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आदर्शवाद की आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।

आदर्शवाद की आलोचनात्मक विवेचना
आदर्शवाद की आलोचनात्मक विवेचना

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आदर्शवाद की आलोचनात्मक विवेचना

काण्ट, हीगल और बोसांके, आदि आदर्शवादियों ने राज्य की सत्ता का जिस अतिशयतापूर्ण और उग्र रूप में प्रतिपादन किया है उसका विद्वानों द्वारा अत्यन्तप्रबल खण्डन एवं कटु आलोचना की गयी है। इस सिद्धान्त के विरुद्ध जो युक्तियाँ दी जाती हैं, संक्षेप में, उनका उल्लेख निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है-

(1) आदर्शवाद यथार्थताओं से परे केवल एक आदर्शवादी सिद्धान्त है- आलोचक आदर्शवाद को यथार्थताओं से परे और अनावश्यक भावुकता से पूर्ण एक आध्यात्मिक सिद्धान्त मानते हैं। आदर्शवादियों द्वारा जिस आदर्श राज्य की कल्पना की गयी है, उसकी स्थापना केवल स्वर्ग में ही सम्भव है। प्रो. लॉस्की ने ठीक ही कहा है कि “जिस राज्य की बोसांके चर्चा करता है, वह वास्तविक जगत की वस्तु नहीं है, वरन् केवल विचारों की चहारदीवारी में पाया जाता है।”

आदर्शवादियों का कथन गलत है कि “जो वास्तविक है, वही विवेकपूर्ण है जो विवेकपूर्ण है वही वास्तविक है।” व्यवहार में प्रत्येक यथार्थ स्थिति को विवेकपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। ब्रिटिश शासन के अन्तर्गत भारत के नागरिकों और जार के शासन के अन्तर्गत रूस के नागरिकों की दुरावस्था सत्य थी, किन्तु कल्पना के किसी भी पहलू से उसे विवेकपूर्ण नहीं माना जा सकता। जेम्स के ये शब्द पूर्णतया सत्य हैं कि “आदर्शवाद एक कल्पनाशील दर्शन है जो सुख और दुःख की कटु अनुभूतियों तथा स्पष्ट तथ्यों को हमसे दूर रखता है।”

(2) राज्य और समाज अनुरूप नहीं हैं- आदर्शवादी राज्य व समाज को एक मानकर चलते हैं जबकि वास्तविक रूप में राज्य समाज में अनेक समुदायों में से एक समुदायमात्र है। राज्य को मनुष्य की सामाजिकता का सर्वोत्कृष्ट रूप तो कहा जा सकता है, किन्तु आदर्शवादियों के समान उसे मनुष्य की सामाजिकता का एकमात्र रूप नहीं माना जा सकता। वास्तव में व्यक्ति की सामाजिकता स्वयं को अनेक रूपों में अभिव्यक्त करती है तथा उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए उसकी सामाजिकता के इन सभी रूपों अर्थात् समुदायों को उचित स्थान मिलना चाहिए।

(3) राज्य साधन है, साध्य नहीं- सभी आदर्शवादी विचारक राज्य का एक पृथक् व्यक्तित्व स्वीकार करते हैं और उसे एक साधन न मानकर साध्य बतलाते हैं जिसे आज के युग में स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि हम व्यवहारिक दृष्टि से देखें तो राज्य एक ऐसी संस्था है जिसका उद्देश्य व्यक्तियों को कल्याणप्रद तथा सुखदायी जीवन प्रदान करना है। इस साध्य की प्राप्ति के लिए राज्य केवल एक साधन है, साध्य नहीं। जोड़ के शब्दों में कहा जा सकता है। कि “राज्य व्यक्ति के लिए होता है, व्यक्ति राज्य के लिए नहीं दूसरे शब्दों में राज्य और समुदाय अपने आप में साध्य नहीं है। “

(4) राज्य का एक पृथक् व्यक्तित्व नहीं है- उग्र आदर्शवादियों ने राज्य को सावयवी मानकर यह प्रतिपादित किया है कि राज्य का एक पृथक् व्यक्तित्व होता है, लेकिन आदर्शवादियों की इस धारणा को स्वीकार नहीं किया जा सकता। व्यक्तियों के संगठन से राज्य रूपी कोई नवीन लोकोत्तर व्यक्ति बन जाता है, यह मानना युक्ति-संगत नहीं है। मैकाइबर ने इस सम्बन्ध में ठीक ही कहा है कि “जिस प्रकार बहुत-से घोड़ों के समूह से कोई नवीन उत्कृष्ट घोड़ा नहीं बनता अथवा विद्यार्थियों के संगठित होने से किसी नवीन सर्वोत्कृष्ट विद्यार्थी की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार अनेक व्यक्तियों के समुदाय से किसी लोकोत्तर व्यक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है।”

