कोठारी आयोग द्वारा की गयी शिक्षा सम्बन्धी सुझाव एवं सिफारिश
आयोग ने अपने व्यापक कार्य क्षेत्र को 13 कार्य दलों (Task forces) में विभाजित किया। इसके लिये 7 कार्य समितियाँ (Working groups) का निर्माण किया गया। निरन्तर 21 माह तक इस आयोग ने भारतीय शिक्षा के विभिन्न रंगों का अध्ययन किया। आयोग ने 29 जून, 1966 को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन शिक्षामन्त्री एम. सी. छागला के समक्ष प्रस्तुत की। इस प्रतिवेदन को शिक्षा एवं राष्ट्रीय लक्ष्य (Education and national develop ment) कहा जाता है। शिक्षा आयोग ने निम्नलिखित क्षेत्रों से सम्बन्धित विचार एवं सुझाव व्यक्त किये-
1. शिक्षा एवं राष्ट्रीय लक्ष्य (Education and national objectives)- आयोग ने कहा है कि शिक्षा को लोगों के जीवन, आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप होना चाहिये जिससे उनका आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विकास करके राष्ट्रीय लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके, इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये आयोग ने पाँच सूत्रीय सुझाव दिया – (1) शिक्षा द्वारा उत्पादन में वृद्धि । (2) सामाजिक एवं राष्ट्रीय एकता का विकास। (3) प्रजातन्त्र की सुदृढ़ता। (4) आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में तीव्रता । (5) सामाजिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक मान्यताओं का विकास एवं चरित्र-निर्माण ।
2. शिक्षा की संरचना एवं स्तर (Structure and standards of education) – शिक्षा आयोग ने विद्यालयीय शिक्षा की नवीन संरचना इस प्रकार प्रस्तुत की – ( 1 ) 1 से 3 वर्ष तक पूर्व विद्यालय शिक्षा। (2) 4 से 5 वर्ष तक निम्न प्राथमिक शिक्षा। (3) 3 वर्ष की उच्च प्राथमिक शिक्षा। (4) 2 या 3 वर्ष की निम्न माध्यमिक शिक्षा। (5) 2 वर्ष की उच्चतर माध्यमिक शिक्षा । विद्यालयीय शिक्षा की संरचना सम्बन्धी आयोग के सुझाव निम्नलिखित हैं- (1) सामान्य शिक्षा की अवधि 10 वर्ष की रखी जाय। (2) प्रारम्भिक शिक्षा प्रारम्भ होने से पूर्व 3 वर्ष तक पूर्व विद्यालय तथा पूर्व प्राथमिक शिक्षा का प्रबन्ध किया जाय। (3) प्राथमिक शिक्षा की अवधि 7 से 8 वर्ष रखी जाय ।
3. शिक्षक की स्थिति (Teacher’s status ) – शिक्षण व्यवसाय में प्रतिभाशाली व्यक्तियों को आकर्षित करने के लिये शिक्षकों की आर्थिक, सामाजिक और व्यावसायिक स्थिति को उन्नत करना आवश्यक है। इस तथ्य के सन्दर्भ में आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये – (1) भारत सरकार द्वारा शिक्षकों का न्यूनतम वेतन निर्धारित किया जाय, सरकारी एवं गैर-सरकारी सभी विद्यालयों में एक समान वेतन क्रम लागू किया जाय। (2) प्रत्येक संस्था में शिक्षकों को कार्य सम्पादन सम्बन्धी न्यूनतम सुविधाएँ प्रदान की जायें। (3) समस्त शिक्षकों को व्यावसायिक उन्नति करने के लिये उपयुक्त सुविधाएँ प्रदान की जायें। (4) शिक्षकों के कार्यभार का निर्धारण उसके द्वारा किये जाने वाले सम्पूर्ण कार्यभार के सन्दर्भ में आँका जाय।
4. छात्र संख्या एवं जन-बल (Enrolment and man power) – आयोग ने माध्यमिक शिक्षा के सन्दर्भ में इस बिन्दु के अन्तर्गत निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये – ( 1 ) उत्तर प्राथमिक शिक्षा (Post-primary education) में छात्र संख्या सम्बन्धी नीति निर्देशक बिन्दु इस प्रकार होने चाहिये – माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा की माँग एवं आवश्यकता छात्रों के जन्मजात गुणों का विकास माध्यमिक एवं उच्च शिक्षा सुविधाएँ प्रदान करने के लिये समाज की क्षमता तथा जनबल की आवश्यकताएँ (2) शिक्षा सुविधाओं का विस्तार रोजगार प्राप्त करने के अवसरों को ध्यान में रखकर किया जाय।
