राजनीति विज्ञान / Political Science

उत्तरमार्क्सवाद अथवा नव-मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य | राज्य का उपकरणात्म सिद्धांत | राज्य का संरचनावादी सिद्धांत

उत्तरमार्क्सवाद अथवा नव-मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य
उत्तरमार्क्सवाद अथवा नव-मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य

उत्तरमार्क्सवाद अथवा नव-मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य

कार्ल मार्क्स (1818-83) और फ्रैड्रिक एंगेल्स (1820-95) के अनुसार समाज की आर्थिक उत्पादन प्रणाली इसकी नींव या आधार है; राज्य राजनीतिक प्रणाली इसके ऊपरी ढांचे या अधिरचना का हिस्सा है जिसका चरित्र आधार के चरित्र के अनुरूप ढल जाता है। अतः वे अधिरचना के अन्य हिस्सों की तरह राज्य को भी स्वाधीन विश्लेषण के योग्य नहीं मानते थे। उन्होंने राजनीतिक शक्ति को आर्थिक शक्ति का कवच मानते हुए राज्य को केवल प्रभुत्वशाली वर्ग के हाथ की कठपुतली के रूप में देखा।

जर्मन उदारवादी समाज वैज्ञानिक मैक्स वेबर (1864-1920) ने मार्क्स के इस आर्थिक नियतिवाद का खंडन करते हुए राज्य-शक्ति की स्वायत्तता का सिद्धांत प्रस्तुत किया। वेबर ने बीसवीं शताब्दी के आरंभ में यह तर्क दिया कि राज्य के पास अपने शक्तिशाली संसाधन होते हैं; उसे विधिसम्मत बल प्रयोग का ऐसा अनन्य अधिकार प्राप्त है जो निजी हितों की पहुँच के बाहर है। इसके पास अधिकारितंत्र के रूप में ऐसा शक्तिशाली संगठन है जो राज्य की नीतियां बनाता है, उन्हें क्रियान्वित करता है, और उनके क्रियान्वयन का निरीक्षण करता है। अतः राज्य-शक्ति को केवल किसी वर्ग विशेष के हितों की रक्षा का साधन नहीं माना जा सकता।

इतावली दार्शनिक एंटोनियो ग्राम्शी (1891-1937) पहला ऐसा विचारक था जिसने मार्क्सवादी राजनीतिक विश्लेषण के अंतर्गत राज्य की सापेक्ष स्वायत्ता को स्वीकार किया। ग्राम्शी ने बुर्जुवा (अर्थात् पूंजीवादी) राज्य में प्रभुत्व की संरचनाओं को दो स्तरों की पहचान की है— (1) राजनीतिक समाज—जो राज्य-शक्ति को व्यक्त करता है और समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए बल-प्रयोग का सहारा लेता है; और (2) नागरिक समाज जो अधार के निकट है कि और समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के लिए सहमति का सहारा लेता है। नागरिक समाज की संरचनाएँ—परिवार, पाठशाला और धार्मिक संस्थाएं, इत्यादि नागरिकों को समाज में स्वीकृत व्यवहार के नियमों से परिचित कराती हैं और उन्हें यह शिक्षा देती हैं कि उन्हें शासक वर्गों तथा निजी संपत्ति के प्रति स्वाभाविक सम्मान के नियमों को वैधता प्रदान करती हैं ताकि उनमें निहित अन्याय भी न्याय प्रतीत हो।

ग्राम्शी ने नागरिक समाज की संरचनाओं को वैधता स्थापक संरचनाएं कहा है। ये संरचनाएं बुर्जुवा समाज को इस तरह कार्य करने में सहायता देती हैं कि कोई उसकी सत्ता को चुनौती न दे पाए। साधारणतः बुर्जुवा समाज अपनी स्थिरता के लिए इन्हीं संरचनाओं की कार्यकुशलता पर आश्रित होता है। जब कभी नागरिक समाज इस संरचनाओं के माध्यम से असहमति की रोकथाम में विफल हो जाता है, तभी राज्य को इसका दमन करने के लिए राजनीतिक समाज की बल प्रयोगमूलक संरचनाओं का सहारा लेने की जरूरत पड़ती है। इस सारे विश्लेषण से यह निष्कर्ष निकलता है कि साम्यवादी आंदोलन की मूल रणनीति पूंजीवादी राज्य के ढांचे को छिन्न-भिन्न करने तक सीमित नहीं रहनी चाहिए बल्कि उसे उन मूल्यों और मान्यताओं पर प्रहार करने में भी उतनी ही तत्परता दिखानी चाहिए जो समाज में बुर्जुवा प्राधान्य को कायम रखने में सक्रिय भूमिका निभाती है।

राज्य का उपकरणात्म सिद्धांत

समकालीन मार्क्सवादी चिंतन के अंतर्गत राज्य का उपकरणात्मक सिद्धांत राज्य की स्वायत्तता के विचार को स्वीकार नहीं करता बल्कि राज्य को प्रभुत्वशाली वर्ग का उपकरण मात्र मानता है। इस सामन्यता के अनुसार, पूँजीवादी समाज के अंतर्गत राज्य किसी सामान्य हित का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता क्योंकि वर्ग-विभाजित समाज में सामान्य हित का स्वाधीन अस्तित्व संभव ही नहीं है। राज्य के उपकरणात्मक संकल्पना का मुख्य आधार मार्क्स और एंगेल्स के ‘कम्युनिस्ट मैनीफ़ेस्टो’ (साम्यवादी घोषणापत्र) (1848) के इस कथन में निहित है- “आधुनिक राजय की कार्यकारिणी संपूर्ण वुर्जुवा वर्ग के मिले-जुले मामलों का प्रबंध करने वाली समिति मात्र है” अमरीकी मार्क्सवादी पॉल स्वीज़ी ने प्रस्तुत तर्क को आगे बढ़ाते हुए ‘द थ्योरी ऑफ़ कैपीटलिस्ट डिवेलपमेंट- प्रिंसिपल्स ऑफ़ मार्विसयन पॉलिटिकल इकॉनॉमी’ (पूँजीवादी विकास का सिद्धांत-माक्सय राजनीतिक अर्थशास्त्र के मूल तत्त्व) (1942) के अंतर्गत यह मान्यता प्रस्तुत की कि “राज्य शासक वर्गों के हाथों का उपकरण है।”

दूसरे अमेरिकी मार्क्सवादी रैल्फ़ मिलिबैंड (1924-94) ने अपनी चर्चित कृति ‘द स्टेट इन कैपीटलिस्ट सोसायटी-एन एनालिसिस ऑफ़ द वैस्टर्न सिस्टम ऑफ़ पॉवर’ (पूंजीवादी समाज में राज्य का स्वरूप पश्चिमी शक्ति प्रणाली का विश्लेषण) (1969) के अंतर्गत यह तर्क दिया कि पूंजीवादी समाज का शासक वर्ग राज्य का प्रयोग समाज पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने के उपकरण के रूप में करता है। संक्षेप में, मिलिबैंड ने पूंजीवादी राज्य के वर्ग चरित्र को सिद्ध करने के लिए इन तत्त्वों पर विशेष बल दिया है— (क) राज्य के अधिकारियों की मध्यवर्गीय या उच्चवर्गीय पृष्ठभूमि (ख) पूंजीपति वर्ग की आर्थिक शक्ति; और (ग) वर्तमान आर्थिक प्रणाली को क़ायम रखने के लिए राजनीतिज्ञों और सरकारी अधिकारियों की स्वाभाविक इच्छा क्योंकि उनकी अपनी विशेष स्थिति और विशेषाधिकार तभी सुरक्षित रह सकते हैं जब यह प्रणाली ज्यों-की-त्यों बनी रहे।

इस तरह राज्य का उपकरणात्मक सिद्धांत राज्य-शक्ति और वर्ग-शक्ति की एकता पर बल देते हुए राज्य को केवल शासक वर्ग के हाथ की कठपुतली मानता है।

