
राजनीतिक विचारधाराओं के विभिन्न दृष्टिकोण
राजनीति के आधुनिक दृष्टिकोण के अंतर्गत इसे एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है। प्राचीन और मध्य युग में राजनीति को साधारणतः राजा-रईसों, सेनापतियों और राज दरबार के सदस्यों की गतिविधि समझा जाता था— जनसाधारण को केवल उन लोगों की इच्छा का पालन करना होता था। परंतु आधुनिक युग में विशिष्ट वर्गों के अलावा जनसाधारण और उनके विभिन्न समूहों को भी राजनीति का अंग माना जाता है यह स्वीकार किया जाता है कि सार्वजनिक निर्णय तक पहुँचने की प्रक्रिया में संपूर्ण समाज के भिन्न-भिन्न वर्ग अपनी-अपनी भूमिका निभाते हैं। दूसरे शब्दों में, आज का विशिष्ट वर्ग या सत्ताधारी वर्ग केवल अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए शक्ति का प्रयोग नहीं करता बल्कि उसे अपने शासन की वैधता स्थापित करने के लिए समाज के अन्य वर्गों की दृष्टि में यह सिद्ध करना होता है कि उसकी नीतियों, निर्णयों और कार्यक्रमों का ध्येय जन हित को बढ़ावा देना है। जन हित का पता लगाने के लिए जनसाधारण के विभिन्न वर्गों की परस्पर-विरोधी इच्छाओं को ध्यान में रखना भी जरूरी हो जाता है।
राजनीति का सरोकार संघर्ष और उसके समाधान से है। परंतु संघर्ष के मुद्दे क्या हैं; उसके समाधान की संभावनाएं क्या हैं; क्या ऐसी राजनीति संभव है जिसमें संघर्ष पैदा ही न हो? इन प्रश्नों को लेकर समकालीन राजनीति- सिद्धांत के अंतर्गत राजनीति के स्वरूप के बारे में अनेक दृष्टिकोण प्रचलित है। इनमें से तीन दृष्टिकोण विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं:
(1) उदारवादी दृष्टिकोण- इसके अंतर्गत राजनीति का परस्पर-विरोधी हितों में सामंजस्य का साधन माना जाता है;
(2) मार्क्सवादी दृष्टिकोण – इसके अंतर्गत राजनीति को वर्ग संघर्ष का क्षेत्र माना जाता है; और
(3) समुदायवादी दृष्टिकोण- इसके अंतर्गत व्यक्ति को समुदाय का अभिन्न अंग मानते हुए राजनीति को ‘सामान्य हित’ की सिद्धि का साधन माना जाता है।
उदारवाद का आरंभ यूरोप में सत्रहवीं शताब्दी के आस-पास हुआ जब वैज्ञानिक आविष्कारों वे कारण उत्पादन की औद्योगिकी प्रणाली की शुरूआत हो रही थी; धर्म के क्षेत्र में पोप की सत्ता को चुनौती दी जा रही थी; नए देशों की खोज के कारण वाणिज्य-व्यापार बढ़ता जा रहा था; और सामंतवादी व्यवस्था टूटने लगी थी। उदारवाद का ध्येय सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में उन विचारों को बढ़ावा देना था जो पूंजीवाद की स्थापना में सहायक सिद्ध हों। आरंभिक उदारवाद में ‘व्यक्ति’ को संपूर्ण सामाजिक जीवन का केन्द्र मानकर ‘व्यक्तिवाद’ को बढ़ावा दिया गया। इसमें जॉन लॉक (1632-1704), एडम स्मिथ (1723-90), जरमी बेंथम (1748-1832), जॉन स्टुआर्ट मिल (1806-73), इत्यादि का विशेष योगदान रहा है। समकालीन उदारवाद के अंतर्गत विभिन्न समूहों को सामाजिक जीवन का केन्द्र माना जाता है, अतः ‘व्यक्तिवाद’ की जगह ‘बहुलवाद’ को महत्त्व दिया जाने लगा है।
