भूमंडलीय ऊष्मीकरण एवं ग्रीन हाउस प्रभाव
पृथ्वी पर आने वाले सौर विकिरण को सूर्यातप कहते हैं। यह लघु तरंगों के रूप में होता है। सूर्यातप के वायुमण्डल में प्रवेश करने पर उसका कुछ भाग परावर्तित हो जाता है, कुछ भाग को वायुमण्डल द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है तथा शेष भाग पृथ्वी की सतह पर पहुँचता है। पृथ्वी पर उष्मा का एक सूक्ष्म संतुलन है। सूर्यातप की 100 ईकाइयों में से 35 ईकाइयां परावर्तित होकर अंतरिक्ष में विलीन हो जाती हैं, 17 ईकाई पृथ्वी की सतह से विकिरित होती है तथा 48 ईकाइयों को वायुमंडल विकिरित कर देता है। इस प्रकार उष्मा की प्राप्ति एवं हानि बराबर हो जाती है।
वायुमण्डल सूर्यातप की 14 ईकाइयों को अवशोषित करता है तथा 34 इकइयाँ पार्थिव विकिरण से उसमें आ जाती हैं। इस प्रकार कुल 48 इकाई हो जाती है। वायुमंडल ऊर्जा की इन 48 ईकाइयों को वापस अन्तरिक्ष में विकसित कर देता है। पृथ्वी की सतह सूर्यातप की 21 ईकाइयों को अवशोषित करती है तथा उतनी ही मात्रा वापस विकिरित करती है, इसलिए कहा जा सकता है कि वायुमण्डल सीधेसूर्यातप से गर्म नहीं होता, बल्कि पार्थिव विकिरण से गर्म होता है।
ठंडे प्रदेशों में सब्जियाँ और फूलों के पौधे ग्लास हाउस (ग्रीन हाउस) में उगाए जाते हैं। ग्लास हाउस का आंतरिक भाग बाहर की अपेक्षा गर्म रहता है, क्योंकि कांच सूर्यातप को अन्दर तो आने देता है किन्तु पार्थिव विकिरण को तत्काल बाहर नहीं निकलने देता। पृथ्वी को सब ओर से घेरेने वाला वायुमंडल ग्रीन हाउस की भाँति कार्य करता है। वायुमंडल सूर्यातप को अपने में से गुजरने देता है तथा पार्थिव विकिरण को अवशोषित कर लेता है। इसे वायुमंडल का “ग्रीन हाउस प्रभाव’ कहते हैं।
औद्योगीकरण एवं वनों के विनाश से पर्यावरण में कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है। बढ़ी हुई कार्बन डाई आक्साइड ने ग्रीन हाउस प्रभाव को जन्म दिया। वायुमंडल में कार्बन डाई आक्साइड को एक चादर-सी बनी है जिसकी वजह से सूर्य के प्रकाश के साथ पृथ्वी पर आई इन्फ्रारेड रेडियो-एक्टिव किरणें पूर्णतया वापस नहीं हो पार्ती और कार्बन डाई आक्साइड में जब्त हो जाती हैं। इस तापीय ऊर्जा के वायुमंडल में कैद हो जाने से धरती के औसत तापमान में वृद्धि होती है, जिसे भूमंडलीय ऊष्मीकरण अथवा वैश्विक तापन (ग्लोबल वार्मिंग) कहते हैं। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न भूमंडलीय ऊष्मीकरण (ग्लोबल वार्मिंग) एक सार्वभौमिक समस्या है। इस समय विश्व का कोई भी देश इससे अछूता नहीं है। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से पृथ्वी का तापमान निरंतर बढ़ रहा है।
भूमंडलीय ऊष्मीकरण के लिए प्रमुख रूप से कार्बन डाई आक्साइड गैस जिम्मेदार है परन्तु मीथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन (CFCs), नाइट्ररा आक्साइड, ओजोन, सल्फर डाई आक्साइड तथा जलवाष्प भी इसके लिए जिम्मेदार है। इन्हें ग्रीन हाउस गैसें कहा जाता हैं। भूमंडलीय उष्मीकरण में कार्बन डाई आक्साइड का योगदान 50 प्रतिशत, मीथेन का 18 प्रतिशत, क्लोरोफ्लोरो कार्बन का 14 प्रतिशत एवं नाइट्रस आक्साइड का 6 प्रतिशत है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन का अविष्कार अमेरिका में 1930-31 में हुआ था। अज्वलनशील, रासायनिक रूप से निष्क्रिय तथा अविषाक्त होने के कारण इसकी पहचान एक आदर्श प्रशीतक के रूप में की गई है। रेफ्रीजरेटर, वातानुकूल यंत्रों, इलैक्ट्रानिक, प्लास्टिक, दवा उद्योगों एवं एरोसोल आदि में इसका इस्तेमाल व्यापत रूप से होता है।
