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सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र का अर्थ, परिभाषा, आवश्यकता एवं महत्त्व

सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र का अर्थ
सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र का अर्थ

सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र का अर्थ

सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र का विचार प्राचीनकाल से ही समाज में विद्यमान था। वर्तमान समाज में इसकी आवश्यकता अधिक अनुभव की जा रही है। सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें व्यक्ति हित के ऊपर उठकर सार्वजनिक हित के बारे में सोचना पड़ता है। भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह तथ्य कहा गया है कि तुम व्यक्तिगत हित को तो छोड़ सकते हो परन्तु सार्वजनिक हित के लिये तुम्हें युद्ध करना ही पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट होता है कि सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र में सार्वजनिक हित की भावना समाहित होती है । सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र की अवधारणा का विकास भारतीय समाज में प्राचीन समय से वर्तमान समय तक हो रहा है।

सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र एक ऐसी व्यवस्था होती है जो कि मानव मूल्य एवं सहयोग पर आधारित होती है, जिसमें सम्पूर्ण समाज का हित निहित होता है। यह व्यवस्था किसी सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित नहीं होती।

सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र की परिभाषा 

सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र को विद्वानों ने अग्रलिखित रूप में परिभाषित किया है-

(1) प्रो. एस. के दुबे के शब्दों में, “सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था की ओर संकेत करता है जो कि सार्वजनिक हित, मानव मूल्य, नैतिक मूल्य, समानता, स्वतन्त्रता एवं सर्वांगीण विकास के सिद्धान्त पर आधारित होती है। “

(2) श्रीमती आर. के. शर्मा के शब्दों में, “सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र विश्वबन्धुत्व एवं अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना की ओर बढ़ने वाला यह प्रथम पग है जो राष्ट्रीय स्तर के विकास के साथ-साथ वैश्विक विकास की ओर जाता है तथा मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। ” उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सामाजिक सौहार्द्र में मानवीय मूल्य एवं सामाजिक मूल्य निहित होते हैं तथा इसमें सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण की भावना निहित होती है। सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र सार्वजनिक हित के सिद्धान्त पर कार्य करता है।

सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र की आवश्यकता एवं महत्त्व

वर्तमान समय में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है तथा व्यक्ति निहित स्वार्थी के लिये सामाजिक एवं साम्प्रदायिक सद्भावनाओं को त्याग रहा है। इसीलिये सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र की परमावश्यकता है। प्रो. एस. के. दुबे लिखते हैं कि “सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र के अभाव में राष्ट्रीय एकता, अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना, विश्वबन्धुत्व एवं मानव कल्याण का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता क्योंकि सामाजिक एवं साम्प्रदायिक सौहार्द्र की व्यवस्था व्यक्तिगत हित के स्थान पर सार्वजनिक हित पर आधारित होती है।” सामाजिक एवं साम्प्रदायिक सौहार्द्र की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्नलिखित बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. सामाजिक विकास के लिये (For the social development)- जिस समाज में पारस्परिक सौहार्द्र की स्थापना नहीं होगी, उस समाज में आन्तरिक कलह एवं विवाद जन्म लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप समाज विखण्डित हो जाता है तथा समाज में विकास की सम्भावना क्षीण हो जाती है

2. मानवीय मूल्यों के विकास के लिये (For the development of human values)- मानवीय समाज का अस्तित्व मानव मात्र से होता है। जिस समाज में मानवीय मूल्यों का अभाव पाया जाता है वह समाज उत्थान की ओर अग्रसर नहीं होता। वर्तमान समय में साम्प्रदायिक तनाव का कारण ही मानवीय मूल्यों का अभाव है । सौहार्द्र की भावना मानवीय मूल्यों का पूर्णतः विकास करती है क्योंकि सौहार्द्र स्थापना का प्रमुख उद्देश्य मानव को सच्चे अर्थों में मानव बनाना है जो कि मानवीय गुणों के विकास से सम्भव है।

3. शान्ति के विकास के लिये (For the development of peace )- शान्ति के लिये समाज एवं सम्प्रदाय में विवाद की स्थिति नहीं होनी चाहिये। सौहार्द्र स्थापना के उपरान्त समाज में किसी प्रकार का कोई विवाद नहीं रहता, जिससे राष्ट्र एवं समाज में पूर्णत: शान्ति का वातावरण फैल जाता है।

4. राष्ट्रीय एकता के लिये (For the national integration ) — जिस समाज में मानवीय मूल्यों एवं सहयोग की भावना उपस्थित होगी, वह समाज राष्ट्रीय एकता के प्रति समर्पित होगा । सामाजिक प्रेम को सौहार्द्र की स्थापना के द्वारा ही विकसित किया जाता है तथा समाज प्रेम ही राष्ट्रीय एकता एवं राष्ट्र प्रेम को जन्म देता है। अतः राष्ट्रीय एकता के विकास में सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र परमावश्यक है।

5. अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना के लिये (For the International Understanding)- प्रेम एवं सहयोग की भावना राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ नहीं करती वरन् अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना को जन्म देती है क्योंकि जिसमें प्रेम एवं सहयोग विकसित होता है, उस समाज के व्यक्तियों की सोच विस्तृत होती है। यह कार्य सामाजिक एवं पारस्परिक सौहार्द्र स्थापना के द्वारा ही सम्भव होता है।

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