उदारवाद मुख्य रूप से ‘बाजार समाज-व्यवस्था’ को मनुष्यों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों का आदर्श मानता है। पुराने उदारवाद के अंतर्गत बाज़ार की ‘मुफ्त प्रतिस्पर्धा’ पर बल दिया जाता था। परंतु समकालनी उदारवाद मुख्यतः ‘नियंत्रित बाजार व्यवस्था’ के आदर्श को स्वीकार करता है, अतः वह ‘कल्याणकारी राज्य’ का समर्थक बन गया है।
मार्क्सवाद का आरंभ उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में हुआ जब मुफ्त बाजार व्यवस्था पर आधारित पूंजीवाद अपने पूरे उत्कर्ष पर था; नया पूंजीपति वर्ग विशाल धन-संपदा और सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका था, परंतु नए कामगार वर्ग की दशा बहुत ही खराब थी। उस समय कार्ल मार्क्स (1818-83) और फैड्रिक एंगेल्स (1820-95) ने संपूर्ण इतिहास का विश्लेषण करके यह विचार समाने रखा कि निजी संपत्ति के स्वामित्व के आधार पर समाज हमेशा से धनवान और निर्धन वर्गों में बँट रहा है। धनवान वर्ग प्रभुत्वशाली वर्ग रहा है, और निर्धन वर्ग पराधीन वर्ग रहा है। इन दोनों के हित हमेशा परस्पर विरोधी रहे हैं। आधुनिक औद्योगिकी युग में राजनीतिक दृष्टि से सब मनुष्यों की स्वतंत्रता का दावा तो किया जाता है, परंतु सामंतवाद के पतन के बाद आर्थिक दृष्टि से समाज फिर पूंजीपति वर्ग और कामगार वर्ग में बँट गया है। राज्य की सारी शक्ति पूंजीपति वर्ग के हाथ में आ गई है जिससे कामगार वर्ग की स्वतंत्रता निरर्थक हो गई है। उन्होंने तर्क दिया कि जब तक समाज आर्थिक दृष्टि से परस्पर विरोधी वर्गों में बँटा रहेगा तब तक कोई भी राजनीतिक व्यवस्था जनसाधारण या कामगार वर्ग को पराधीनता की बेड़ियों से नहीं छुड़ा सकतीं ।अतः मार्क्सवाद ने वर्ग संघर्ष को महत्त्व दिया और यह विचार रखा कि इस संघर्ष में कामगार वर्ग को संगठित होकर पूंजीवादी व्यवस्था के अंत करना होगा, और उत्पादन के प्रमुख साधनों पर सामाजिक स्वामित्व स्थापित करके समाजवाद लाना होगा ताकि अंततः एक वर्गहीन समाज का उदय हो सके।
समुदायवाद एक समकालीन दर्शन है। इसकी उत्पत्ति उदारवाद की आलोचना से हुई है। आज के युग में सुख-सुविधाओं के साधन तो बहुत बढ़ गए हैं, और आम खुशहाली भी बढ़ी है। परंतु आर्थिक सुरक्षा के बीच भी मनुष्य को भावात्मक सुरक्षा प्राप्त नहीं है; वह भीड़ के बीच भी अकेला है। वह समाज में तो रहता है, परंतु समाज के साथ कोई लगाव या अपनापन अनुभव नहीं करता। समुदायवाद व्यक्ति और समाज के इस टूटे हुए रिश्ते को फिर से जोड़ने का प्रयत्न है। समुदायवाद के समर्थक यह मानते हैं कि व्यक्ति का अपना अस्तित्व और व्यक्तित्व सामाजिक जीवन की देन है। भिन्न-भिन्न व्यक्ति एक-दूसरे से कटी हुई इकाइयां नहीं है बल्कि वे समाज की आकृति में एक-दूसरे से जुड़े हुए बिंदु हैं। सब व्यक्ति अपने समुदाय के सदस्यों के रूप में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जब तक वे इस रूप में जुड़े रहते हैं, तभी तक वे सार्थक जीवन बिताते हैं। जब भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति में लग जाते हैं, तब उनका जीवन बिखर जाता है, और उनके यथार्थ हित की सिद्धि नहीं हो पाती। इसके लिए उन्हें ‘सामान्य हित’ को पहचान कर उसकी सिद्धि में अपना-अपना योग देना चाहिए। वैसे समुदायवाद एक आधुनिक विचार है, परंतु इसके आरंभिक संकेत प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू तथा अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अनेक विचारकों के चिंतन में मिलते हैं। इनमें जे. जे., रूसो (1712-78), जी.