आदर्शवाद क्या है?
आदर्शवाद राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में प्रतिपादित एक प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण विचारधारा है। इसे समय-समय पर अनेक नामों से पुकारा जाता रहा है जिनमें ‘चरमतावादी सिद्धान्त’, ‘नैतिक सिद्धान्त’, ‘आध्यात्मिक सिद्धान्त’ और ‘राज्य का आदर्शवादी नैतिक सिद्धान्त’ और ‘प्रत्ययवाद’ आदि प्रमुख है। आदर्शवाद के इन विभिन्न नामों के कारण आदर्शवाद के विभिन्न विचारकों की आदर्श राज्य के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं।
आदर्शवादी सिद्धान्त और विचारधारा के प्रतिपादक काण्ट, हीगल, ग्रीन तथा बोसांके मुख्य रूप में दार्शनिक थे। इन आदर्शवादियों ने राज्य सम्बन्धी समस्याओं का दार्शनिक दृष्टिकोण से अध्ययन-विवेचन किया है और उनकी राजनीतिक धारणाएँ बहुत अधिक सीमा तक उनके आध्यात्मिक विचारों पर ही आधारित है। आदर्शवादी राज्य से सम्बन्धित अपनी विचारधारा को मनुष्य के विवेकशील तथा आध्यात्मिक तत्त्व पर आधारित करते हैं, क्योंकि उनका विश्वास है कि वही तत्त्व मानव स्वभाव में अधिक व्यापक तथा स्थायी है। इसी कारण वे राज्य तथा उसकी संस्थाओं की यथार्थ स्थिति का नहीं, वरन् उनके आदर्श स्वरूप का अध्ययन करते हैं।
आदर्शवाद के अनुसार राज्य एक कृत्रिम संस्था न होकर एक ऐसी प्राकृतिक व स्वाभाविक संस्था है जिसे मनुष्य की आन्तरिक मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। इसके अनुसार क्योंकि राज्य मनुष्य की आन्तरिक मनोवृत्ति का ही प्रकट और व्यापक रूप है, अतः राज्य और व्यक्ति में कोई विरोध हो ही नहीं सकता है। राज्य एक भौतिक संस्था न होकर नैतिक और आध्यात्मिक संस्था है और इस कारण उसका कार्य व्यक्ति के बाहरी क्रियाकलापों को नियन्त्रित करना ही नहीं, अपितु उसका कार्य व्यक्ति को नैतिक बनाना भी है। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राज्य को अधिकार है कि वह व्यक्ति के समस्त क्रियाकलापों को नियन्त्रित कर सके। इस प्रकार आदर्शवाद के अनुसार राज्य के अधिकार और उसका कार्यक्षेत्र असीमित है तथा व्यक्ति को राज्य के विरुद्ध कोई भी अधिकार प्राप्त नहीं हो सकता।
इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति की नैतिकता और स्वतन्त्रता राज्य प्रदत्त होती है और व्यक्ति राज्य के अन्तर्गत रहकर ही वास्तविक स्वतन्त्र व नैतिक जीवन व्यतीत कर सकता है। इसलिए यदि व्यक्ति को मानव जीवन के सर्वोत्कृष्ट ध्येय व प्रयोजनों की साधना करनी है तो उसे राज्य की साधना करनी चाहिए क्योंकि राज्य के बिना उन ध्येय एवं प्रयोजनों की साधना सम्भव ही नहीं है। इस प्रकार आदर्शवाद के अनुसार राज्य साध्य और व्यक्ति उसका साधन मात्र है तथा राज्य व व्यक्ति के बीच उसी प्रकार का सम्बन्ध है, जैसा सम्बन्ध शरीर और उसके अंगों के बीच होता है। जिस प्रकार अंगों का शरीर से भिन्नं कोई अस्तित्व नहीं होता, उसी प्रकार व्यक्ति का भी राज्य से भिन्न कोई अस्तित्व नहीं होता।
आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त क्या हैं?
