राजनीति विज्ञान / Political Science

राजनीति के समुदायवादी दृष्टिकोण की विवेचना कीजिए।

राजनीति के समुदायवादी दृष्टिकोण
राजनीति के समुदायवादी दृष्टिकोण

राजनीति के समुदायवादी दृष्टिकोण

राजनीति परस्पर सहयोग का क्षेत्र है, संघर्ष का नहीं समुदायवादी दृष्टिकोण के अनुसार, मानव प्रकृति की मूल विशेषता परस्पर सहयोग की भावना है, संघर्ष की नहीं। यहीं भावना राजनीतिक संगठन की बुनियाद है। इस विचार के आरंभिक संकेत प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू के चिंतन में मिलते हैं। अरस्तू ने यह कि कहा था कि राज्य में व्यक्ति की स्थिति वैसी है जैसी शरीर में किसी अंग की होती है। मतलब यह कि प्रत्येक अंग शरीर के पोषण में योग देता है, और प्रत्येक अंग स्वयं अपने पोषण के लिए शरीर पर आश्रित होता है। किसी अंग का हित शरीर के हित से भिन्न नहीं हो सकता। इस रूपक के अनुसार, यदि व्यक्ति को राज्य से अलग कर दिया जाए तो उसकी हालत वैसी ही हो जाएगी जैसे शरीर से कट जाने पर हाथ-पैर की हो जाती है अर्थात् वे अपना स्वाभाविक कार्य करने में बिल्कुल असमर्थ हो जाते हैं। जो मनुष्य राज्य में रहने योग्य नहीं है या जो इतना आत्मनिर्भर है कि उसे राज्य की जरूरत ही नहीं, वह या तो निरा पशु होगा या देवता । अतः अरस्तू ने राज्य की प्राकृतिक संस्था मानते हुए मनुष्य को राजनीतिक प्राणी की संज्ञा दी है। यही दृष्टिकोण है राजनीतिक के समुदायवादी दृष्टिकोण का।

सत्रहवीं शताब्दी के शुरू के जर्मन न्यायवेत्ता जोहानेस आल्थ्यूज़ियस (1557-1638) ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘सिस्टेमेटिक एनालिसिस ऑफ पॉलिटिक्स’ (राजनीति का व्यवस्थित विश्लेषण) (1603) के अंतर्गत यह तर्क दिया था कि मनुष्य प्रकृति से सहयोग और सद्भावना में विश्वास करते हैं; यही भावनाएँ परिवार, समुदाय और राज्य की बुनियाद हैं। राजनीति का आधार परस्पर मेलजोल या सहवर्तन की प्रवृत्ति हैं जिसमें साहचर्य, मैत्री और नातेदारी की भावनाएँ ओत-प्रोत रहती हैं। इन्हीं की प्रेरणा से मनुष्य वस्तुओं का आदान प्रदान या विनिमय करते हैं, मिल-बाँटकर उनका प्रयोग करने और नियम का पालन करने को तत्पर होते है। फिर उन्नीसवीं शताब्दी के अंत के रूसी क्रांतिकारी विचारक पीटर क्रॉपॉटकिन (1842-1921) ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘म्यूचुअल एड’ (परस्पर सहायता) (1897) के अंतर्गत चार्ल्स डार्विन के विकास-सिद्धांत की आलोचना करते हुए लिखा कि मनुष्य और समाज के विकास का नियम अस्तित्व का संघर्ष और योग्यता की विजय नहीं है, बल्कि इनके विकास का नियम परस्पर सहायता का सिद्धांत है। क्रॉपॉटकिन ने तर्क दिया कि जीवन के संघर्ष में सहयोग से जितना लाभ होता है, प्रतिस्पर्धा से उतना लाभ नहीं होता। मनुष्यों में सामाजिकता और समैक्य की अनंत संभावनाओं में विश्वास करते हुए क्रॉपॉटकिन ने यह आशा व्यक्त की कि एक दिन मनुष्यों को सरकार और कानून की जरूरत नहीं रहेगी। इस तरह क्रॉपॉटकिन ने अराजकतावाद के सिद्धांत का समर्थन किया।