राज्य का संरचनावादी सिद्धांत

राज्य का संरचनावादी दृष्टिकोण मुख्यतः इस मान्यता पर आधारित है कि मोटे तौर पर राज्य के कृत्य समाज की संरचनाओं से निर्धारित होते हैं, राज्य-शक्ति का प्रयोग करने वाले लोगों के चरित्र से नहीं। अतः राज्य को शासक वर्ग का उपकरण नहीं माना जा सकता। ग्राम्शी (1891 1937) को इस दृष्टिकोण का अग्रदूत मान सकते हैं। संरचनावाद के समर्थक यह तर्क देते हैं कि पूंजीवाद के अंतर्विरोधों का मूल कारण राज्य की संरचना में निहित है, और इसे वहीं ढूंढ़ना चाहिए, शासक वर्ग के चरित्र में नहीं। प्रस्तुत संदर्भ में फ्रांसीसी नवमार्क्सवादी लुई आल्थयूज़र (1918-90) ने ‘फॉर मार्क्स’ (मार्क्सवाद का सार) (1965) में यह तर्क दिया था कि सामाजिक संरचना के अंतर्गत ‘आधार’ और ‘अधिरचना’ के विभिन्न तत्त्व आपस में अच्छी तरह जुड़े रहते हैं। अतः उनमें से किसी एक तत्त्व को अर्थात् ‘आधार’ को संपूर्ण परिवर्तन कर मूल कारण मानना युक्तियुक्त नहीं होगा। कई परिस्थितियों में सामाजिक परिवर्तन को शुरूआत अधिरचना के किसी हिस्से जैसे कि राजनीति, कानून, धर्म, संस्कृति, साहित्य या कला के क्षेत्र से भी हो सकती है और वह संपूर्ण सामाजिक संरचना को गतिमान कर सकता है, हालांकि अंततोगत्वा आर्थिक कारण इस प्रक्रिया से सबसे प्रभावशाली सिद्ध होता है।

इस तरह संरचनावादी सिद्धांत पूंजीवादी राज्य को पूंजीपतिवर्ग के हितों का रक्षक तो मानता है, परंतु उसे केवल प्रभुत्वाशाली वर्ग का उपकरण नहीं मानता। फ्रांसीसी मार्क्सवादी निकोस पूलेंत्साज़ (1936-79) ने ‘पोलिटिकल पॉवर एंड द सोशल क्लासेज़’ (राजनीतिक शक्ति और सामाजिक वर्ग) (1973) के अंतर्गत यह तर्क दिया है कि पूंजीवादी समाज में पूंजीपति वर्ग का प्रभुत्व अपने-आप राज्य-शक्ति का रूप धारण नहीं कर लेता। वस्तुतः राज्य ‘जनसाधारण’ के नाम पर सत्ता का प्रयोग करते हुए अपनी वैधता को बढ़ा लेता है। फिर पूंजीपति वर्ग स्वयं राज्य से जुड़े हुए उत्पीड़न में कोई हिस्सा नहीं लेता, और इस तरह वह भी अपनी वैधता को बढ़ा लेता है। राज्य की सापेक्ष स्वायत्तता एक ओर उकसी आर्थिक कार्यकुशलता को उन्नत करने में सहायता देती है, दूसरी ओर उसे पूंजीवादी हितों को बढ़ावा देते समय विरोधी वर्ग के विरोध का सामना नहीं करना पड़ता । पूलेंज़ास ने आर्थिक शक्ति के स्वामित्व और आर्थिक शक्ति के नियंत्रण में अंतर करते हुए यह तर्क दिया है कि राज्य-शक्ति के प्रयोग के लिए आर्थिक शक्ति का नियंत्रण ही पर्याप्त है; आर्थिक शक्ति का स्वामित्व इसकी जरूरी शर्त नहीं है। राज्य की संरचना की दृष्टि से पूंजीवादी और समाजवादी देशों में कोई अंतर नहीं है। दूसरे शब्दों में, पूंजीवादी देशों की तरह समाजवादी देशों का शासक वर्ग भी आर्थिक शक्ति का स्वामी तो नहीं होता, फिर भी वह आर्थिक शक्ति के नियंत्रण के बल पर राज्य शक्ति का प्रयोग करता है। यही कारण है कि पूलेंत्साज़ ने समाजवादी देशों के शासक वर्ग को बुर्जुवा वर्ग की श्रेणी में रखने से संकोच नहीं किया है।

प्रश्न यह है कि यदि राज्य को प्रभुत्वाशाली वर्ग का उपकरण न मानते हुए राज्य शक्ति की स्वायत्तता पर इतना बल दिया जाएगा तो क्या यह विचार मार्क्सवाद की बुनियादी मान्यताओं से दूर नहीं हट जाएगा?

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