19वीं और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध की राजनीतिक विचारधारा में आदर्शवाद का बहुत अधिक प्रभाव रहा है। राज्य के सम्बन्ध में अपने दृष्टिकोण के आधार पर आदर्शवाद के उग्रवादी आदर्शवाद और उदारवादी आदर्शवाद इस प्रकार के दो पक्ष रहे हैं। आदर्शवाद के इन दो पक्षों में अनेक मतभेद होते हुए भी उनकी मूल विचारधारा एक ही है और आदर्शवादी विचारधारा के मूल सिद्धान्तों का संक्षिप्त उल्लेख निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है-
(1) राज्य एक नैतिक संस्था है- आदर्शवादी राज्य को प्रकृतिवादी तथा बुद्धिवादी विचारकों की भाँति भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन मात्र न मानकर उसका अस्तित्व एक नैतिक संस्था के रूप में मानते हैं। जिस प्रकार समाज में परिवार, मन्दिर आदि संस्थाएँ व्यक्ति को नैतिक दृष्टि से पूर्ण बनाने का प्रयत्न करती हैं, उसी प्रकार राज्य का भी यह कर्तव्य है कि वह व्यक्ति को सामाजिक जीवन तथा कार्य व्यापार में उपयुक्त स्थान प्रदान करें और उसे इस योग्य बनाएँ कि वह अपनी सामाजिकस्थिति से सम्बन्धित कर्त्तव्यों को सुचारु रूप से सम्पन्न कर सके। आदर्शवादियों का विचार है कि ‘राज्य हमारे नैतिक विचार का ही प्रत्यक्षीकरण’ है और राज्य की सदस्यताअनैतिक एवं मूर्ख मानव को नैतिक, योग्य तथा विवेकशील बनाती है।
(2) राज्य साध्य है, साधन नहीं – व्यक्तिवाद, समाजवाद और दूसरी अन्य विचारधाराएँ राज्य को व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का एक साधनमात्र बनाती हैं, परन्तु आदर्शवादी राज्य को साध्य मानते हैं। आदर्शवादियों के अनुसार राज्य एक ऐसा साध्य है, जिसके विकास हेतु व्यक्ति को अपना बलिदान करने के लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए। राज्य की तुलना में व्यक्ति की कोई सत्ता नहीं है, व्यक्ति तो राज्य रूपी ध्येय के साधनमात्र हैं, अतः उनके द्वारा पूर्ण रूप से राज्य की अधीनता स्वीकार कर ली जानी चाहिए। इस सम्बन्ध में बार्कर ने लिखा है, “आदर्शवादी साधारणतया अपनी विचारधारा का केन्द्र व्यक्ति के स्थान पर राज्य को बनाते हैं। वास्तव में उनकी विचारधारा का प्रारम्भ ही केन्द्रीय सामाजिक व्यवस्था से होता है जिसमें व्यक्ति को अपना निर्दिष्ट स्थान खेज लेना चाहिए अर्थात् उनके अनुसार समाज व्यक्ति के लिए नहीं है।”
(3) राज्य का अपना लक्ष्य तथा व्यक्तित्व- आदर्शवाद के अनुसार राज्य का अपना पृथक् व्यक्तित्व तथा इच्छा होती है। राज्य की यह इच्छा व्यक्ति की व्यक्तिगत व सामूहिक इच्छा से पृथक् और उच्चतर होती है। राज्य व्यक्तियों का समुदायमात्र नहीं होता, वरन् उसकी सत्ता उन व्यक्तियों की समष्टि से भिन्न तथा उच्चतर होती है, जिनसे वह बनता है। फिक्टे ने लिखा है कि, “जिस प्रकार एक तैल चित्र तेल कणों का केवल समूह नहीं, वरन् उससे अधिक है। जिस प्रकार एक पत्थर की मूर्ति संगमरमर के कणों का समूहमात्र नहीं है, जिस प्रकार एक मनुष्य घटकों तथा रक्त धमनियों का समूह मात्र न होकर उससे अधिक है, ठीक उसी प्रकार राष्ट्र व्यक्तियों का समूहमात्र न होकर उससे अधिक है।”