डब्ल्यू.एफ. हेगेल (1770-1831) और टी०एच० ग्रीन (1836-82) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके समकालीन प्रवर्तकों में एलेस्डेयर मैकिंटाइर, माइकेल सैंडेल और चार्ल्स टेलर विशेष रूप से विख्यात हैं।
संक्षेप में, उदारवाद यह मानता है कि केवल राजनीतिक और कानूनी स्वतंत्रता मिल जाने पर सब मनुष्य स्वतंत्र हो जाते हैं और ‘खुले बाजार’ की तरह अपने संबंधों को सबके हित में नियमित कर सकते हैं। विभिन्न समूह अपने-अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए अपने हित-समूह बनाकर परस्पर संबंधों का समायोजन कर सकते हैं। परंतु मार्क्सवाद यह मानता है कि जब तक निजी संपत्ति की संस्था विद्यमान है तब तक आर्थिक तथा राजनीतिक दृष्टि से समाज ‘प्रभुत्वशाली’ और ‘पराधीन’ वर्गों में बँटा रहेगा, उनमें होने वाला कोई भी समझौता केवल पराधीन वर्ग के दमन और शोषण का प्रतीक होगा। अतः जनसाधारण की स्वतंत्रता को सार्थक बनाने के लिए पूंजीवादी व्यवस्था का अंत करना जरूरी है। इस तरह मार्क्सवाद समाज के आर्थिक ढांचे को आधार मानता है, और कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक तत्त्वों को अधिरचना की संज्ञा देता है। यह अधिरचना किसी भी युग में समाज के आर्थिक ढांचे के अनुरूप विकसित होती है।
फिर जहां उदारवाद व्यक्ति के अधिकारों पर बल देता है; समुदायवाद उसके कर्तव्यों और दायित्वों पर अपना ध्यान केंद्रित करता है । उदारवाद व्यक्ति को स्वार्थ-साधन की पूरी छूट देता है। वह यह मानता है कि जब पृथक्-पृथक् व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थ-साधन को तत्पर होते हैं तब उनके परस्पर लेन-देन से ‘सामान्य हित’ की सिद्धि अपने-आप हो जाती है। दूसरे शब्दों में, वह व्यक्तियों को एक-दूसरे से कटी हुई इकाईयों के रूप में देखता है जिनका परस्पर संबंध स्वार्थ पूर्ति की भावना से प्रेरित होता है। इसके विपरीत, समुदायवाद यह मानता है कि भिन्न-भिन्न “व्यक्तियों के व्यक्तिगत हितों के जोड़ से ‘सामान्य हित’ का निर्माण नहीं होता । वास्तव में ‘सामान्य हित ‘ का पूरा समुदाय है; व्यक्ति का हित उसकी देन है। ‘सामान्य हित’ ऐसी झील नदीं है जिसमें पृथक्-पृथक् व्यक्तियों के हितों की धाराएं आकर समा जाती हों; यह ऐसा विशाल स्त्रोत है जिससे व्यक्तियों के हितों की सहस्त्रों धाराएं फूटती हैं। ‘सामान्य हित’ सूर्य है; व्यक्तियों के हित उसकी किरणें हैं। किरणें मिलकर सूर्य का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि वे स्वयं सूर्य की देन हैं।
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