शिक्षा का समाज सम्बन्धी कार्य
शिक्षा के सामाजिक दृष्टिकोण के महत्त्व के रूप में शिक्षा के समाज से सम्बन्धित कार्य अग्रलिखित हैं-
(1) सामाजिक नियमों का ज्ञान (Knowledge of social laws) – मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के बिना वह एक पल भी नहीं रह सकता। अतः मानव के लिये आवश्यक है कि वह समाज के नियमों की जानकारी रखे, जिससे समाज में उसका सम्मानित स्थान हो। यह शिक्षा द्वारा ही सम्भव है।
(2) प्राचीन साहित्य का ज्ञान (Knowledge of ancient literature)- शिक्षा के माध्यम से होने वाला प्राचीन साहित्य का ज्ञान हमें समाज की पिछली तस्वीर से अवगत कराता है और बताता है कि आज का समाज किस प्रकृति का है ? भूत तथा वर्तमान के आधार पर हम भविष्य की कल्पना आसानी से कर सकते हैं।
(3) कुरीतियों के निवारण में सहायक (Helpful in removing the bad tradi tions)- शिक्षा के माध्यम से आने वाली पीढ़ी को समस्याओं एवं प्रचलित कुरीतियों से अवगत कराकर उसके प्रति शीत क्रान्ति लायी जा सकती है, जैसे- जाति प्रथा, प्रदेशवाद, बाल-विवाह आदि ।
(4) सामाजिक भावना का विकास (Development of social feelings) – न व्यक्ति समाज से पृथक् रह सकता है और न ही किया जा सकता है। अत: उसमें प्रेम, परोपकार, दया, भाईचारे की भावना आनी चाहिये, जैसा कि एच. गार्डन ने कहा है, “शिक्षक को यह जानना आवश्यक है कि वह सामाजिक प्रक्रिया को उन व्यक्तियों को समझाने की दिशा में कार्य करे जो इसे समझने में असमर्थ हैं।”
(5) सामाजिक उन्नति में सहायक (Helpful in social development) – शिक्षा सामाजिक क्रियाओं एवं तथ्यों का लेखा-जोखा साहित्य के रूप में रखती है। अत: अगली पीढ़ी उसकी कमियों को समझकर उसे दूर करने का प्रयास करती है। इसका परिणाम ऐतिहासिक काल से लेकर आधुनिक अवस्था तक की प्रगति है।
(6) सभी धर्मों के विषय में उदार दृष्टिकोण (A kind attitude toward all religions) – धार्मिक दृष्टि से देखा जाय तो अनेक वाद-विवाद धर्मों के कारण ही होते हैं। यदि निष्पक्ष भावना से देखा जाय तो कोई भी धर्म दूषित विचारों को स्थान नहीं देता। सभी धर्मों के आदर्शों पर चला जाये तो सभी उन्नति के पथ पर ले जाते हैं। अतः शिक्षा का तुलनात्मक अध्ययन इस समस्या को दूर कर सकता है।
शिक्षा का राष्ट्र सम्बन्धी कार्य
शिक्षा के राष्ट्र सम्बन्धी कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) भावात्मक एकता (Emotional integration)- धर्म, जाति, राज्य, भाषा, रीति-रिवाज, पहनावा को देखते हुए भारत में अनेक भिन्नताएँ पायी जाती हैं। हम अपने धर्म को अच्छा समझते हैं तथा दूसरों के धर्म को बुरा, यही कारण है कि आये दिन झगड़े होते रहते हैं। इसके निवारण का उपाय शिक्षा है, जो समस्त धर्मों के मूलभूत सिद्धान्तों को समझा सकती है।
(2) कुशल नागरिक (Efficient citizens) – शिक्षा द्वारा अच्छे नागरिकों का निर्माण किया जा सकता है क्योंकि किसी भी राष्ट्र की आधारशिला नागरिक हैं। शिक्षा के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को उसके कर्त्तव्यों तथा अधिकारों का ज्ञान कराया जा सकता है।
(3) राष्ट्रीय विकास (National development)- प्रत्येक राष्ट्र का विकास उसके नागरिकों पर निर्भर है, यदि देश के सभी व्यक्ति शिक्षित होंगे तो निश्चित ही राष्ट्र के नागरिक आत्म-निर्भर बनेंगे, इससे प्रत्येक नागरिक की आय में वृद्धि होगी। इस प्रकार राष्ट्रीय आर्थिक विकास दृष्टिगोचर होगा।
