न करने की इच्छा तो जाहिर करते है। मगर इस इच्छा की सुस्पष्टता तो माध्यमिक स्तर पर पहुँचकर ही समय बीतने के साथ धीरे-धीरे आती है। सामान्य रूप से माध्यमिक शिक्षा के दौरान यह उम्मीद की जाती है कि छात्र अपना जीवन-दर्शन तय कर लें ताकि उन्हें भावी वयस्कों के रूप में उपयुक्त अभिप्रेरणा और व्यवहार के निर्देश प्राप्त हों। उच्च प्राथमिक शिक्षा के अंत तक छात्र उन विरोधाभासों की आलोचना आरम्भ कर देते हैं जो वे व्यक्तियों और समाज में वाणी और कर्म में देखते हैं। अपने पैरों पर खड़े होने और उपयुक्त जीवनचर्या चुनने के प्रति चेतना सामान्य रूप से छात्र के व्यवहार से प्रकट होने लगती है।

ये ये विकासात्मक विशेषताएँ शिक्षण अनुभवों को धीरे-धीरे लागू करने का संकेत देती हैं अनुभव विचारों, दृष्टिकोणों, नैतिक मूल्यों से जुड़े कौशलों, राष्ट्रीय आदर्शों और प्राथमिकताओं, सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय और विश्वबन्धुत्व से सम्बद्ध होते हैं। उच्च प्राथमिक शिक्षा के अंत और विशेष रूप से माध्यमिक शिक्षा के दौरान जो जानकारी और मार्गदर्शन किशोरों को दिया जाता है उससे अपने लिए सही जीवनचर्या और व्यवसाय चुनना सुनिश्चित होना चाहिए। माध्यमिक शिक्षा के दौरान बड़ी संख्या में छात्रों को कार्य शिक्षा में उन्मुख करने के लिए उसे पाठ्यक्रम का अंग बनाने की जरूरत हो सकती हैं।

माध्यमिक शिक्षा के दौरान यौन इच्छा के प्रति झुकाव छात्रों के मन और शारीरिक विकास की स्वाभाविक विशेषता है। इस आयाम पर पाठ्यचर्या निर्माताओं को सावधानीपूर्वक ध्यान देने की जरूरत है ताकि पाठ्यचर्या में उनके लिए समुचित प्रावधान इस सम्बन्ध में समाहित किए जा सकें और सैक्स के प्रति स्त्री-पुरुषों में स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास किया जा सके। भारतीय समाज में यौन-स्वच्छंदता के लिए कोई स्थान नहीं है और आत्म-नियन्त्रण या ‘संयम’ एक अत्यन्त उच्च जीवन मूल्य है। इन विचारों को रेखांकित करना आवश्यक है। इससे युवकों में सैक्स के प्रति स्वच्छ दृष्टिकोण पैदा होगा और विपरीत सैक्स के सदस्यों के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत होगी।

विद्यालय काल में बच्चे के जीवन में जो संवेगात्मक आयाम उभरते हैं और व्यक्ति के जीवन में जो संवेगात्मक परिपक्वता आती है उसकी पाठ्यचर्या निर्माता उपेक्षा नहीं कर सकते। धीरे-धीरे बढ़ने के साथ ही बच्चे संवेगात्मक स्थिरता और संवेगात्मक स्वतन्त्रता हासिल करते हैं। विशेषकर उच्च प्राथमिक शिक्षा के बाद और माध्यमिक शिक्षा के दौरान ऐसे अनेक मौके आते हैं जब छात्र को तीव्र दबावों का सामना करना पड़ता है। ये दबाव ही संवेगात्मक संकट बन सकते हैं। इस संवेगात्मक स्थिति को ध्यान में रखते हुए पाठ्यचर्या में शैक्षिक और सह-शैक्षिक विषय सम्बन्धी समुचित क्रियाकलाप और अनुभव प्रदान करने और इस सम्बन्ध में उचित परामर्श एवं मार्गदर्शन उपलब्ध कराने के लिए आवश्यक संकेत होने चाहिए।

अतः बच्चों के व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए विद्यालयीय पाठ्यचर्या में मूल्य शिक्षा, स्वास्थ्य एवं शारीरिक शिक्षा, कला शिक्षा और कार्य शिक्षा को समुचित महत्त्व देना होगा विभिन्न विषय क्षेत्रों में अंतर्सम्बन्ध भी स्पष्ट रूप से तय करने होंगे। इसलिए पहली से दसवीं कक्षा तक एकसमान शिक्षा पर ही जोर दिया गया है।