एल्युमीनियम उद्योग द्वारा सी.एफ.सी.-14 (टेट्रा फ्लोरो मीथेन) एवं एवं सी.एफ.सी.-116 (टेट्राफ्लोरो ईथेन) निस्तारित होती है। इसकी धरती को गर्माने की क्षमता कार्बन डाईआक्साइड की अपेक्षा 800 गुना अधिक होती है। औसतन एक टन एल्युमीनियम के उत्पादन से लगभग 1.6 किग्रा. सी.एफ. सी.-14 एवं 0.2 किग्रा. सी.एफ.सी.-16 गैसें उत्पन्न होती हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से सम्बद्ध शेरवुड रोलैंड तथा मेरियो मोबिना ने 1974 में अपने अनुसंधानों से सिद्ध किया कि सी.एफ.सी. में मौजूद क्लोरीन ओजोन के अणुओं के विघटन का कारण बनती है अर्थात् वायुमण्डल में उपस्थित ओजोन के अणुओं को क्षतिग्रस्त करती है।
ग्रीन हाउस गैसों में कार्बन डाई आक्साइड (CO) सर्वाधिक महत्वपूर्ण गैस है। कार्बन चक्र के माध्यम से वायुमंडल में इसका स्तर सामान्य बना रहता है परन्तु पिछले कुछ दशकों से ऐसा नहीं हो रहा है। वायुमंडल में निरंतर इसकी मात्रा बढ़ती जा रही है। जीवाश्म ईंधन का प्रयोग, निर्वनीकरण एवं भूमि उपयोग में परिवर्तन इसके प्रमुख स्रोत हैं। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की एक रिपोर्ट के अनुसार 1880-1890 में इसकी मात्रा लगभग 290 पार्ट्स पर मिलियन (PPM) थी जो 1990 में बढ़कर 340 पीपीएम एवं वर्ष 2000 में 400 पीपीएम हो गई। वायुमण्डल में मिथेन गैस की मात्रा भी चिंताजनक रूप से बढ़ रही है। विगत् 100 वर्षों में मिथेन गैस का संकेन्द्रण दो गुना से अधिक हो गया है। क्लोरो फ्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड एव सल्फर डाई ऑक्साइड आदि गैसों के परिणाम में भी निरंतर तीव्र वृद्धि हो रही है। ग्रीन हाउस गैसों में हो रही इस वृद्धि से वायुमंडल में विकिरणों के अवशोषण करने की क्षमता निरंतर बढ़ रही है। इससे पृथ्वी के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। इसे ही भूमंडलीय ऊष्मीकरण अथवा वैश्विक तापन (ग्लोबल वार्मिंग) के रूप में सूचित किया जा रहा है।
प्रभाव एवं दुष्परिणाम :-
शिकागो विश्वविद्यालय के पर्यावरणीय वैज्ञानिक डॉ. वी. रामानाथन के अनुसार-पृथ्वी का औसत तापमान, जो ग्रीन हाउस गैसों के कारण लगभग 11.5°C बढ़ चुका है और अब प्रदूषणकारी गैसें वायुमंडल में न भी छोड़ी जाएं तो वर्ष 2030 तक 1980 की अपेक्षा पृथ्वी का तापमान 5°C तक बढ़ जाएगा। इस तापमान वृद्धि के परिणाम भयानक होंगे। बढ़ते तापमान से उत्तरी अमेरिका में जलवृष्टि अतिक्षीण हो जाएगी एवं भयंकर गर्म हवाओं का प्रकोप होगा। सं.रा.अमेरिका के उत्तरी प्रांतों में वीभत्स समुद्री तूफानों के आने की संभावनाएँ बढ़ जाएँगी। बढ़ेतापमान के कारण ध्रुवों की बर्फ पिघलने लगेगी, जिससे समुद्र तल ऊपर उठ जाएगा, परिणामस्वरूप मालदीव और बांग्लादेश जैसे अनेक देश जलमग्न हो जाएँगे।
पृथ्वी पर बढ़ता तापमान ही जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है। जलवायु में हो रहे परिवर्तन से रेगिस्तान में बाढ़ आ रही है तो सघन वर्षा वाले क्षेत्रों में सूखा पड़ रहा है। बढ़ते तापमान से हिम क्षेत्रों में ग्लेशियर पिघल रहे हैं। इससे तटीय स्थानों एवं द्वीपों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। जलवायु परिवर्तन के कारण पेय जल की सिंचाई के लिए जल की उपलब्धता भी प्रभावित होने की संभावना है। साथ ही, सिंचाई पर आधारित भारत जैसे विकासशील राष्ट्रों में फसल चक्र में परिवर्तन होने का खतरा है।
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