विद्यालयी व कक्षा स्तर पर पाठ्यचर्या कल्पना की अवधारणा (Concept of Curriculum visulalised school & class levels)
यदि हम पाठ्यचर्या को विद्यालय व कक्षा स्तर पर देखें तो देखते हैं कि इसका वर्तमान सरोकार बच्चों को सार्थक अनुभव देने वाली तथा समाहित करने वाली शिक्षा से होना चाहिए पाठ्यपुस्तक तो संस्कृति से दूर हटाने का प्रयास भी सिद्ध हो सकती है यदि विद्यालय केवल पाठ्यपुस्तक में दी गई विषयवस्तु तक ही सीमित रहें। अतः यह जरूरी है कि हम विद्यार्थियों व सीखने की प्रक्रिया के बारे में जो सोचते हैं उसमें मूलभूत बदलाव लाएँ। इस सन्दर्भ में बाल-केन्द्रित शिक्षा के तात्पर्य व निहितार्थ को समझना होगा तथा बच्चों के अनुभवों, उनके स्तरों व उनकी सक्रिय सहभागिता को प्राथमिकता देनी होगी। इसके लिए पाठ्यचर्या में बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकास व अभिरुचियों के मद्देनजर शिक्षा को नियोजित करने की आवश्यकता है। शिक्षा की योजना ऐसी हो कि वह विशेषताओं व जरूरतों की विशाल विविधताओं के तहत भौतिक, सांस्कृतिक व सामाजिक प्राथमिकताओं को सम्बोधित करे। हमें पाठ्यचर्या के द्वारा बच्चों की सक्रियता व रचनात्मक सामर्थ्य को पोषित व संबद्धित करना होगा। साथ ही उनके दुनिया से वास्तविक तरीकों से सम्बन्ध बढ़ाने, दूसरों से जुड़ने की उनकी मूल अभिरुचियों का अर्थ ढूँढ़ने की जन्मजात रुचि को पोषित करना होगा। इस उद्देश्य से पाठ्यचर्या का पुर्नउन्मुखीकरण सबसे प्राथमिक आवश्यकता है ताकि अध्यापकों के प्रशिक्षण, स्कूलों की वार्षिक योजना, पाठ्यपुस्तकों की रूपरेखा, शैक्षणिक सामग्री व योजनाओं, मूल्यांकन व परीक्षा व्यवस्था में भी बदलाव लाया जा सके।
सीखने व विकास के प्रति भी पाठ्यचर्या का ऐसा रुख होना चाहिए जो विद्यार्थी के शारीरिक व मानसिक विकास के बीच अंतर्सम्बन्ध को देख सके। इसके लिए सभी बच्चों के स्वतंत्र खेलों, अनौपचारिक व औपचारिक खेलों, योग और खेल की गतिविधियों में सहभागिता आदि के सन्दर्भों का भी पाठ्यचर्या में ध्यान रखना होगा। खेलकूद और योग से अर्जित योग्यताएँ, सामूहिक खेलों में शारीरिक बल, स्थूल गतयात्मक कौशल (Gross Motor Skill) नियन्त्रण, आत्म-चेतना तथा समन्वय की क्षमताओं में सुधार लाती है। अतः विद्यालय में सभी विद्यार्थियों को स्वास्थ्य व शारीरिक शिक्षा की गतिविधियों में शामिल करना चाहिए तथा वे विद्यार्थी जो खेलकूद में आगे बढ़ना चाहते हों, उन्हें पर्याप्त सुविधाएँ भी मिलनी चाहिए।
निजी व सरकारी बहुत प्रकार के स्कूल हैं जिनमें विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के बच्चे जाते हैं। कोठारी आयोग के अनुसार, “भारत में हम जिस प्रकार की स्थिति देखते हैं, उसमें यह शिक्षा प्रणाली की जिम्मेदारी है कि वह विभिन्न सामाजिक वर्गों और समूहों को निकट लाने और इस प्रकार एक समतापूर्ण तथा एकीकृत समाज के आविर्भाव में सहायक हो। किन्तु वर्तमान में, ऐसा करने के स्थान पर, स्वयं शिक्षा ही सामाजिक अलगाव को बढ़ाने तथा वर्गगत भेदभाव को बनाए रखने एवं उन्हें और भी बढ़ाने की ओर प्रवृत्त हो रही है। सबसे बुरी बात यह है कि यह अलगाव बढ़ता जा रहा है और जनता तथा वर्गों