राजनीति सामान्य हित की सिद्धि का साधन है

‘सामान्य हित’ का विचार समुदायवाद का केंद्र-बिंदु है। उदारवाद तो यह मानता है कि व्यक्ति अपने अस्तित्व और अपनी क्षमताओं के लिए समाज का ऋणी बिल्कुल नहीं है, इसलिए वह इन क्षमताओं के बल पर स्वयं निर्धारित लक्ष्यों समुदायवाद की पूर्ति के लिए स्वतंत्र है; अपने उद्देश्य या अपनी भूमिकाएँ निर्धारित करते समय वह अन्य व्यक्तियों या समाज के प्रति उत्तरदायी नहीं है, और इस मामले में वह किन्हीं सामाजिक परम्पराओं या दायित्वों से नहीं बँधा है। इसके विपरीत, समुदायवाद यह मानता है कि व्यक्ति का अपना अस्तित्व और उसकी सारी क्षमताएँ समाज की देन हैं; समाज से मुँह मोड़कर इन क्षमताओं का प्रयोग करने का अधिकार उसे बिल्कुल नहीं है। समाज के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता उसके व्यक्तित्व का आवश्यक अंग है। दूसरे शब्दों में, वह समाज के प्रति अपना कर्तव्य निभाने के वचन से बँधा है। समुदायवाद के अनुसार, यह सोचना तर्कसंगत नहीं है कि भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपने अपने स्वार्थ-साधन के लिए स्वतंत्र हैं, या उनके व्यक्तिगत हितों के जोड़ से ही सामान्य हित का निर्माण होता है। जहाँ उदारवादी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को एक तरह से कटी हुई इकाइयों के रूप में रखते हैं, वहाँ समुदायवादी उन्हें एक दूसरे से जुड़े हुए तंतुओं के रूप में पहचानते हैं। ए. मैकिंटाइ (आफ्टर वचर्यू : सदगुण के अनुरूप, 1981) के अनुसार, व्यक्ति का व्यक्तित्व और आत्माभिव्यक्ति सामाजिक और सामुदायिक बंधनों के तंतुजाल में सार्थक होते है। समुदायवाद हम सबकी सामान्य पहचान और उन मल्यों एवं मान्यताओं को विशेष महत्व देता है जिनके प्रति हम सब आस्था रखते हैं।

उदारवाद के अनुसार, भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपनी-अपनी ज्ञानेंद्रियों (आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा) की सहायता से बाह्या जगत् का ज्ञान प्राप्त करते हैं; इसमें उनकी सामाजिक परिस्थितियों का कोई हाथ नहीं होता। ‘सामान्य हित’ का ज्ञान पृथक्-पृथक् व्यक्तियों के ज्ञान का जोड़ होता है। परंतु समुदायवाद के समर्थक ऐसा नहीं मानते। समुदायवाद के अग्रदूत टी. एच. ग्रीन (1836-82) ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘लेक्वर्स ऑन द प्रिंसिपल्स ऑफ पॉलिटिकल ऑब्लीगेशन’ (राजनीकि दायित्व के सिद्धांतों पर व्याख्यान) (1882) के अंतर्गत यह तर्क दिया था कि मनुष्य वास्तव में आत्मचेतन प्राणियों के रूप में अपने समुदाय के सदस्यों के साथ मिलकर ‘सामान्य हित’ के ज्ञान को अपने मन में उतारते हैं। ग्रीन का विचार था कि मनुष्य अपने स्वार्थ या व्यक्तिगत हित को उतनी अच्छी तरह नहीं पहचानते जितनी अच्छी तरह वे सामान्य हित को पहचानते हैं। ‘सामान्य हित’ में न केवल समुदाय के सब सदस्यों का हित निहित होता है बल्कि इसके बारे में उनकी धारणा भी एक-जैसी होती है। इस सामान्य हित की सिद्धि के लिए ही राज्य और राजनीति अस्तित्व में आते हैं। सामान्य हित का विचार ही राजनीतिक दायित्व का आधार। मतलब यह कि राज्य को केवल वहीं तक कानून बनाने का अधिकार है जहाँ तक वह सामान्य हित को बढ़ावा देता हो, और व्यक्ति भी कानून पालन करने को वहीं तक बाध्य है जहाँ तक वह सामान्य हित के अनुरूप हो। ग्रीन के अनुसार, यदि व्यक्ति यह समझते हों कि वे राज्य के किसी आदेश का विरोध कर के सामान्य हित की रक्षा कर सकते हैं जो उनका राजनीतिक दायित्व उन्हें ऐसा विरोध प्रकट करने से बिल्कुल नहीं रोक सकता। फिर, ‘सामान्य हित’ की चेतना ही मनुष्यों को अपने कर्त्तव्य स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। इसके लिए वे अपनी-अपनी व्यक्तिगत पसंद और स्वार्थ का त्याग करने को तैयार हो जाते हैं। वे यह अनुभव करते हैं कि समाज के सदस्यों के रूप में ही वे आत्म-साक्षात्कार कर सकते हैं, अर्थात् अपने जीवन को सर्वोत्तम रूप में ढाल सकते हैं, और उसे सार्थक कर सकते हैं।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment