
नारी और नारीवाद के प्रसंग में समाज की भूमिका और स्वयं नारी की भूमिका
नारी की आज जो कमजोर, दलित और पतित स्थिति है, वह नारी की अक्षमताओं का परिणाम नहीं है, नारी की कमजोर स्थिति नारी को प्रकृति की देन नहीं है। तथ्य यह है कि नारी पुरुष की समान है या सम्भवतया पुरुष से श्रेष्ठ है। नारी की वर्तमान स्थिति समाजीकरण का परिणाम है, समाज की समस्त सोच और समाज द्वारा सदियों से किए गए नारी के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार का परिणाम है। नारी उत्थान की दिशा में कानून निर्माण और प्रशासन को कार्य करना है लेकिन कानून, प्रशासन और राजनीति समूचे सामाजिक जीवन और व्यवस्था में बदलाव का आधार नहीं बन पाते। अतः नारीवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कानून निर्माण और प्रशासनिक व्यवस्था में बदलाव से भी अधिक महत्वपूर्ण बात है समाज की सोच, समाज की व्यवस्था में बदलाव और नारी जीवन स्वयं अपने जीवन के सम्बन्ध में स्वयं नारी की सोच में बदलाव। नारीवाद समाज और सामाजिक व्यवस्था से जो कुछ चाहता है उनमें से कुछ है— परिवार में पुत्र और पुत्री के जन्म तथा पालन-पोषण में कोई भेद न किया जाए, जीवन साथी के चयन में सामाजिक स्तर पर महिला की भूमिका को स्वीकार किया जाए, विधवाओं और परित्यक्ता नारियों को सामाजिक जीवन में उचित सम्मान दिश जाए, उनके पुनर्वास की यथोचित व्यवस्था हो समाज में निर्णय लेने वाले शीर्ष पदों पर महिलाएं प्रतिष्ठित हों तथा प्रत्येक स्तर पर महिला के स्वतन्त्र व्यक्तित्व को स्वीकार किया जाए।
नारीवाद के प्रसंग में सार्वधिक महत्वपूर्ण भूमिका तो स्वयं नारी को निभानी है। सदियों से नारी को की पुरुष तुलना में कमजोर बतलाया जाता रहा है तथा इस ‘मिथक’ (छलपूर्वक बार-बार दोहराए गए झूठ) ने स्वयं नारी में आत्महीनता के भाव को जन्म दे दिया है, उसके आत्मविश्वास और आत्मसम्मान में भारी कमी आई है, इस मिथक को स्वयं उसे आगे बढ़कर तोड़ना होगा, जड़ मूल से उखाड़ फेंकना होगा, आत्महीनता के गर्त से बाहर निकलकर आत्मविश्वास के भाव को अपनाना होगा। परिवार के अन्तर्गत पुत्र की विशेष देखभाल और पुत्री के प्रति अवहेलना का व्यवहार सामपन्यतया स्वयं माता ही अपनाती है, परित्यक्ता और विधवा के प्रति अपमानजनक व्यवहार स्वयं नारी ही अपनाती है। मध्यम और उच्च वर्ग की महिला दलित महिला के प्रति सही सोच कहां अपनाती है। शिक्षित महिला परिस्थितियां अनुकूल होने पर भी महिला शिक्षा में अपना योगदान कहां देती है।
नारीवाद और नारी उत्थान का मूल आधार सुदृढ़ आधार महिला शिक्षा ही हो सकती है। राष्ट्रीय हितों की दृष्टि से भी पुरुष शिक्षा की तुलना में महिला शिक्षा का महत्व अधिक है। अतः महिला शिक्षा की दिशा में सभी सम्भव प्रयत्न करते हुए आने वाली पीढ़ी की सभी महिलाओं को शिक्षित करने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। महिला शिक्षा की स्थिति को सम्पूर्ण अंशों में प्राप्त कर लेने पर न केवल सामाजिक क्रान्ति होगी वरन् राष्ट्रों का और समस्त मानवता का कायाकल्प हो जाएगा।
नारी जागरण की आवश्यकता न केवल नारी को है, वरन् राष्ट्र, समाज और मानवता के उत्थान तथा कायाकल्प का मार्ग भी यही है। नारी जागरण ही नए विश्व और सुन्दर भविष्य का सुदृढ़ आधार बन सकता है। नारीवाद मूलतः एक समाजशास्त्रीय डेविड जेरी और जूलिया जेरी ‘Dictionary of Sociology’ में लिखते हैं- “यह एक सामान्य विश्वास है कि महत्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तनों की परिणति महिलाओं की मुक्ति में हो सकती है। वर्तमान समय में, नारीवाद एक जीवन्त एवं परिलक्षित सामाजिक आन्दोलन है, सांस्कृतिक रचनात्मक के क्षेत्र में विशेष रूप से सफल”। नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के ये शब्द सच्चाई से परिपूर्ण हैं— स्त्री-पुरुष विषमता केवल एक सामाजिक विफलता नहीं है, यह अन्य अनेक सामाजिक विफलताओं की जन्मदायिनी भी है। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक कार्यों में महिलओं की भागीदारी के दमन से केवल उन्हीं पर प्रभाव नहीं पड़ता, वरन् सारा समाज ही आहत होता है ….. नारी विमुक्ति केवल नारीवाद मुद्दा नहीं है, यह तो सामाजिक प्रगति का एक अभिन्न अंग है।”
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