केन्द्रिक घटक और मूल्य सभी स्तरों पर पाठ्यचर्या के अविभाज्य अंग रहेंगे और उपयुक्त तरीके से उनका विभिन्न विषय क्षेत्रों में समावेश होगा। विषयवस्तु के चयन और शिक्षण – अनुभवों के संयोजन के प्रति लचीलापन पाठ्यचर्या योजना में निहित होगा।

शिशु शिक्षा : प्राथमिक शिक्षा की तैयारी ( 2 वर्ष) – शिक्षा की यह व्यवस्था बच्चों को विद्यालय के लिए तैयार करने की है और इसलिए शिशु देखभाल और शिक्षा, शिक्षा का एक प्रमुख तत्त्व है। समेकित बाल विकास योजना के अन्तर्गत ‘आँगनबाड़ियों’ के जरिए शिशु शिक्षा, पूर्व प्राथमिक शिक्षा के रूप में उपलब्ध है। यह अन्य विभिन्न रूपों में भी उपलब्ध है, जैसे—तैयारी के विद्यालय, नर्सरी, किंडरगार्टन कक्षाएँ आदि जो सरकारी और निजी दोनों ही क्षेत्रों में एक दूसरे से थोड़े भिन्न हैं। इस तथ्य को स्वीकारना होगा कि शिक्षा की यह अत्यन्त आरम्भिक अवस्था बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण की अत्यन्त नाजुक अवस्था है और इसका असर बच्चों के बाद की शिक्षा पर होता है समूह गतिविधियाँ, खेल-खेल में शिक्षा की तकनीकों, भाषा-खेलों, अंक खेलों और ऐसे क्रियाकलापों, जो बच्चों को सामाजीकरण और पर्यावरण चेतना की दिशा में प्रेरित करें आदि विशेष विधियों के द्वारा इस स्तर के बच्चों को शिक्षण दिया जा सकता है। इस प्रकार आनन्द, समझ और सहभागिता पर आवश्यक जोर देना होगा। इससे बच्चे सीखने के लिए तैयार होंगे और बच्चों पर से अस्वास्थ्यकर एवं हानिकारक बोझ कम होगा क्योंकि इस उम्र तक बच्चों की मांसपेशियों सम्बन्धी क्षमता का पर्याप्त विकास नहीं हो पाता है। विषयों के औपचारिक शिक्षण तथा पढ़ने और लिखने पर तो पूर्ण प्रतिबन्ध होना चाहिए। समान सुविधा उपलब्ध कराने की दृष्टि से सभी बच्चों के लिए शिशु शिक्षा की सुलभता सुनिश्चित करनी होगी।

इस अवधि में भाषा का मौखिक उपयोग करने और स्वाभाविक अंतर्क्रियात्मक तरीके से उसे सुनने के अधिक से अधिक अवसर देने चाहिए। बच्चों को आवश्यक कौशलों का विकास करने के भी काफी मौके देने चाहिए, जैसे- पहचान का कौशल, तुलना, जोड़ी बनाना, नाम बताना, क्रम बनाना, ड्राइंग करना और बिना औपचारिक संख्याओं को सिखाए गिनना आदि। बच्चों में सामाजिक चेतना उत्पन्न करने की दृष्टि से बच्चे-बच्चे के बीच अंतर्क्रिया तथा बच्चे और प्रकृति के बीच अंतर्क्रिया को प्रोत्साहित करना चाहिए। उपर्युक्त प्रणाली उन क्रियाकलापों के अतिरिक्त होगी जो बच्चों में सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने और स्वास्थ सामाजिक सहभागिता में भाग लेने की आदतें डालने में मदद करते हैं। बच्चों को प्रेरित करना होगा कि वे पालतू प्राणियों के साथ खेलें, सामान्य पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों, आवागमन के साधन और कुछ खगोलीय पिंडों, जैसे—सूर्य, चन्द्रमा, तारे आदि को जाने।

प्रारम्भिक शिक्षा (8 वर्ष )

प्राथमिक स्तर (5 वर्ष) – प्राथमिक स्तर को कुछ अंतर्निहित निरन्तरता के साथ दो भागों में देखना होगा प्रथम भाग में पहली तथा दूसरी कक्षा होगी जहाँ बच्चों की औपचारिक शिक्षा की शुरूआत होगी और वे विकास के ऐसे स्तर पर होंगे जब अनौपचारिक या औपचारिकेतर शिक्षण से बड़ी सरलता से उन्हें औपचारिक शिक्षण की ओर ले जाया जाएगा। दूसरे भाग में तीसरी से पाँचवीं कक्षा में आकर बच्चे वातावरण को समझने लगते हैं और व्यवस्थित ढंग से सीखने लगते हैं। इन दोनों भागों के लिए अध्ययन योजना निम्नानुसार है-

(अ) पहली और दूसरी कक्षा

(क) एक भाषा मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा

(ख) गणित

(ग) स्वस्थ और उत्पादक जीवन की कला

(क) और (ख) के लिए जो अनुभव दिए जाएँगे उनमें बच्चों को सम्पूर्ण रूप से स्वाभाविक और मानव-निर्मित पर्यावरण में लाना होगा। भाषा और गणित शिक्षण बच्चों के आसपास के पर्यावरण में गुँथे हुए होंगे और उनमें पर्यावरणीय सरोकार भी समेकित होंगे।

स्वस्थ और उत्पादक जीवन के अनुभव प्रदान करने का है बच्चे के व्यक्तित्व के समग्र विकास में योगदान करना। ये कार्य बच्चे को केन्द्र में रखकर करना होगा। इसमें बच्चों को ऐसे क्रियाकलापों में लगना होगा जो उनके विकास के स्तर के अनुरूप हों। इस स्तर पर स्वास्थ्य से सम्बन्धित गतिविधियों का महत्त्वपूर्ण स्थान होगा ताकि बच्चे आवश्यक कौशल, दृष्टिकोण और आदतें, स्वयं को स्वस्थ रखने और अपनी उम्र के मुताबिक खेलकूद में भाग लेने की दृष्टि से अर्जित कर सकें। बच्चों को प्रारम्भिक यौगिक क्रियाएँ भी सिखाई जाएँगी और उन्हें सन्तोष देने वाले विभिन्न अनुभवों से गुजरने के अवसर दिए जाएँगे, जैसे संगीत, नाटक, चित्रकला, मिट्टी के मॉडल बनाना आदि इसके अतिरिक्त कार्य शिक्षा से जुड़ी गतिविधियों में भी बच्चों को लगाया जाएगा ताकि वे कार्य के प्रति निषेध या झिझक से मुक्त हों और कार्य करना पसन्द करें। मूल्यों के निर्माण और प्रसार के लिए किस्से और कहानियाँ बहुत ही प्रभावी भूमिका अदा करते हैं। ये बच्चों में जिज्ञासा, कल्पना और कौतूहल का भाव पैदा करते हैं और उन्हें पुष्ट करते हैं। ये समस्त अनुभव समेकित या समन्वित तरीके से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है जिसके लिए विभिन्न कथानकों की पहचान करनी होगी और इनके लिए शिक्षक स्थानीय संसाधनों का उपयोग करेंगे और जहाँ आवश्यक होगा, समुदाय का सहयोग लेंगे।

(ब) तीसरी से पाँचवीं कक्षा

(क) एक भाषा – मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा

(ख) गणित

(ग) पर्यावरण अध्ययन

(घ) स्वस्थ और उत्पादक जीवन की कला

जहाँ तक पर्यावरण अध्ययन का प्रश्न है इस स्तर पर बच्चों को ऐसे अनुभव दिए जाएँगे जो पर्यावरण में घटित होने वाली घटनाओं की चेतना और समझ उत्पन्न करने के साथ उनके सामाजिक-संवेगात्मक और सांस्कृतिक विकास में सहायक हों कक्षा के अन्दर और बाहर ऐसा अवलोकन वर्गीकरण, तुलना और निष्कर्ष निकालने आदि के कौशलों के विकास के माध्यम से करना होगा वांछित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए समेकित प्रणाली सर्वाधिक उपयुक्त होगी।

स्वस्थ एवं उत्पादक जीवन की कला सिखाने लिए बच्चों को संगीत, नाटक, चित्रकला कठपुतली कला, स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा, खेलकूद और योग एवं उत्पादक कार्यों में उनकी सहभागिता सुनिश्चित करते हुए पहले से प्राप्त अनुभवों को और भी सुदृढ़ करना होगा यहाँ भी समेकित प्रणाली का ही उपयोग करना होगा। स्थानीय रूप से विकसित पाठ्यचर्या और सामग्री को शामिल करते हुए स्वायत्तता और लचीलेपन को प्रोत्साहित करना होगा। बच्चों में समुचित मूल्य-व्यवहार विकसित करने के लिए समन्वित प्रयास सुनिश्चित करने होंगे।

उच्च प्राथमिक स्तर (3 वर्ष)

