राजनीकि विचारधारा के रूप में नव-उदारवाद
बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से प्रायः सब जगह राज्य का कार्यक्षेत्र लगातार बढ़ता रहा है। इधर ‘कल्याणकारी राज्य’ के विस्तार के कारण जहां लोगों में सामाजिक सुरक्षा की भावना बढ़ी है, वहां यह भी अनुभव किया गया कि इससे आर्थिक विकास की गति धीमी हो गई है। बहुत सारे लोग सामाजिक सेवाओं से लाभ उठाकर आराम से जीवन बिताने के लालच में श्रम से विमुख हो गए। हैं। दूसरी ओर, समाज के प्रतिभाशाली और परिश्रमी लोगों पर करों का बोझ इतना बढ़ गया है कि वे भी अत्यधिक श्रमसे विमुख होने लगे हैं। ऐसी हालत में आर्थिक विकास की गति को सही दिशा की ओर कैसे मोड़ा जाए— इस प्रश्न का उत्तर नव-उदारवाद के रूप में सामने आया है।
नव-उदारवाद के अन्तर्गत समकालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में उदारवाद की मूल मान्यताओं को दोहराने का प्रयत्न किया गया है। इसकी मुख्य मान्यता यह थी कि राज्य की व्यक्तियों की आर्थिक गतिविधियों में कम-से-कम विनियमन करना चाहिए। नव-उदारवाद के पक्षधर राज्य के दूर-दूर तक फैले हुए कार्यक्षेत्र को ‘फिर से समेटने का समर्थन करते हैं। यह विचारधारा 1980 के दशक से मुख्यतः संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन में उभरकर सामने आई। इस दशक के अन्तिम वर्षों में पूर्वी यूरोप के समाजवादी अर्थ-व्यवस्थाओं में जो संकट पैदा हुआ था, उसने इसे और भी बढ़ावा दिया। 1990 के दशक के शुरू में इन व्यवस्थाओं के पतन से यह सिद्ध हो गया कि अल्पविकसित क्षेत्र में राज्य-प्रेरित विकास के सहारे अर्थ-व्यवस्था को बहुत दूर तक नहीं। ले जाया जा सकता।
इधर तीसरी दुनिया के देशों के लोगों ने राज्य की आर्थिक अकुशलता को निकट से देखा है। वह इनकी बुनियादी आवश्यकताएं पूरी करने में असमर्थ सिद्ध हुआ है; यहां प्रशासन में सब ओर भ्रष्टाचार फैला है, और जनसाधारण के जीवन पर सत्तावाद का पंजा फैलता जा रहा है। इससे जनसाधारण के मन में जो असन्तोष पैदा हुआ है, उससे भी यह सिद्ध हो गया है कि अर्थ व्यवस्था को राज्य के नियन्त्रण और संरक्षण में छोड़ देना उपयुक्त नहीं है। इन परिस्थितियों ने प्रायः सम्पूर्ण विश्व में इस विचार को बढ़ावा दिया है कि व्यक्तियों की उत्पादन क्षमता और अर्थ व्यवस्था की कार्यकुशलता को बढ़ाने के लिए बाज़ार की शक्तियों को अपना काम करने देना चाहिए।
नव-उदारवाद के समर्थक स्वेच्छा से प्रेरित व्यवस्था को उत्तम व्यवस्था मानते हैं। उनका विचार है कि मुक्त बाज़ार ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा देता है कि जहां सब लोग स्वेच्छा से प्रेरित होते हैं। वे ऐसी राजनीति की निन्दा करते हैं जो मानवीय आवश्यकताओं के निश्चित ज्ञान का दावा करती हो। समाजवाद से जुड़ी हुई राजनीति यही दावा करती है। नव-उदारवादियों के अनुसार, मानवीय आवश्यकताएं मुक्त समाज के भीतर विभिन्न व्यक्तियों के परस्पर लेन-देन की असंख्य गतिविधियों के रूप में व्यक्त होती हैं। इनके बारे में कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता। अतः सामाजिक जीवन में जितने भी निर्णय बाज़ार पर छोड़े जा सकते हों, अवश्य छोड़ देने चाहिए।
इस दृष्टि से, बाज़ार विभिन्न व्यक्तियों को अपनी-अपनी पसन्द के अनुसार चलने के अधिकतम अवसर प्रदान करता है; अतः वह सच्चे लोकतन्त्र की व्यवहारिक अभिव्यक्ति है। दूसरी ओर, औपचारिक लोकतन्त्र स्वयं एक राजनीतिक बाज़ार का रूप धारण कर लेता है। इसमें नागरिक अपना वोट देकर उसके बदले में तरह-तरह के हितलाभ और सेवाएं प्राप्त करते हैं। इस सारी व्यवस्था पर जो ख़र्च आता है, उसे सब लोग मिलकर उठाते हैं। बाज़ार सब लोगों को अपनी-अपनी योग्यताओं और अपने-अपने संसाधनों के सर्वोत्तम प्रयोग की प्रेरणा और प्रोत्साहन देता है। अतः राज्य को बाज़ार व्यवस्था की पूरक भूमिका निभानी चाहिए। दूसरे शब्दों में, राज्य का उपयुक्त कार्य बाज़ार-व्यवस्था को सहारा देना है, उसके स्वाभाविक काम-काज में रुकावट डालना नहीं।
नव-उदारवादी परिप्रेक्ष्य का दार्शनिक आधार आइज़िया बर्लिन (1909-97), एफए. हेयक (1899-1992), मिल्टन फ्रीडमैन (1912-2006) और रॉबर्ट नाज़िक (1938-2002) चिन्तन में मिलता है।
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