इसके अतिरिक्त सावयविकता के आधार पर व्यक्ति व राज्य के जिस सम्बन्ध की कल्पना आदर्शवादियों ने की है, वह भी औचित्यपूर्ण नहीं है। शरीर के अंगों का शरीर से पृथक् अस्तित्व नहीं होता, जबकि व्यक्तियों की अपनी व्यक्तिगत व पृथक् विचार शक्ति होती है। कोई

(5) सर्वशक्तिमान राज्य का सिद्धान्त स्वीकार करने योग्य नहीं है- आदर्शवादी राजसत्ता की कोई सीमा निश्चित नहीं करते और उसकी सर्वशक्तिमानता का प्रतिपादन करते हैं; लेकिन यह दृष्टिकोण न तो उचित है और न ही व्यवहारिक। यह एक सर्वविदित बात है कि राज्य कानूनों के माध्यम से कार्य करता है और कानून व्यक्तियों के केवल बाहरी कार्यों को ही नियन्त्रित कर सकते हैं। इसलिए व्यवहार में किसी भी राज्य द्वारा असीमित शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त राज्य को असीमित शक्तियाँ देने के अवांछनीय परिणाम होंगे और इससे कार्यपालिका निरंकुश एवं अत्याचारी हो जाएगी। असीमित शक्तियों का यह प्रयोग अन्त में स्वयं शासकों को ही नष्ट कर देगा।

(6) राज्य पूर्णतः दोषमुक्त संस्था नहीं है- आदर्शवादियों द्वारा प्रतिपादित राज्य के दोषमुक्तता के सिद्धान्त को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है। राज्य व्यक्तियों के माध्यम ही कार्य करता है और यह एक सर्वविदित बात है कि ‘गलती करना मानव स्वभाव है।’ यह बात समझ में नहीं आती कि एक व्यक्ति शासक वर्ग में सम्मिलित होते ही ऐसा देवता कैसे हो जाता है, जो कभी गलती नहीं करता। इस सम्बन्ध में प्रो. हॉबहाउस ने ठीक ही कहा है कि “शासकीय कानून या दूसरी राजकीय संस्थाएँ मानवता के सर्वाधिक सफल परीक्षणों से बहुत दूर हैं। वे आलोचना की माँग करते हैं और उसकी पूजा करना झूठे देवताओं की स्थापना करना है ।”

(7) आदर्शवादी स्वाधीनता का सिद्धान्त दोषपूर्ण है- आदर्शवादी विचारधारा वैयक्तिक स्वतन्त्रता की भी विरोधी है। इस विचारधारा के अनुसार व्यक्ति की स्वतन्त्रता ही इस बात में है कि वह राज्य की आज्ञा और उसके कानूनों का बिना किसी विरोध के पालन करे। इसमें सन्देह नहीं है कि व्यक्ति की स्वतन्त्रता राज्य संस्था पर आश्रित होती है, किन्तु यह अनौचित्यपूर्ण है कि व्यक्ति अपनी स्वतन्त्रता राज्य के आदर्शों व उसके कानूनों का आँख मींचकर पालन करने में ही समझे। औचित्य यह है कि सामाजिक हितों को दृष्टि में रखते हुए व्यक्ति को व्यक्तिगत विषयों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त हो। हॉबहाउस के अनुसार, “यह सिद्धान्त कि कानून की अनुरूपता में ही स्वतन्त्रता है, स्वतन्त्रता का वास्तविक निषेध है।” इसी प्रकार डनिंग ने कहा है कि “जिस स्वतन्त्रता का हीगल ने वर्णन किया है वह तो तर्कशास्त्र में एक अभ्यासमात्र है।”

(8) आदर्शवादी नैतिक और राजनीतिक कर्त्तव्यों में अन्तर नहीं करते- हॉब्सन के अनुसार आदर्शवादियों का मुख्य दोष यह है कि वे नैतिक और राजनीतिक कर्त्तव्यों में अन्तर नहीं करते हैं। यह आवश्यक नहीं है कि जो वस्तु कानूनी दृष्टिकोण से सत्य हो, वह नैतिक रूप में भी सर्वदा सत्य हो। रात्रि में बिना प्रकाश के कार चलाना कानून विरुद्ध होने पर भी नैतिकता के विरुद्ध नहीं हैं यदि सभी कानूनी कर्त्तव्यों को नैतिक उत्तरदायित्वों में परिणत कर दिया जाए, तो फिर जीवन जीने योग्य ही नहीं रहेगा। नैतिक और राजनीतिक कर्तव्यों को एक मान लेने का तार्किक निष्कर्ष तो यह है कि लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी तथा सुभाषचन्द्र बोस आदि व्यक्तियों ने ब्रिटिश शासन का विरोध करते हुए नैतिक कर्त्तव्यों के विरुद्ध आचरण किया।

