परम्परा का अर्थ, परिभाषा, तथा महत्व
परम्परा क्या है ?
परम्परा – सामान्यतया ‘सामाजिक विरासत’ को ही परम्परा कहते हैं परन्तु वास्तव में परम्परा के काम करने का ढंग जैविक वंशानुसंक्रमण या प्राणिशास्त्रीय विरासत के तरीके से मिलता-जुलता है, और वह भी जैविक वंशानुसंक्रमण की तरह कार्य को ढालती व व्यवहार को निर्धारित करती है। उसी तरह परम्परा का भी स्वभाव बगैर टूटे खुद जारी रहने का और भूतकाल की उपलब्धियों को आगे आने वाले युगों में ले जाने या उन्हें हस्तान्तरित करने का है। यह सब सच होने पर भी सामाजिक विरासत और परम्परा सामान्य नहीं है।सामाजिक विरासत की अवधारणा परम्परा से अधिक व्यापक है। सामाजिक विरासत के अन्तर्गत भौतिक तथा अभौतिक दोनों ही प्रकार की चीजें आती हैं, जबकि ‘परम्परा’ के अन्तर्गत भौतिक पदार्थो का नहीं, बल्कि विचार, आदत, प्रथा, रीति-रिवाज, धर्म आदि अभौतिक पदार्थों का समावेश होता है। अत: स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक विरासत नहीं, ‘सामाजिक विरासत’ का एक अंग मात्र है। परम्परा’ सामाजिक विरासत का अभौतिक अंग हैं ‘परम्परा’ हमारे व्यवहार के तरीकों की द्योतक है, न कि भौतिक उपलब्धियों की।
परम्परा की परिभाषा – श्री जिन्सबर्ग के शब्दों में,”परम्परा का अर्थ उन सभी विचारों आदतों और प्रथाओं का योग है, जो व्यक्तियों के एक समुदाय का होता है, और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होता रहता है।
श्री जेम्स ड्रीवर ने लिखा है, ‘परम्परा – कानून, प्रकट कहानी तथा किवदन्ती का वह संग्रह है, जो मौखिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित किया जाता है।
उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक विरासत का वह अभौतिक अंग है जो हमारे व्यवहार के स्वीकृत तरीको का द्योतक है, और जिसकी निरन्तरता पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरण की प्रक्रिया द्वारा बनी रहती है।
समाजशास्त्रीय महत्व या कार्य :
परम्पराओं का महत्व निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है:
1. परम्परा सामाजिक जीवन में व वैयक्तिक व्यवहार में एकरूपता उत्पन्न करती है। परम्परा हस्तान्तरित होती है; पर, यह नहीं होता है कि व्यक्ति को एक परम्परा के रूप में मिले तो दूसरे को वही किसी दूसरे रूप में। परम्परा का रूप सबके लिए समान होता है; और जब परम्परा के अनुसार समाज के सदस्य समान रूप में व्यवहार करते हैं तो सामाजिक जीवन वा व्यवहार में एकरूपता उत्पन्न हो जाती है।
2. परम्पराओं का प्रत्येक समाज में अधिक महत्त्व होता है। परम्परा, जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैं हमारे व्यवहार के ढंगों का पता चलाते है। परम्पराएँ वह निर्धारित करती हैं कि हमें किस समय, ऊपर लिख चुके हैं, हमारे व्यवहार के तरीकों की द्योतक है, अर्थात् परम्परा के आधार पर हम किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए। व्यवहार के ये तैयार प्रतिमान (readymade patterns of behaviour) हमें बचपन से ही, समाजिकरण की प्रक्रिया के माध्यम से, अन्य लोगों से. आप से आप प्राप्त हो जाते हैं। यही कारण है कि सामाजिक जीवन से सम्बन्धित अनेक परिस्थितियों में हमें किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए, यह हमें सोचना नहीं पड़ता और परम्पररा की सहायता से सारा काम आप से आप चलता रहता है। परम्पराओं के कारण ही अनेक सामकजिक परिस्थितियाँ हमें नई नहीं लगती। अतः स्पष्ट है कि परम्परा सामाजिक व्यवहार को सरल बनाती है और उसे एक निश्चित दिशा देती है।
3. परम्पराओं के बल पर समाज – नवीन परिरस्थितियों, समस्याओं तथा संकटों का सामना अपेक्षाकृत अधिक सरलता तथा सफलतापूर्वक कर सकता है। यह सच है कि नवीन परिस्थितियों तथा संकटों का सामना करने के लिए नवीन तरीकों व नवीन ज्ञान पर आधारित होते है। यही नहीं, इस विषय में परम्परा या भूतकाल की देन वर्तमान से अधिक होती है। इसीलिए डा0 मैकडूगल ने लिखा है कि हम जीवितों की अपेक्षा मृतकों से अधिक सम्बन्धित होते हैं। समस्याओं को सुलझाने या परिस्थितियों का सामना करने के पुराने ढ़गों की नींव पर ही जीवन की नवीन प्रणालियों को विकसित किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त नवीन परिस्थितियों, समस्यों तथा संकटों का सामना करने के लिए जिस धैर्य, साहस तथा आत्मविश्वास की अपेक्षा होती है, वह हमें ‘परम्परा’ के अनुभवों से ही प्राप्त हो सकता है।
4. परम्परा व्यक्ति में सुरक्षा की भावना पनपती है। परम्परा अनुभवसिद्ध व्यवहारों का संग्रह होती है। हमारे पूर्वज, बहुत प्रयास के बाद, विभिन्न परिस्थितियों में जिन व्यवहारों या क्रियाओं के ढ़गों को सफल पाते है, उचित समझते हैं, वही हमें परम्परा के रूप में प्राप्त होते हैं। इस रूप में परम्परा पूर्वजों द्वारा व्यावहारिक ढ़ग से परीक्षित (tested) व्यवहार के सफल व उपयोगी तरीकों का ही दूसरा नाम है। इसीलिए इन तरीकों के सम्बन्ध में हमारे मन में दुविधा नहीं होती, और हम अपने अन्दर विभिन्न परिस्थितियों में एक सुरक्षा की भावना को स्वत: ही विकसित कर लेते है। कारण यह है कि हमें पहले से ही यह पता होता है कि किस परिस्थिति में हमें किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए।
5. परम्परा व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित करती है। परम्परा, कुछ निश्चित व्यवहार- प्रतिमानों को प्रस्तुत करती है और समाज के सदस्यों से यह आग्रह करती है कि वे उन्हीं प्रतिमानों का अनुसरण करें। परम्परा के पीछे अनेक पीढ़ियों का अनुभव तथा सामाजिक अभिमति (social sanction)होती है, और इसीलिए इसमें व्यक्ति के व्यवहार को नियन्त्रित करने की शक्ति होती है। सामाजिक निन्दा के डर से ही व्यक्ति परम्परा को तोड़ने का साहस सामान्यत: नहीं करते। परम्परा’ किसी व्यक्ति-विशेष की नहीं होती, वह तो ‘सब’ की होती है। यह सब ‘प्रत्येक’ पर अपना नियन्त्रणात्मक प्रभाव डालता है, और उसके व्यवहार को निर्देशित व संचालित करता है।
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