ज्ञान के निर्माण व हस्तान्तरण में अधिगमकर्त्ता की भूमिका (Role of learnner in construction and transmission of knowledge)
ज्ञान के निर्माण व हस्तान्तरण में अधिगमकर्त्ता की भूमिका- अक्सर देखा जाता है कि बच्चों में नई चीजों को सीखने की जिज्ञासा होती है, जिसके लिए वे निरंतर खोजी प्रश्न पूछते रहते हैं तथा साथ ही अपने आस-पास की दुनिया से भी बहुत ही सक्रिय रूप से जुड़े रहते हैं वे खोज-बीन करते हैं, प्रतिक्रिया करते हैं, चीजों के साथ कार्य करते हैं, चीजें बनाते हैं और इनका अर्थ गढ़ते हैं। इसे ही पियाजे ने बालक के पास स्कीमाज (Schemas) के रूप में जमा पूँजी बताया है जिससे वह अपनी संज्ञानात्मक संरचना का निर्माण करता है। इस प्रकार का संज्ञानात्मक विकास बालक के द्वारा अपने वातावरण के साथ की जाने वाली उस अन्तःक्रिया के माध्यम से होता है जिसके द्वारा ‘वह अपने आपको वातावरण में समायोजित करता है। अधिगमकर्त्ता द्वारा समाज में समाजीकृत होने की व्यवस्था द्वारा भी ज्ञान को ग्रहण किया जाता है व नये ज्ञान व सृजन किया जाता है बालक अपने आप को दूसरों से जोड़कर देखना सीखता है, जिससे उसकी समझ बनती है, वह कार्य कर पाता है और रूपान्तरण कर पाता है तथा इसके द्वारा वह अपनी गतिविधियों तथा समझ को समाहित करते हुए नया ज्ञान रचने में सक्षम हो जाता है।
समाज से मिलने वाली अनौपचारिक शिक्षा भी अधिगमकर्त्ता में अपना ज्ञान स्वयं सृजित करने की स्वाभाविक क्षमता को विकसित करती है जिससे अधिगमकर्त्ता में अपने आस-पास के सामाजिक एवं भौतिक वातावरण और विभिन्न कार्यों से जुड़ने की क्षमता बढ़ती है । इसके लिए बालक को ऐसे अवसर भी मिलने चाहिये जिससे वह नई-नई चीजों को आजमाएँ, जोड़-तोड़ करें, गलतियाँ करें और अपनी गलतियों से स्वयं सीखें। हस्त कौशल या विषय को सीखने के लिए, साधनों को बाँटकर सभी विद्यार्थियों को स्वयं के बारे में सीखने में, दूसरों व समाज के बारे में जानने के नये अवसर प्रदान करते हैं ताकि वे अपनी विरासत को समझकर उससे जुड़ पाएं, फिर चाहे उन्होंने किसी भी परिवार या समुदाय में जन्म लिया हो। स्कूल औपचारिक शिक्षा की जिन प्रक्रियाओं को सम्भव बनाता है वे विद्यार्थियों के जीवन में समझ व दुनिया से जुड़ने की नई सम्भावनाएँ खोल सकते हैं।
संज्ञान का अर्थ है कर्म व भाषा के माध्यम से स्वयं और दुनिया को समझना। सार्थक अधिगम है ठोस चीजों एवं मानसिक द्योतकों को प्रस्तुत करने व उनमें बदलाव लाने की उत्पादक प्रक्रिया न कि जानकारी इकट्ठा कर उसे रटना। इस प्रकार भाषा ( बोलचाल या सांकेतिक) व विचार का परस्पर प्रगाढ़ सम्बन्ध है। यह प्रक्रिया शैशवकाल से आरम्भ होती है और स्वतंत्र एवं मध्यस्थ गतिविधियों के माध्यम से विकसित होती है। आरम्भ में बच्चों की संज्ञानात्मक प्रवृत्ति ‘यहाँ’ और ‘अभी’ के बारे में जानने की होती है। वे ठोस अनुभवों पर तर्क और कार्य करती हैं। जैसे-जैसे उनकी भाषायी क्षमता और दूसरों के साथ काम करने की सामर्थ्य का विकास होता है, उनके कार्यों में अपेक्षाकृत अधिक जटिल विवेचना की सम्भावनाएँ खुलती जाती हैं जिनमें अमूर्तीकरण नियोजन व वे उद्देश्य समाहित होते हैं जो तत्काल दिखाई नहीं देते। इस तरह काल्पनिक विचारों के साथ काम करने तथा सम्भावनाओं की दुनिया में विवेचन करने की क्षमता बढ़ती जाती है।
