कानून एवं स्वतन्त्रता के मध्य सम्बन्धों का वर्णन कीजिये।
कानून और स्वतन्त्रता का सम्बन्ध (Relation between Liberty and Law)
कानून और स्वतन्त्रता के सम्बन्ध को लेकर दो विचारधाराएँ प्रचलित हुयी है। एक विचारधारा व्यक्तिवादियों की है और दूसरी आदर्शवादियों की यहाँ इनका उल्लेख संक्षेप में किया जा रहा है-
(अ) व्यक्तिवादियों के विचार- व्यक्तिवादियों का मत है कि स्वतन्त्रता और कानून एक-दूसरे के विरोधी हैं। इनके अनुसार स्वतन्त्रता पर नियन्त्रण लगाना है। समाज में जितने अधिक कानून प्रचलित होंगे, स्वतन्त्रता उतनी ही कम होगी। कानून का थोड़ा सा बन्धन भी स्वतन्त्रता का अपहरण कर लेता है। विलियम गाडविन ने लिखा है-“कानून एक ऐसी संस्था है जो अत्यधिक हेय है।”
उसने यह विचार इसलिए व्यक्त किये हैं कि उसके अनुसार कानून स्वतन्त्रता में बाधक होते हैं। प्रसिद्ध विद्वान मिल के विचार भी इसी प्रकार के हैं। पाश्चात्य देशों में सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में निरंकुश शासन की स्थापना हुई थी और कानून का आश्रय लेकर शासकों ने जनता पर भाँति-भाँति के अत्याचार किये थे। इसी की प्रतिक्रियास्वरूप 18वीं और 19वीं शताब्दी में व्यक्तिवादी विचारों का प्रचलन हुआ और कानूनों को स्वतन्त्रता का विरोधी बतलाया गया। 20वीं शताब्दी में व्यक्तिवादी विचारदारा का लोप होता जा रहा है। वास्तव में आज के युग में स्वतन्त्रता और कानून दोनों ही की परिभाषाएँ बदल गयी हैं और वे दोनों ही नागरिक एवं सामाजिक जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक माने जाते हैं।
(ब) आदर्शवादियों के विचार- आदर्शवादी स्वतन्त्रता और कानून में कोई विरोध में नहीं मानते। वे दोनों को एक-दूसरे का पोषक तथा पूरक मानते हैं। उनका विचार है कि स्वतन्त्रता कानून-पालन में ही निहित है। कॉण्ट, हीगेल, ग्रीन और बोसॉके आदि विचारक इसी मत की पुष्टि करते हैं। हीगेल का विचार है कि मनुष्य ईश्वर का अभिमान है और उसका धर्म है कि वह राज्य की आज्ञाओं का पालन करे। विभिन्न विचारकों ने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया है कि वास्तविक स्वतन्त्रता और कानूनों में कोई विरोध नहीं हैं। इस सम्बन्ध में वे निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत करते हैं-
( 1 ) कानून के अभाव में स्वतन्त्रता सम्भव नहीं है— स्वतन्त्रता का अस्तित्व कानून के फलस्वरूप ही है। यदि कानून न हो तो सब मनमानी करने लग जायेंगे और चारों और अराजकता फैल जायेगा। इस परिस्थिति में जो सबसे अधिक शक्तिशाली होगा वही स्वतन्त्रता का अनुभव कर सकेगा, अन्य शक्तिहीन नहीं। “जिसकी लाठी उसकी भैंस” का नियम स्वतन्त्रता के अस्तित्व को समाप्त कर देगा। ग्रीन ने लिखा है, “मनुष्य तभी स्वतन्त्र है जब वह उस कानून का पालन करता है जिसका उसने निर्माण किया है।”
( 2 ) कानून स्वतन्त्रता का रक्षक- हमारी स्वतन्त्रता की रक्षा कानूनों द्वारा ही होती है। स्वतन्त्रता अधिकारों की उपज है और यह अधिकार हमें राज्य द्वारा प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों अर्थात् स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए राज्य कानून बनाता है। यदि कानून ही न हो तो स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं हो सकती। प्रसिद्ध विद्वान जॉन लॉक ने लिखा है-“जहाँ कोई कानून नहीं है, वहाँ कोई स्वतन्त्रता नहीं है।”