(4) राष्ट्रीय एकता (National integration) – जातिवाद, राज्य, क्षेत्र तथा भाषा को लेकर अनेक झगड़े खड़े हो जाते हैं। भारतवासी कहलाने वाले हम अपने को पंजाबी, बंगाली एवं गुजराती कहते हैं तथा अपनी-अपनी भाषा को प्रमुख मानते हैं, ऐसा क्यों ? शिक्षा द्वारा यह भावनाएँ दूर करके भारतीयता की भावना लायी जा सकती है। एक अमेरिकन ने अपनी डायरी में लिखा है- “मैं भारत गया, वहाँ पंजाबी, गुजराती तथा बंगाली सभी से मिला, परन्तु आश्चर्य की बात है कि किसी भारतीय से मुलाकात न हो सकी।”
(5) सार्वजनिक हित (Public welfare)- आजकल मानव अत्यधिक स्वार्थी हो गया है, परन्तु शिक्षा ही उनको यह समझा सकती है कि सभी का हित होगा तो उसमें कुछ अपना भी हित हो सकता है। केवल स्वयं के भले में दूसरों का तो लेशमात्र भी भला नहीं हो सकता, इसलिए स्वार्थ की भावना छोड़कर सार्वजनिक हित को ध्यान में रखना चाहिये।
(6) राष्ट्रीय आय (National income)- आजकल शिक्षा का कोई उद्देश्य नहीं है, यदि शिक्षा को पुस्तकीय रूप न देकर व्यावसायिक शिक्षा का रूप दें तो बेरोजगार व्यक्ति स्वयं कुछ व्यवसाय कर सकते हैं, जिससे देश का बोझ हल्का होने के साथ-साथ राष्ट्रीय आय में भी वृद्धि हो सकती है।
(7) अधिकार तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान (Knowledge of rights and duties) – शिक्षा के द्वारा देश के प्रत्येक नागरिक को उसके अधिकार तथा कर्त्तव्यों का ज्ञान कराकर देश के प्रति क्रियाशील बनाया जा सकता है तथा उसमें राष्ट्रीय तथा भावनात्मक एकता का विकास देश के हित में किया जा सकता है।
शिक्षा का वातावरण सम्बन्धी कार्य
शिक्षा के वातावरण से सम्बन्धित कार्य निम्नलिखित हैं-
(1) वातावरण समायोजन (Adaptation to environment) – मानव एक विवेकशील प्राणी है। अतः वह वातावरण की विषमताओं को सहन करते हुए उनसे बचने के उपाय ढूँढ़कर उनको अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करता है। शिक्षा उसकी समस्याओं को हल करने में और अधिक सहायता करती है, जो उससे पूर्व के व्यक्तियों द्वारा किये गये समायोजन के आधार पर होता है। ट्रामसन ने लिखा है-“वातावरण शिक्षक है और शिक्षा का कार्य है छात्र को उस वातावरण के अनुकूल बनाना, जिससे वह जीवित रह सके और अपनी मूल प्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने के लिये अधिक से अधिक सम्भव अवसर प्रदान कर सके।”
(2) वातावरण परिवर्तन (Modification of environment)- जब व्यक्ति वातावरण से समायोजन करने में असफल रहता है तो वह वातावरण में ही सुधार का प्रयास करता है। जिसमें शिक्षा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। यह सरल हल निकाल देती है और व्यक्ति वातावरण पर अधिकार प्राप्त करने के प्रयत्न करता है। जॉन डीवी के अनुसार-“वातावरण से पूर्ण अनुकूलन करने का अर्थ है-मृत्यु। आवश्यकता इस बात की है कि वातावरण पर नियन्त्रण रखा जाये।” “Complete adaptation to environment means death. The essential point is to control the environment.”
Important Links…
- ब्रूनर का खोज अधिगम सिद्धान्त
- गैने के सीखने के सिद्धान्त
- थार्नडाइक का प्रयास एवं त्रुटि का सिद्धान्त
- अधिगम का गेस्टाल्ट सिद्धान्त
- उद्दीपक अनुक्रिया सिद्धान्त या S-R अधिगम सिद्धान्त
- स्किनर का सक्रिय अनुबन्धन का सिद्धान्त
- पैवलोव का सम्बद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त
- थार्नडाइक द्वारा निर्मित अधिगम नियम
- सीखने की प्रक्रिया
- सीखने की प्रक्रिया में सहायक कारक
- अधिगम के क्षेत्र एवं व्यावहारिक परिणाम
- अधिगम के सिद्धांत
- अधिगम के प्रकार
- शिक्षण का अर्थ
- शिक्षण की परिभाषाएँ
- शिक्षण और अधिगम में सम्बन्ध