के बीच की खाई को और भी चौड़ा करता जा रहा है।” क्या हम अपने बच्चों को यह बता रहे हैं कि लिए अलग-अलग बच्चों की अलग महत्ता है? यदि इसका उत्तर ‘हाँ’ है तो हमें कोठारी आयोग के उस स्वप्न को यथार्थ में बदलने के लिए आवश्यक सभी कदम तुरन्त होंगे जिसमें उन्होंने एक ऐसी समान स्कूली व्यवस्था की परिकल्पना की थी जो बच्चों की उठाने सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि पर ध्यान दिए बिना पड़ोस के सभी बच्चों को शामिल कर सके। समान स्कूली व्यवस्था को शिक्षा की राष्ट्रीय व्यवस्था के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसकी बुनियाद संवैधानिक आधार हो तथा जिसमें जाति, वर्ग, स्थान आदि के भेदभाव के बिना समान शिक्षा उपलब्ध करवाने की सामर्थ्य हो। यह व्यवस्था वर्तमान में प्रचलित सभी प्रकार के स्कूलों (यथा सरकारी, स्थानीय निकाय द्वारा संचालित या निजी) पर लागू हो, जिनका यह दायित्व हो कि वे बुनियादी संसाधन और शिक्षण मानकों को सुनिश्चित करें तथा स्कूल के आसपास रहने वाले सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करवाएँ।
अतः यह सबसे महत्त्वपूर्ण है कि कक्षा में सभी बच्चों के लिए समावेशी माहौल तैयार किया जा सके। विशेषकर उनके लिए जिनके हाशिए पर धकेले जाने का खतरा हो । उदाहरण के लिए, वे विद्यार्थी जिसमें कुछ असमर्थताएँ हैं। विद्यार्थियों या विद्यार्थी समूहों को अपंग/असमर्थ/निर्योग्य शब्दों से सम्बोधित करने से उनमें एक प्रकार की कुंठा और असहायता की भावना घर कर जाती है। इससे उन कठिनाइयों पर परदा पड़ जाता है, जिसका सामना विद्यार्थियों को विविध सामाजिक, सांस्कृतिक वातावरण से आने के कारण करना पड़ता है। इन बच्चों के भी अन्य बच्चों के समान अधिकार होते हैं। विद्यार्थियों के बीच मतभेदों को समस्या के रूप में न देखकर शिक्षण के सहयोगी संसाधन के रूप में देखा जाना चाहिए। शिक्षा में समावेश समाज में समावेश का ही एक घटक है।
इसलिए स्कूलों का यह दायित्व बनता है कि वे एक ऐसी उदार पाठ्यचर्या को अपनाएँ जो सभी विद्यार्थियों के लिए सुलभ हो। यह दस्तावेज ऐसी पाठ्यचर्या की योजना बनाने की दिशा में आरम्भ-बिन्दु हो सकता है जो विद्यार्थियों या विद्यार्थी समूहों की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुकूल है पाठ्यचर्या में उचित चुनौती और विद्यार्थियों के लिए पर्याप्त अवसर हों, ताकि वे अध्ययन में सफलता पा सकें और अपनी सम्भावनाओं का पूर्ण विकास कर सकें कक्षा में शिक्षण और अध्यापन की प्रक्रिया इस प्रकार नियोजित हो कि वह विद्यार्थियों की विविध आवश्यकताओं को पूरा कर सके। शिक्षकों को ऐसी सकारात्मक कार्यनीति अपनाने की आवश्यकता है ताकि असमर्थ समझे जाने वाले विद्यार्थियों सहित सबको शिक्षा का माहौल मिले। ऐसा सहयोगी शिक्षकों तथा स्कूल के बाहर की संस्थाओं की मदद से किया जा सकता है।