(4) राज्य सामान्य इच्छा का प्रतिनिधित्व करता है- रूसो का सामान्य इच्छा सिद्धान्त आदर्शवादी दर्शन का केन्द्र-बिन्दु है। इस विचारधारा के अनुसाररूसो की सामान्य इच्छा जो सदैव निःस्वार्थ, स्थायी तथा लोकोपकारक होती है, राज्य के रूप में साकार अथवा मूर्तरूप ग्रहण करती है। इस सामान्य इच्छा में व्यक्तिगत इच्छाओं का उस सीमा तक प्रतिनिधित्व होता है, जिस सीमा तक व्यक्तिगत इच्छाएँ सार्वजनिक हित से प्रेरित होती हैं। राज्य का कोई भी कार्य व्यक्ति की इच्छा के विपरीत नहीं होता क्योंकि राज्य उस सामान्य इच्छा के अनुकूल कार्य करता जिसके अन्तर्गत व्यक्ति की ‘आदर्श इच्छा’ भी सम्मिलित होती है। सामान्य इच्छा का प्रतिनिधि होने के कारण राज्य के सभी कार्य आवश्यक रूप से उचित, विवेकपूर्ण तथा नैतिकतापूर्ण होते हैं।
(5) राज्य आन्तरिक और बाह्य दृष्टि से सर्वशक्तिमान है- आदर्शवाद के अनुसार राज्य सर्वशक्तिमान, अजर, अमर, सर्वाधिकार सम्पन्न तथा नैतिकता का संरक्षक है। अतः व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि वह राज्य के समस्त आदेशों और कानूनों का पालन करे। राजसत्ता किसके हाथ में है, इसका व्यक्ति के लिए कोई महत्त्व नहीं होना चाहिए। उसका प्रयोग चाहे कोई निरंकुश राजा करे या कोई विशेष श्रेणी, व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह राज्याज्ञा का पूर्णतः पालन करे।
अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी राज्य की शक्ति असीम है और अन्तर्राष्ट्रीय कानून को भी राज्य की कार्यनीति नियन्त्रित करने का कोई अधिकार नहीं है। राज्य अपने उत्कर्ष के लिए अपनी इच्छानुसार किन्हीं भी साधनों का प्रयोग कर सकता है। उम्र आदर्शवादियों के अनुसार तो युद्ध भी कोई बुरी बात न होकर एक अनिवार्य वस्तु और राज्य के उत्कर्ष का एक उपयोगी, साधन है। इस प्रकार हीगल जैसे आदर्शवादी राज्य को उपासना की श्रेणी में प्रतिष्ठित करते हुए लिखते हैं कि, “राज्य पृथ्वी पर परमेश्वर की अवतारणा है! यह पृथ्वी पर विद्यमान एक दैवीय विचार है।”
(6) राज्य का आधार बल नहीं, इच्छा है- आदर्शवाद के अनुसार राज्य का आधार शक्ति या बल नहीं, वरन् इच्छा है। व्यक्ति राज्य के कानूनों का पालन इसलिए नहीं करते कि राज्य उन्हें बलपूर्वक मनवाता या मनवा सकता है, वरन् इसलिए करते हैं कि वास्तव में राज्यशक्ति राज्य के कानून व उसके आदेश उस सामान्य इच्छा के मूर्तरूप होते हैं जिसमें व्यक्ति की अपनी औचित्यपूर्ण इच्छा भी सम्मिलित होती है। इस प्रकार राज्य के कानूनों व आदेशों का पालन करते समय हम अपनी ही सद्इच्छा का पालन कर रहे होते हैं। ग्रीन के अनुसार यदि राज्य उत्पीड़न करके अपनी आज्ञाओं का पालन कराता है तो वह राज्य कभी भी स्थायी नहीं हो सकता।