अतः, अवधारणात्मक विकास सम्बन्धों को समृद्ध और प्रगाढ़ बनाने व नये अर्थों को प्राप्त करने की एक निरंतर प्रक्रिया है। इसके साथ उन सिद्धांतों का भी विकास होता है जो बच्चे प्राकृतिक व सामाजिक दुनिया के बारे में बनाते हैं। इसमें दूसरों के साथ अपने रिश्ते के सम्बन्ध में सिद्धांत भी शामिल होते हैं और ये सिद्धांत उन्हें यह बताते हैं कि चीजें जैसी हैं वैसी क्यों हैं, कारण व कारक के बीच क्या सम्बन्ध है और कार्य व निर्णय लेने के क्या आधार हैं। नजरिए, भावनाएँ और आदर्श, संज्ञानात्मक विकास के अभिन्न हिस्सें हैं और भाषा विकास, मानसिक चित्रण, अवधारणाओं व तार्किकता से इनका गहरा सम्बन्ध है जैसे-जैसे बच्चों की अधिसंज्ञानात्मक क्षमताएँ विकसित होती हैं, वे अपनी आस्थाओं के प्रति अधिक जागरूक होते जाते हैं और इस तरह अपने सीखने को स्वयं नियंत्रित व नियमित करने में सक्षम हो जाते हैं।
- सभी बच्चे से ही सीखने के लिए प्रेरित रहते हैं और उनमें सीखने की क्षमता होती है।
- अर्थ निकालना, अमूर्त सोच की क्षमता विकसित करना, विवेचना व कार्य, अधिगम की प्रक्रिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
- बच्चे व्यक्तिगत स्तर पर एवं दूसरों से भी विभिन्न तरीकों से सीखते हैं- अनुभव के माध्यम से, स्वयं चीजें करने व स्वयं बनाने से, प्रयोग करने से, पढ़ने, विमर्श करने, पूछने, सुनने, उस पर सोचने व मनन करने से तथा गतिविधि या लेखन के जरिए अभिव्यक्त करने से। अपने विकास के मार्ग में उन्हें इन सभी तरह के अवसर मिलने चाहिये।
- बच्चे मानसिक रूप से तैयार हों, उससे पहले ही उन्हें पढ़ा देना, बाद की अवस्थाओं में उनमें सीखने की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। उन्हें बहुत से तथ्य ‘याद’ तो रह सकते हैं लेकिन सम्भव है कि वे न तो उन्हें समझ पाएँ, न ही उन्हें अपने आसपास की दुनिया से जोड़ पाएँ।
- स्कूल के भीतर व बाहर, दोनों जगहों पर सीखने की प्रक्रिया चलती है। इन दोनों जगहों में यदि सम्बन्ध रहे तो सीखने की प्रक्रिया पुष्ट होती है। कला और कार्य, समग्र सीखने के अवसर प्रदान करते हैं जो सौन्दर्यबोध से पुष्ट होता है। ऐसे अनुभव भाषायी रूप में ज्ञात चीजों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं विशेषकर नैतिक मुद्दों में ताकि प्रत्यक्ष अनुभवों से सीखा जा सके और जीवन में समाहित किया जा सके।
- सीखने की एक उचित गति होनी चाहिये ताकि विद्यार्थी अवधारणाओं को रट कर और परीक्षा के बाद सीखे हुए को भूल न जाएँ बल्कि उसे समझ सकें और आत्मसात कर सकें साथ ही, सीखने में विविधता व चुनौतियाँ होनी चाहिये ताकि वह बच्चों को रोचक लगे और उन्हें व्यस्त रख सके। ऊब महसूस होना इस बात का संकेत है कि वह कार्य बच्चा अब यांत्रिक रूप से दोहरा रहा है और उसका संज्ञानात्मक मूल्य खत्म हो गया है।
- सीखना किसी की मध्यस्थता या उसके बिना भी हो सकता है। प्रत्यक्ष रूप से सीखने से सामाजिक सन्दर्भ व संवाद, विशेषकर अधिक सक्षम लोगों से संवाद विद्यार्थियों को उनके स्वयं के उच्च संज्ञानात्मक स्तर पर कार्य करने का मौका देते हैं।
इसे भी पढ़े…
- श्रवण बाधित बालक का अर्थ तथा परिभाषा
- श्रवण अक्षमता की विशेषताएँ
- मानसिक मंदता का वर्गीकरण
- मानसिक मंदता से सम्बद्ध समस्याएँ
- विकलांगजन अधिनियम 1995
- सक्षम निःशक्तजनों का राष्ट्रीय संगठन
- मानसिक मंदित बालकों की पहचान
- शिक्षण अधिगम असमर्थता एवं शैक्षिक प्रावधान
- श्रवण अक्षमता क्या है? इसकी व्यापकता
- श्रवण अक्षमता के कारण