राष्ट्रीय, राज्य, जिला और स्थानीय (गाँव/नगर) स्तरों पर विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक सुधार हेतु जिम्मेदार संस्थाओं और संगठनों के अन्दर और उन सबके बीच आपस में मानव संसाधन विकास के लिए अच्छा सामंजस्य होना चाहिए। इस नेटवर्क के माध्यम से विद्यालयी शिक्षा प्रणाली की पाठ्यचर्या को सरल व प्रभावी ढंग से क्रियान्वित किया जा सकता है। इसके लिए सभी स्तरों पर जिम्मेदारी बाँटने की आवश्यकता है, जिसके लिए राज्य, जिला व स्थानीय स्तर पर टास्क फोर्स भी गठित किए जा सकते हैं जिसमें सरकार के प्रतिनिधि और अपने कार्यों के सम्बन्ध में स्वायत्तता प्राप्त विद्यालय और समुदाय शामिल होंगे। ये टास्क फोर्स अग्रलिखित कार्य के लिए उत्तरदायी होंगे-
(i) अपने क्षेत्रों के विद्यालयों में बुनियादी सुविधाओं की पहचान और समय-समय पर उनके आकलन के लिए ।
(ii) समानता और गुणवत्ता दोनों के लिए भौतिक व मानवीय संसाधनों का अधिकतम उपयोग करने और ऐसे आवश्यक संसाधनों में वृद्धि करने की दृष्टि से योजना और कार्य-नीतियाँ बनाने के लिए उदाहरणार्थ, समुदाय में उपलब्ध संसाधनों में साझेदारी जैसे स्थानीय पुस्तकालय का उपयोग, उपयोग में लाई गई पाठ्य-पुस्तकों और वाचन सामग्री का संग्रह उन बच्चों को वितरित करके जो स्वयं इन्हें खरीद नहीं सकते।
(iii) क्रियान्वयन प्रणाली का पर्यवेक्षण आदि की मॉनीटरिंग करने के लिए।
(iv) समुदाय और सरकार के बीच सह-सम्बन्ध बरकरार रखने के लिए।
पाठ्यचर्या क्रियान्वयन हेतु विद्यालय ही ऐसी एजेन्सियाँ हैं जो पाठ्यचर्या को संचालित करती है और छात्रों के विकास से भी सीधे-सीधे जुड़ी होती हैं। इसलिए पहली से बारहवीं कक्षा तक के विद्यालयों को ही मूल्यांकन की योजना व युक्ति विकसित करनी होगी। इससे दत्तकार्य (असाइनमेंट), परीक्षण और परीक्षाओं की बारम्बारता भी शामिल होगी। विशिष्ट संज्ञानात्मक और सह-संज्ञानात्मक क्षेत्रों की मात्रा या संख्या भी तय करनी होगी। साथ ही जिस प्रकार के परीक्षण दोनों ही क्षेत्रों के लिए लागू किए जाएँगे उनके अधिगम प्रतिफलों का आकलन किया जाएगा, उनका अभिलेख रखा जाएगा और परिणामों की रिपोर्ट की जाएगी। कक्षा में अध्ययन-अध्यापन का स्तर ऊँचा उठाने और शिक्षकों को मूल्यांकन प्रक्रिया में सुधार करने हेतु क्रियात्मक शोध करने के लिए प्रोत्साहित करने की दृष्टि से विद्यालय उपचारात्मक सामग्री का विकास भी करेंगे। स्कूलों व कक्षाओं के स्थान का अधिकतम उपयोग शिक्षा के संसाधनों के रूप में किया जा सकेगा तथा बच्चों को उन गतिविधियों में हिस्सा लेने के लिए भी प्रोत्साहित किया जा सकता है जो स्कूलों और कक्षा की पढ़ाई को आकर्षक बताएँ। विद्यालय सामाजिक स्थान होते हैं अतः यहाँ समानता का मूल्य व सभी कामों के प्रति सम्मान भी बेहद महत्त्वपूर्ण है। स्कूल की पाठ्यचर्या में कुछ ऐसे अनुभव भी होते हैं जिनसे बच्चे अपनी एकल व सामाजिक जिम्मेदारियों से भी वाकिफ होते हैं। अतः सार्वजनिक स्थल के रूप में स्कूल में समानता, सामाजिक विविधता व बहुलता के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए, साथ ही बच्चों के अधिकारों और उनकी गरिमा के प्रति सजगता का भाव होना चाहिए। इन मूल्यों को सजगतापूर्वक स्कूल के दृष्टिकोण का हिस्सा बनाया जाना चाहिए और उन्हें स्कूली व्यवहार की नींव बनना चाहिए इस सन्दर्भ में ‘एक समान स्कूल’ या ‘कॉमन स्कूल प्रणाली’ काफी लाभदायक सिद्ध हो सकती है।
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