(क) तीन भाषाएँ (मातृभाषा/क्षेत्रीय भाषा, आधुनिक भारतीय भाषा और अंग्रेजी)

(ख) गणित

(ग) विज्ञान और प्रौद्योगिकी

(घ) सामाजिक विज्ञान

(ङ) कार्य शिक्षा

(च) कला शिक्षा (ललित कलाएँ/दृश्य और प्रदर्शन कला)

(छ) स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा (खेलकूद, योग, एन.सी.सी. और स्काउट्स और गाइड्स के प्रशिक्षण सहित)

माध्यमिक स्तर (2 वर्ष )

(क) तीन भाषाएँ (मातृभाषा / क्षेत्रीय भाषा, आधुनिक भारतीय भाषा और अंग्रेजी)

(ख) गणित

(ग) विज्ञान और प्रौद्योगिकी

(घ) सामाजिक विज्ञान

(ङ) कार्य शिक्षा

(च) कला शिक्षा (ललित कलाएँ— दृश्य और प्रदर्शन कला )

(छ) स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा (खेलकूद, योग, एन.सी.सी. और स्काउट्स एवं गाइड्स के प्रशिक्षण सहित)

विभिन्न स्तरों पर पाठ्यचर्या क्षेत्र– पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को समुचित शिक्षण-अनुभवों के कल्पनाशील और विवेकसम्मत नियोजन से साकार करना सम्भव है। सुनियोजित क्रियाकलाप और अध्यापन-अध्ययन कार्यनीतियाँ इन अनुभवों के लिए सुविधा प्रदान करती हैं जो एक समग्र रूप में विकसित होनी चाहिए। किन्तु सुविधा की दृष्टि से इन सबका विभिन्न विषय-क्षेत्रों में वर्गीकरण करना पड़ता है। शिक्षा के विभिन्न स्तरों की प्रकृति और शिक्षार्थी की क्षमता प्रत्येक पाठ्यचर्या क्षेत्र के अन्तर्गत पाठ्यचर्या नियोजन के उद्देश्यों, शिक्षण क्रियाकलापों और कार्यनीतियों को प्रभावित करते हैं। इस कारण पाठ्यचर्या – क्षेत्रों तथा उनकी विभिन्न स्तरों पर प्रस्तुति के लिए निम्नलिखित प्रस्ताव प्रस्तावित किए जाते हैं-

भाषा – प्राथमिक शिक्षा में भाषा-शिक्षण केवल सभी विषय क्षेत्रों में सार्थक अधिगम के लिए ही एक अहम मुद्दा नहीं है, बल्कि शिक्षार्थी के संवेगात्मक, संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। कमजोर भाषा पृष्ठभूमि साथ प्रवेश लेने. वाले नए छात्र तब तक कमजोर शिक्षार्थी और सभी क्षेत्रों में कमजोर योग्यता प्रदर्शन वाले ही बने रहते हैं जब तक कि भाषा-कौशलों के लिए उनकी विशेष सहायता न की जाए। प्रारम्भिक वर्षों में समुचित और पर्याप्त रूप से भाषा कौशलों का शिक्षण न होने से छात्रों के उच्च प्राथमिक, माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने में कठिनाइयाँ आती हैं। भाषा की शिक्षा में कहीं अधिक शक्ति निहित है और वह एक ऐसा सबल साधन है जो छात्रों के विभिन्न स्तरों पर केन्द्रित घटकों से सम्बन्धित छात्रों के दृष्टिकोण और मूल्यों का विकास करती है। यह कार्य वह उपयुक्त कथानकों तथा शिक्षण अधिगम कार्यनीतियों के माध्यम से करती है । भाषा – शिक्षण का उद्देश्य स्वतन्त्र-चिन्त, स्वतन्त्र और प्रभावशाली ढंग से मत प्रकाशन, वर्तमान और भूतकाल की घटनाओं के तार्किक विश्लेषण आदि को प्रोत्साहित करना होना चाहिए। भाषा शिक्षण द्वारा छात्रों को अपनी बात को अपने – ढंग से कहने, अपनी स्वाभाविक सृजनात्मकता एवं कल्पना का पोषण करने और छात्रों द्वारा मौखिक भाषा एवं गणितीय भाषा के बीच निहित मूल अन्तर को जानने के लिए प्रेरित करना ही चाहिए। ये ही वे तत्व हैं जिनकी वजह से सम्पूर्ण शिक्षा-प्रक्रिया में भाषा को एक महत्त्वपूर्ण केन्द्रीय स्थान दिया जाना चाहिए।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment