
समुदायवाद (Samudayvad) क्या हैं?
समुदायवाद एक समकालीन दर्शन है। इसकी उत्पति उदारवाद की आलोचना से हुई है। आज के युग में सुख-सुविधाओं के साधन तो बहुत बढ़ गए हैं, और आम खुशहाली भी बढ़ी है। परंतु आर्थिक सुरक्षा के बीच भी मनुष्य को भावात्मक सुरक्षा प्राप्त नहीं है; वह भीड़ के बीच भी अकेला है वह समाज में तो रहता है, परंतु समाज के साथ कोई लगाव या अपनापन अनुभव नहीं करता। समुदायवाद व्यक्ति और समाज के इस टूटे हुए रिश्ते को फिर से जोड़ने का प्रयत्न है। समुदायवाद के समर्थक यह मानते हैं कि व्यक्ति को अपना अस्तित्व और व्यक्तित्व सामाजिक जीवन की देन है। भिन्न-भिन्न व्यक्ति एक दूसरे से कटी हुई इकाइयाँ नहीं हैं बल्कि वे समाज की आकृति में एक दूसरे से जुड़े हुए बिंदु हैं। सब व्यक्ति अपने समुदायवाद के सदस्यों के रूप में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। जब तक वे इस रूप में जुड़े रहते हैं, तभी तक वे सार्थक जीवन बिताते हैं । जब भिन्न-भिन्न व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति में लग जाते हैं, तब उनका जीवन बिखर जाता है, और उनके यथार्थ हित की सिद्धि नहीं हो पाती। इसके लिए उन्हें सामान्य हित का पहचान कर उसकी सिद्धि में अपना-अपना योग देना चाहिए। वैसे समुदायवाद एक आधुनिक विचार है, परंतु इसके आरंभिक संकेत प्राचीन यूनानी दार्शनिक अरस्तू तथा अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी के अनेक विचारकों के चिंतन में मिलते हैं। इनमें जे.जे. रूसो, जी.डब्ल्यू. एफ. हीगल और टी.एच. ग्रीन के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके समकालीन प्रवर्त्तकों में एलेस्डेयर मैकिंटाइर, माइकेल सैंडेल और चार्ल्स टेलर विशेष रूप से विख्यात हैं।
संक्षेप में, उदारवाद यह मानता है कि केवल राजनीतिक और कानूनी स्वतंत्रता मिल जाने पर सब मनुष्य स्वतंत्र हो जाते हैं और वे खुले बाजार की तरह अपने संबंधों को सबके हित में नियमित कर सकते हैं। विभिन्न समूह अपने-अपने हितों को बढ़ावा देने के लिए अपने हित-समूह बनाकर परस्पर संबंधों का समायोजन कर सकते हैं। परंतु मार्क्सवाद यह मानता है कि जब तक निजी संपत्ति की संस्था विद्यमान है तब तक आर्थिक तथा राजनीतिक दृष्टि से समाज ‘प्रभुत्वशाली’ और ‘पराधीन’ वर्गों में बँटा रहेगा; उनमें होने वाला कोई भी समझौता केवल पराधीन वर्ग के दमन और शोषण का प्रतीत होगा। अतः जनसाधारण की स्वतंत्रता को सार्थक बनाने के लिए पूँजीवादी व्यवस्था का अंत करना जरूरी है। इस तरह मार्क्सवाद समाज के आर्थिक ढाँचे को आधार मानता है, और कानूनी, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक तत्वों को अधिरचना की संज्ञा देता है। यह अधिरचना किसी भी युग में समाज के आर्थिक ढाँचे के अनुरूप विकसित होती है।
फिर, जहाँ उदारवाद व्यक्ति के अधिकारों पर बल देता है; समुदायवाद उसके कर्त्तव्यों और दायित्वों पर अपने ध्यान केंद्रित करता है। उदारवाद व्यक्ति को स्वार्थ साधन की पूरी छूट देता है। वह यह मानता है कि जब पृथक्-पृथक् व्यक्ति अपने-अपने स्वार्थ साधन को तत्पर होते हैं तब उनके परस्पर लेन-देन से ‘सामान्य हित’ की सिद्धि अपने-आप हो जाती है। दूसरे शब्दों में, वह व्यक्तियों को एक दूसरे से कटी हुई इकाइयों के रूप में देखता है जिनका परस्पर संबंध-पूर्ति की भावाना से प्रेरित होता है। इसके विपरीत, समुदायवाद यह मानता है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के व्यक्तिगत हितों के जोड़ से ‘सामान्य हित’ का निर्माण नहीं होता। वास्तव में ‘सामान्य हित’ का स्रोत पूरा समुदाय है; व्यक्ति का हित उसकी देन है। ‘सामान्य हित’ ऐसी झील नहीं हैं जिसमें पृथक्-पृथक् व्यक्तियों के हितों की धाराएँ आकर समा जाती हों; यह ऐसा विशाल स्रोत है जिससे व्यक्तियों के हितों की सहस्त्रों धाराएँ फूटती हैं। ‘सामान्य हित’ सूर्य है; व्यक्तियों को हित उसकी किरणें हैं। किरणें मिलकर सूर्य का निर्माण नहीं करतीं, बल्कि वे स्वयं सूर्य की देन हैं।
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