(9) आदर्शवाद अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा शान्ति के लिए घातक है— आदर्शवादी राज्य के प्रति व्यक्ति की एक ऐसी अबाध श्रद्धा का प्रतिपादन करते हैं, जिसमें अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के लिए गुंजाइश नहीं है। हीगल तथा अन्य उग्र आदर्शवादी लेखक युद्ध को राजकीय अस्तित्व के लिए आवश्यक मानते हैं और युद्ध को राज्य की सर्वसत्ता का माध्यम स्वीकार करते हैं। आदर्शवादियों के विचार अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और व्यवस्था के लिए घातक एवं सम्पूर्ण समाज को विनाश के गर्त में ले जाने वाले हैं।

(10) राज्य नैतिकता से उच्च नहीं हो सकता- आदर्शवादियों के इस विचार को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि राज्य नैतिकता व सद्-असद् विवेक के ऊपर है और राज्य को अन्य राज्यों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते हुए या अपने अन्तर्गत रहने वाले मनुष्यों के साथ व्यवहार करते हुए नैतिक नियमों का अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है। समाज में रहते हुए मनुष्यों द्वारा अपने पारस्परिक व्यवहार में जिन नैतिक नियमों का पालन किया जाता है, उन्हीं नैतिक नियमों का पालन राज्य सहित विविध मानव समुदायों के लिए आवश्यक कहा जा सकता है। राज्य को नैतिकता के नियमों से मुक्त कर देने का स्वाभाविक परिणाम एक भ्रष्ट और निरंकुश राज्य होगा।

(11) सामान्य इच्छा का सिद्धान्त उचित नहीं- आदर्शवादी विचारकों के अनुसार सामान्य इच्छा ही राज्य का वास्तविक आधार है, लेकिन आलोचकों का कहना है कि समाज की सामान्य इच्छा जैसी कोई चीज यथार्थ में सम्भव नहीं है, क्योंकि हमारी इच्छाएँ या तो व्यक्तिगत इच्छाएँ हैं यह कुछ भी नहीं हैं। इसके अतिरिक्त सामान्य इच्छा का सिद्धान्त भयंकर भी है क्योंकि ग्रीन के अनुसार एक व्यक्ति के द्वारा भी सामान्य इच्छा को प्रकट किया जा सकता है। इस सम्बन्ध में हॉब्सन ने ठीक ही कहा है कि “सामान्य इच्छा का विचार एक प्रजातन्त्रात्मक राज्य में भी ‘अनुदारता उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। जिस समय तक कोई स्पष्ट क्रान्ति नहीं होती उस समय तक सरकार जनता की इच्छा अथवा स्वीकृति की अपने आप को अधिकारी समझ सकता है।”

(12) आदर्शवाद अनुदारवादी है— आदर्शवादी विचारक सामाजिक व्यवस्था को आदर्शात्मक रूप प्रदान करने के बजाय, समाज की अपूर्ण वास्तविक स्थिति को ही आदर्श के रूप में स्वीकार कर लेते हैं। अपनी इस प्रवृत्ति के कारण प्लेटो ने दार्शनिक राजा के स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन का, अरस्तू ने दासता का, हींगल ने युद्ध का तथा ग्रीन ने पूँजीवाद का समर्थन किया है। इसके अतिरिक्त हींगल जैसे आदर्शवादी राष्ट्रीय राज्य को सामाजिक संगठन में अन्तिम तथा उच्चतम स्थान प्रदान करते हैं। उनके विश्लेषण में सामाजिक संगठन के नवीन अन्तर्राष्ट्रीय रूप के लिए कोई स्थान नहीं है। आदर्शवाद ने राजतन्त्र, दासता और पूंजीवादी व्यवस्था का जिस ढंग से समर्थन किया है, उससे आदर्शवाद अनुदारवाद का पर्यायवाची बन गया है।

आदर्शवाद के आलोचक उपर्युक्त आलोचनाएँ करते हुए इसे “एक असत्य तथा शरारतपूर्ण दैवी राज्य का सिद्धान्त” तक कह देते हैं।

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