मार्क्सवादी मार्क्यूजे के विचार
नवमार्क्सवादी विचारक हर्बर्ट मार्क्यूज़े (1898-1979) ने समकालीन परिस्थितियों मनुष्य के अलगाव का अत्यन्त प्रभावशाली विश्लेषण प्रस्तुत किया है। अपनी प्रसिद्ध कृति में ‘वन-डायमेन्शनल मैन : स्टडीज़ इन द आइडियोलॉजी ऑफ़ एडवान्स्ड इण्डस्ट्रियल सोसाइटी’ (एक-आयामी मानव : उन्नत औद्योगिक समाज की विचारधारा का विश्लेषण) (1968) के अन्तर्गत मार्क्यूज़े ने यह तर्क दिया है कि पूंजीवाद ने जन-सम्पर्क के साधनों को बड़ी चालाकी से इस्तेमाल करते हुए पीड़ित वर्ग के असन्तोष को संवेदनशून्य बना दिया है, क्योंकि वह तुच्छ भौतिक इच्छाओं को उत्तेजित करता है जिन्हें सन्तुष्ट करना बहुत सरल है। इसका परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य का बहु आयामी व्यक्तित्व लुप्त हो गया है और उसके व्यक्तित्व का एक ही आयाम रह गया है : उसकी तुच्छ, भौतिक इच्छाओं की सन्तुष्टि । इस तरह एक उपभोक्ता संस्कृति मनुष्य के व्यक्तित्व पर हावी हो गई है जिसने उसकी सृजनात्मकता स्वतन्त्रता के विचार को बहुत पीछे धकेलकर उसे ‘एक-आयामी’ मनुष्य बना दिया है।
मार्क्यूज़े के अनुसार, आधुनिक प्रौद्योगिक समाज ने एक ‘मिथ्या चेतना’ को बढ़ावा देकर मानव मात्र को अपने शिकंजे में कस रखा है। यह मिथ्या चेतना भय और उपभोक्तावाद पर आधारित है। पूंजीवादी समाज में पूंजीपति और कामगार दोनों साम्यवादी आक्रमण के भय से त्रस्त हैं। इसके अलावा, प्रौद्योगिक क्रान्ति ने जीवन की सुख-सुविधाएं बहुत बढ़ा दी हैं। आज का समाज ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों के लिए ज्यादा-से-ज्यादा सुखमय जीवन की आशा बँधाता है। ऐसी हालत में कुछ महत्त्वपूर्ण स्तरों पर अलगाव या पराएपन की अनुभूति बहुत हद तक लुप्त हो चुकी है। विस्तृत मशीनीकरण के कारण कामगार का काम काफ़ी हल्का हो गया है। अब उसे अपने काम में जी-तोड़ परिश्रम नहीं करना पड़ता, और इतनी कम मज़दूरी भी नहीं मिलती कि उसका जीना दूभर हो जाए। अतः ऐसा लगता है कि वह एक हद तक ‘अलगाव’ की स्थिति से मुक्त हो गया है। परन्तु साथ ही बँधे-बँधाए मशीनी काम के कारण उसका मन स्वतन्त्र और सृजनात्मक कार्य के महत्त्व को अनुभव करने योग्य नहीं रह गया है।
आज का कामगार यह स्पष्ट अनुभव नहीं कर पाता कि अपने उत्पादन से उनका नाता टूट चुका है। उसके चारों ओर बनावटी सुखों का जाल फैला है, उसमें उलझकर वह सृजनशीलता के सच्चे आनन्द की कामना भी नहीं कर पाता। इस तरह वह अपने अलगाव की स्थिति से बेख़बर हो गया है। वह एक मिथ्या चेतना के अधीन श्रम करता है। यह मिथ्या चेतना धर्म की नहीं, किसी अतीन्द्रिय सुख की नहीं, बल्कि वर्तमानभागवादी सुख की मिथ्या चेतना है जो उसके अलगाव पर पर्दा डाल देती है। मनुष्य सोने के पिंजरे में बन्द पंछी की तरह उसके आकर्षण में इतना डूब चुका है कि वह मुक्त आकाश में उड़ान ‘भरने के आनन्द को ‘गया है। इस तरह ‘भूल’ पूंजीवादी समाज की सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इसमें मनुष्य न केवल अपनी स्वतन्त्रता खो चुका है, बल्कि वह यह भी नहीं जानता कि वह उसे खो चुका है। इस खोई हुई स्वतन्त्रता को ढूंढ लाने के लिए सबसे पहले उसे अपने ‘अलगाव’ के प्रति सचेत करना होगा ताकि उसे यह अनुभव हो जाए कि उसकी कोई मूल्यवान् वस्तु गुम हो गई है और वह उसकी तलाश शुरू कर दे।
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