हेबर मास के राजनीतिक विचार
नवमार्क्सवाद के प्रतिभाशाली प्रवक्ता युगन हेबरमास (1929- ) ने अपनी बहुचर्चित कृति ‘लैजिटिमेशन क्राइसिस’ (वैधता का संकट) (1975) और अन्य कृतियों के अन्तर्गत स्वतन्त्रता की समस्या को पूंजीवाद की वैधता के संकट के रूप में देखा है। हेबरमास के अनुसार, समकालीन विश्व में विज्ञान, प्रौद्योगिकी और संगठन की विलक्षण प्रगति का परिणाम यह हुआ है कि मनुष्य की तर्कबुद्धि मनुष्य के उद्धार के दायित्व से विमुख हो गई हैं, और तर्कसंगति की भूमिका तकनीकी कार्यकुशलता बढ़ाने तक सीमित रह गई है। दूसरे शब्दों में, मनुष्य की तर्क बुद्धि उसे अपनी जीवन का साध्य नहीं सुझाती, बल्कि केवल साधनों को संगठित करना सिखाती है। अतः वह मनुष्य की स्वतन्त्रता का आधार नहीं रह गई है, बल्कि उस पर अपना प्रभुत्व स्थापित करके उसकी पराधीनता का कारण बन गई है।
उधर उदार लोकतन्त्र की संस्थाओं ने मनुष्यों के परस्पर सम्बन्धों को बाज़ार समाज के ढर्रे पर ख़रीदार और विक्रेता के सम्बन्धों में बदल दिया है। लोकतन्त्र का आधार है— राजनीतिक चर्चा, परन्तु समकालीन परिस्थितियों में वह कभी सचमुच की चर्चा का रूप धारण नहीं कर पाई, क्योंकि इस चर्चा में भाग लेने वाले लोग शक्तिशाली और संगठित हितों के साथ जुड़े रहे हैं। अतः राजनीतिक निर्णय इन हितों के परस्पर समायोजन का परिणाम होते हैं, जन-सम्पर्क के साधन सूचना के प्रसार और विचारों की स्वतन्त्र अभिव्यक्ति को बढ़ावा नहीं देते, बल्कि कोरे मनोरंजन के साथ-साथ व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने की भूमिका निभाते हैं।
हेबरमास ने लिखा है कि परम्परागत समाज सृष्टि की पौराणिक, धार्मिक या दार्शनिक व्याख्याओं से जुड़ी हुई संस्थाओं की वैधता को स्वीकार करते थे। परन्तु पूंजीवाद ने वैज्ञानिक जानकारी और स्वचालित मशीनों की प्रामाणिकता को स्थापित करके वैधता स्थापन के परम्परागत आधार को नष्ट कर दिया है। उसकी जगह इसने परस्पर लाभ या समान विनिमय को सामाजिक संगठन का मूल सिद्धान्त मान लिया है, और बाज़ार समाज के नियमों को सर्वोच्च मान्यता प्रदान कर दी है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने सामाजिक संगठन का तकनीकी प्रतिरूप प्रस्तुत करके जनसाधारण को राजनीतिक चेतना से वंचित कर दिया है, अर्थात् उन्हें सामाजिक लक्ष्यों के प्रति सचेत नहीं रहने दिया है। उन्होंने इस विचार को बढ़ावा दिया है कि सारी मानवीय समस्याएं तकनीकी या संगठनात्मक क़िस्म की समस्याएं हैं, और वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करके उनका समाधान किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि मनुष्य स्वयं सोचने-समझने और निर्णय करने वाला प्राणी नहीं रहा बल्कि बनी-बनाई जानकारी का प्रयोग करने वाली मशीन बनकर रह गया है। ऐसी हालत में मनुष्य की स्वतन्त्रता के पुनरुत्थान के लिए तर्कबुद्धि को मानव-जीवन के लक्ष्यों के चिन्तन के प्रति फिर से सचेत करना परम आवश्यक है।
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