(7) मानव स्वतन्त्रता राज्य के आज्ञापालन में ही निहित है- आदर्शवादी राजकीय बन्धनों के अभाव को स्वतन्त्रता नहीं समझते और इस सम्बन्ध में उनका विचार है कि जिस प्रकार कुरूपता के अभाव का अर्थ सुन्दरता नहीं है, उसी प्रकार बन्धनों के अभाव का अर्थ स्वतन्त्रता नहीं है। ये सकारात्मक स्वतन्त्रता के उपासक हैं और उनका विचार है कि वास्तविक स्वतन्त्रता राजकीय बन्धनों के आधार पर ही प्राप्त की जा सकती है। स्वतन्त्रता का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अधिकाधिक अवसर प्रदान करना है और ये अवसर राज्य के द्वारा ही प्रदान किये जा सकते हैं। अतः मानव की वास्तविक स्वतन्त्रता राज्य की आज्ञापालन में ही निहित है। बन्धनों के अभाव में तो स्वतन्त्रता केवल शक्तिशाली व्यक्तियों का विशेषाधिकार मात्र बनकर रह जाती है। स्वतन्त्रता की राज्य पर निर्भरता के सम्बन्ध में आदर्शवादी दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए प्रो. बार्कर अपनी तार्किक शैली में लिखते हैं कि, “मानवीय चेतना स्वतन्त्रता को जन्म देती हैं, स्वतन्त्रता में अधिकार का भाव निहित है और अधिकार (अपनी रक्षा हेतु) राज्य की माँग करते हैं।”
(8) राज्य अधिकारों का जन्मदाता है- आदर्शवादी, व्यक्तिवादियों या अनुबन्धवादियों की भाँति राज्य से पूर्व प्राकृतिक अधिकारों के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते हैं। वे अधिकारों को मानव जीवन की ऐसी बाह्य परिस्थितियाँ मानते हैं जिनके द्वारा व्यक्ति का आन्तरिक विकास सम्भावित होता है और राज्य ही एकमात्र ऐसी संस्था है जो व्यक्ति के आन्तरिक विकास हेतु आवश्यक बाह्य परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकती है। आदर्शवादी राज्य को ही अधिकारों का जन्मदाता और नैतिक अभिभावक मानते हैं तथा उनका विश्वास राज्य के द्वारा ही उनके अधिकारों के संरक्षण में हैं।
(9) व्यक्ति और राज्य में कोई विरोध नहीं- आदर्शवादी व्यक्ति और राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय पर सावयव सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं और उनका विचार है कि जिस प्रकार अंग और शरीर के हितों में कोई विरोध नहीं होता, उसी प्रकार व्यक्ति और राज्य में भी विरोध सम्भव नहीं है। आदर्शवाद के अनुसार व्यक्ति के वास्तविक हित वहीं हैं जिन्हें राज्य द्वारा उनका हित समझा जाए। व्यक्ति व राज्य के हितों में विरोध केवल भ्रमवश ही हो सकता है और ऐसी स्थिति में जब कभी भी व्यक्ति और राज्य के हित परस्पर विरोधी रूप में उपस्थित हों तो राज्य के हितों को उत्कृष्ट व महत्त्वपूर्ण समझते हुए प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
(10) राजनीतिक और नैतिक कर्त्तव्यों में कोई अन्तर नहीं- आदर्शवादी राजनीतिक और नैतिक कर्त्तव्यों में कोई अन्तर नहीं मानते हैं। काण्ट के अनुसार कर्तव्य का सम्बन्ध मानव की आन्तरिक चेतना से है और राज्य मानव की आन्तरिक चेतना की ही व्यापक अभिव्यक्ति है, अतः राज्य के प्रति हमारे प्रत्येक कर्तव्य का नैतिक होना आवश्यक है। जो वस्तु नैतिक रूप से गलत है वह कभी भी कानूनी रूप में सत्य नहीं हो सकती है।
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