( 3 ) कानून स्वतन्त्रता की सीमा निर्धारित करते हैं- एक विद्वान ने लिखा है, “सीमाबद्ध स्वतन्त्रता ही वास्तविक स्वतन्त्रता है और सीमा-रहित स्वतन्त्रता अराजकता है।” सिसरो का मत है, “स्वतन्त्रता कार्य करने की वह शक्ति है जिसकी आज्ञा कानून द्वारा प्राप्त हो ।” इस प्रकार स्वतन्त्रता की सीमा निर्धारित करने का कार्य कानून ही करता है।
( 4 ) कानून स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं- वास्तव में कानून हमारी स्वतन्त्रता में वृद्धि करते हैं जो व्यक्ति जितना ही अधिक कानून का पालन करता है, वह उतना ही अधिक स्वतन्त्र रह सकता है। दूसरी ओर जो व्यक्ति कानूनों का उल्लंघन करता है उसकी स्वतन्त्रता खतरे में पड़ सकती है। उदाहरण के लिए चोरी करके कानून भंग करने वाला व्यक्ति जेल में बन्द कर दिया जाता है और जो कानून का पालन करता है वह स्वतन्त्रतापूर्वक घूमता रहता है। लॉक ने लिखा है— “कानून का उद्देश्य स्वतन्त्रता का उन्मूलन नहीं है, वरन् उसका उद्देश्य स्वतन्त्रता की रक्षा तथा वृद्धि करना है।”
(5) कानून और स्वतन्त्रता एक-दूसरे के पूरक हैं- कानून और स्वतन्त्रता एक दूसरे के पूरक और परिपूरक कहे जा सकते हैं। स्वतन्त्रता के लिए कानून आवश्यक है और कानून के लिए स्वतन्त्रता। यदि मानव सभ्यता के विकास पर एक विहंगम दृष्टि डाली जाय तो कानूनों के निर्माण में मानव की मूल भावना स्वतन्त्रता रही है। अपनी स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए ही उसने कानून को बनाया है। इस घनिष्ठ सम्बन्ध के फलस्वरूप ही रैम्जे म्योर ने लिखा है “कानून और स्वतन्त्रता इस प्रकार अन्योन्याश्रित और एक-दूसरे के पूरक है।”
( 6 ) कानून और स्वतन्त्रता परस्पर विरोधी नहीं— बहुत से विचारक यह मानते हैं कि कानून और स्वतन्त्रता एक-दूसरे के विरोधी है। यह कथन तभी सत्य है जब स्वतन्त्रता का अर्थ स्वच्छन्दता हो, परन्तु ऐसा नहीं है। जब तक हम कानून के दर्शन बाह्य बन्धन के रूप में करते हैं तब तक वह हमें स्वतन्त्रता का विरोधी प्रतीत होता है, परन्तु जब हम अधिक गहनता से विचार करते हैं तो कानून और स्वतन्त्रता मनुष्य की दो आँखों के रूप में प्रतीत होते हैं। एक विद्वान ने लिखा है— “कानून हमारी स्वतन्त्र इच्छा का निर्देश है। कानून के पालन में हम स्वयं की अन्तरात्मा की आज्ञाओं का पालन करते हैं और इस प्रकार हम स्वतन्त्रता के महान घर के दरवाजों को खोल देते हैं।”
(7 ) लोकतान्त्रिक युग में कानून स्वतन्त्रता अपहरण नहीं करते- आधुनिक युग लोकतन्त्र का युग है, जिसमें शासन-सूत्र जनता के हाथ में निहित रहता है। लोकतन्त्र के प्रतिनिधि कानून का निर्माण करते है और उन्हें कार्यान्वित करते हैं। प्रजातन्त्र के दो आधार स्तम्भ-स्वतन्त्रता और समानता है। अतएव लोकतन्त्रात्मक व्यवस्था में कानूनों द्वारा स्वतन्त्रता का अपहरण नहीं हो सकता। एक विद्वान ने लिखा है- “प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली में कानूनों का निर्माण जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा होता है, इसलिए प्रजातन्त्र में स्वतन्त्रता बिना किसी के भय के विकसित होती है।”
अन्त में हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि स्वतन्त्रता और कानून में अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है। अच्छे कानून के बिना स्वतन्त्रता की रक्षा नहीं हो सकती और स्वतन्त्रता के बिना कानून नहीं बनाये जा सकते इन दोनों का अस्तित्व समाज के लिए आवश्यक है। रेम्जेम्योर ने लिखा है—“कानून और स्वतन्त्रता पाश्चात्य सभ्यता की अस्थि और रक्त है।” यह बात किसी समस्या के लिए कही जा सकती है और हम कह सकते हैं कि कानून और स्वतन्त्रता मानव सभ्यता की अस्थि और रक्त है।
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