5. शैक्षिक अवसरों की समानता (Equalization of educational opportuni ties)- आयोग ने भारतीय शिक्षा में व्याप्त दो असमानताओं के संकेत दिये- (1) शिक्षा के सभी पक्षों एवं स्तरों पर बालक-बालिकाओं की शिक्षा में असमानता, (2) उन्नत वर्गों, पिछड़े लोगों, अछूतों तथा आदिवासियों और पहाड़ी जनजातियों की शिक्षा में असमानताएँ। इस सन्दर्भ में आयोग के निम्नलिखित सुझाव थे-
(1) चतुर्थ पंचवर्षीय योजना तक समस्त सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाओं में प्राथमिक शिक्षा को शिक्षण शुल्क से मुक्त कर दिया जाय। (2) निम्न माध्यमिक शिक्षा को भी इसी प्रकार निःशुल्क बनाने के प्रयास किये जायें। (3) आगे के 10 वर्षों में उच्चतर माध्यमिक शिक्षा (हायर सेकेण्डरी) तथा विश्वविद्यालय-शिक्षा को शुल्क मुक्त कर दिया जाय (केवल आर्थिक रूप से दुर्बल वर्ग के बालकों के लिये) । (4) प्राथमिक स्तर पर बालकों को पाठ्य-पुस्तकें तथा लेखन सामग्री बिना किसी शुल्क के वितरित की जायें तथा छात्रवृत्तियाँ दी जायें।
6. विद्यालय शिक्षा का विस्तार (Expansion of school education) – आयोग ने विद्यालय स्तर के परिणाम में विस्तार करने के भी सुझाव दिये हैं। ये सुझाव हैं-
(1) प्रत्येक राज्य के राजकीय शिक्षा संस्थान (State institute of education) में पूर्व प्राथमिक शिक्षा के लिये राज्य स्तर का एक केन्द्र स्थापित किया जाय। (2) प्रत्येक जिले में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिये केन्द्र स्थापित किया जाय। (3) व्यक्तिगत संस्थाओं को इस शिक्षा में सहयोग के लिये प्रोत्साहित किया जाय। (4) पूर्व-प्राथमिक विद्यालयों के कार्यक्रमों को पर्याप्त मनोरंजक एवं लचीला बनाया जाय।
7. विद्यालय प्रशासन एवं निरीक्षण (School administration and inspec tion) – भारत में विद्यालय प्रशासन एवं निरीक्षण सम्बन्धी कार्यक्रम अप्रभावी तथा असहानुभूति पूर्ण हैं। इनके प्रभावी संगठन के लिये आयोग ने निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये – (1) प्रबन्ध समिति एवं शिक्षक समूहों के मध्य विद्वेषों एवं वैमनस्यपूर्ण सम्बन्धों को समाप्त करने के लिये प्रभावी कदम उठाये जायें। (2) यदि कोई विद्यालय उपयुक्त ढंग से संचालित नहीं किया जा रहा तो राज्य सरकार को उसका संचालन स्वयं अपने हाथों में ले लेना चाहिये। (3) व्यक्तिगत विद्यालयों की प्रबन्ध समितियों में शिक्षा विभाग के प्रतिनिधियों को सम्मिलित किया जाय।
8. शिक्षण विधियाँ, निर्देशन तथा मूल्यांकन (Teaching methods, guidance and evaluation) – इस सन्दर्भ में आयोग की सिफारिशें निम्नलिखित हैं
(1) विद्यालयों में प्रयुक्त शिक्षण विधियों को और अधिक लचीला एवं गत्यात्मक (Dynamic) बनाया जाय। (2) शिक्षा में गतिशीलता लाने के लिये शिक्षकों में पहलकदमी (Initia tion), परीक्षण एवं सृजनात्मक गुणों का विकास किया जाय। (3) नवीन शिक्षण विधियों के लिये अभिनव पाठ्यक्रमों, वर्कशॉपों, प्रदर्शनों तथा परीक्षणों के लिये विचार सम्मेलनों आदि का आयोजन किया जाय। (4) पाठ्य-पुस्तकों के लेखन एवं निर्माण में राष्ट्र के प्रतिभाशाली शिक्षकों को प्रोत्साहित किया जाय।
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