किशोरावस्था का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning & Definition of Adolescence)
“किशोरावस्था” अंग्रेजी भाषा के शब्द “एडोलेसेन्स” (Adolescence) का हिन्दी रूपान्तर है। “एडोलेसेन्स” (Adolescence) शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द “एडोलेसियर” (Adolescere) से हुई है, जिसका अर्थ है “प्रौढ़ता की ओर बढ़ना” (To grow to Maturity)। यह जीवन का सबसे कठिन काल है। यह बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य का “सन्धि-काल” (Transitional Period) है, अर्थात् बालक दोनों अवस्थाओं में रहता है। अतः उसे न तो बालक समझा जाता है और न ही प्रौढ़। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जरसील्ड ने किशोरावस्था का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है- “किशोरावस्था, वह समय है जिसमें व्यक्ति बाल्यावस्था से प्रौढ़ता की ओर विकसित होता है।”
ब्लेयर, जोन्स और सिम्पसन का विचार है- “किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का वह काल है जो बाल्यावस्था के अन्त में आरम्भ होता है और प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में समाप्त होता है।”
यह अवस्था बाल्यावस्था के पश्चात् आती है। मनोवैज्ञानिकों ने इसका समय 13 वर्ष से 18 वर्ष तक माना है। इस समय में शैशवकाल के पश्चात् बाल्यकाल में आई स्थिरता विलुप्त हो जाती है। इस अवस्था में शारीरिक और मानसिक स्वरूप में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। स्टैनले हॉल ने लिखा है- “किशोरावस्था महान् तनाव, तूफान तथा विरोध का समय है।”
किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ (Chief Characteristics of Adolescence)
किशोरावस्था की प्रमुख विशेषता के सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिक बिग तथा हण्ट ने लिखा है- “किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से व्यक्त करने वाला एक शब्द है ‘परिवर्तन’। परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक होता है।”
अतः उपरोक्त परिभाषानुसार किशोरावस्था की शारीरिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ निम्नवत् हैं
1. क्रांतिकारी शारीरिक परिवर्तन- किशोरावस्था में बालक-बालिकाओं में अनेक शारीरिक परिवर्तन होते हैं। बालक के दाढ़ी-मूँछ आने लगती हैं। उसकी आवाज में कर्कशता आ जाती है। किशोर तथा किशोरी के गुप्तांगों पर भूरे रंग के बाल उग आते हैं। बालकों का सीना चौड़ा होने लगता है। बालिकाओं के वक्षस्थल तथा कूल्हे बढ़ने लगते हैं। किशोर की लिंग ग्रन्थियों में शुक्र स्राव (Segmental Discharge) होने लगता है, जिससे उन्हें कभी स्वप्नदोष (Night Discharge) भी होता है। किशोरियों को रक्त स्राव या मासिक धर्म (Monthly Course) होने लगती है।
2. काम प्रवृत्ति- किशोरावस्था में काम प्रवृत्ति तीव्र रूप धारण कर लेती है इस काम प्रवृत्ति की तीन प्रमुख अवस्थाएँ होती हैं
(अ) स्व-प्रेम- किशोर अपने अंगों में एक आकर्षण महसूस करने लगता है और उसे अपने आप से प्यार हो जाता है। वह अपने लिंग अवयव को स्पर्श करता है और आनन्द प्राप्त करता है। आकर्षक दिखने में वह अपने समान किसी को नहीं समझता है, वह अपने में मस्त रहता है और अपने से ही प्रेम करता है। फ्रायड़ ने इस स्थिति को नार्सीसिज्म (Narcissism) कहा है।
(ब) समानलिंगी प्रेम- किशोरावस्था की शुरुआत में किशोरों तथा किशोरियों में समान लिंग के प्रति आकर्षण होता है। किशोर अपने से कम आयु के बालकों के प्रति और किशोरियाँ अपने से अधिक आयु की लड़कियों के प्रति आकर्षित होती पायी गयी हैं।
(स) विषमलिंगी प्रेम- किशोरावस्था के उत्तर काल में विषमलिंगी प्रेम पैदा होता है। किशोर किशोरी की तरफ और किशोरी किशोर की तरफ आकर्षित होती है।
3. अधिकतम मानसिक विकास- किशोरावस्था में बालक का अधिकतम मानसिक विकास होता है। बुद्धि का उच्चतम विकास भी पूरा हो जाता है। अमूर्त चिंतन तथा तर्क-शक्ति की अधिक योग्यता आ जाती है। अवधान तथा स्मरण शक्ति का भी पूर्ण विकास हो जाता है।
4. संवेगात्मक विकास- इस अवस्था में बालक विभिन्न प्रकार के संवेगों का अनुभव करता है वह कभी खुश हो जाता, कभी दुःखी हो जाता है और कभी अत्यन्त उत्तेजित हो जाता है।
इसीलिए स्टेनले हाल (Stanley Hall) ने कहा है- “किशोरावस्था बड़े संघर्ष एवं तनाव, तूफान और विरोध की अवस्था है।”
5. सामाजिक सेवा की भावना- इस अवस्था में बालक में सामाजिक सेवा की भावना का विकास होता है। उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी (Extrovert) हो जाता है।
रॉस के अनुसार- “नवयुवक का उदार हृदय मानव जाति के प्रेम से ओत-प्रोत हो जाता है तथा आदर्श समाज के निर्माण में सहायता करने की इच्छा से उद्विग्न हो उठता है।”
6. आत्म-सम्मान की भावना- इस अवस्था में बालक में आत्मसम्मान की प्रवृत्ति पाई जाती है। वह समाज में प्रमुख स्थान पाना चाहता है। आत्मसम्मान पाने के लिए कभी-कभी वह सामाजिक बन्धनों का भी विरोध करता है।
7. कल्पना की बहुलता- किशोरावस्था में कल्पना की बहुलता होती है। बालक दिवास्वप्न (Day dream) देखने लगता है। कभी यह लाभदायक होता है और कभी हानिकारक भी। प्रायः व्यर्थ के विचार भी बालक को घेरे रहते हैं।
8. स्थायित्व एवं समायोजन का अभाव- इस अवस्था में बालक की संवेगात्मक समस्याओं के कारण उसका मन और उसके विचार अस्थिर रहते हैं। वह कभी कुछ सोचता है और कभी कुछ अन्य सोचता है। कुछ निश्चित करना उसके लिए बड़ा कठिन होता है। अतः वह वातावरण से समायोजन भी करने में काफी असमर्थ रहता है।
9. आत्मनिर्भरता की भावना- इस अवस्था में आत्मनिर्भरता की भावना अधिक विकसित होती है।
‘कश्यप और पुरी’ के अनुसार- “किशोर संसार में अपना कोई स्थान पाने की इच्छा करता है। यह इच्छा स्वाभाविक है और आत्म-निर्भरता की आवश्यकता की ओर संकेत करती है।”
10. घनिष्ठ एवं व्यक्तिगत भिन्नता- वैलेण्टाइन (Valentine) महोदय के अनुसार “घनिष्ठ और व्यक्तिगत भिन्नता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है।” अतः किशोर किसी समूह का सदस्य होते हुए भी केवल एक या दो बालकों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है, जिनसे वह अपनी समस्याओं के बारे में स्पष्ट बात करता है।
11. आपराधिक प्रवृत्ति का विकास- इस अवस्था में इच्छापूर्ति में बाधा, निराशा और असफलता मिलने के कारण किशोरों में अपराध की प्रवृत्ति का विकास होता है।
12. व्यवसाय का चुनाव- किशोरावस्था में बालक अपने भावी व्यवसाय को चुनने के लिए अत्यधिक चिन्तित रहता है।
13. ईश्वर और धर्म में विश्वास- आत्मनिर्भरता की भावना के लिए, व्यवसाय चयन का समय, उत्तर किशोरावस्था में किशोर में धीरे-धीरे ईश्वर के प्रति आस्था एवं धर्म के प्रति विश्वास भी पैदा हो जाता है।
14. जीवन-दर्शन का निर्माण- किशोर अपने जीवन के लिए ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण करना चाहता है, जिनकी सहायता से अपनी बातों ( समस्या समाधान आदि) का निर्णय स्वयं ही ले सकें।
किशोरावस्था में विकासात्मक परिवर्तन के द्वारा उत्पन्न दबाव व तनाव को दूर करने में शिक्षक की भूमिका (Role of a teacher to help them deal with their stress and strain caused by developmental changes)
(1) इस अवस्था में किशोर तनाव, अन्तर्द्धन्द्ध एवं संघर्ष में रहता है, अतः जीवन लक्ष्यों की प्राप्ति करने की दृष्टि से उसे निर्देशन / मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। किशोर की रुचि, क्षमता एवं सुविधाओं को ध्यान में रखकर उसे व्यक्तिगत रूप से निर्देशित किया जाना चाहिए।
(2) शिक्षकों, माता-पिता एवं अभिभावकों को चाहिए कि वे किशोर के साथ उपर्युक्त ढंग से समायोजन करें। इस अवस्था में किशोर की निराशा, तनाव, अन्तर्द्वन्द्व, काम वासना आदि उसमें अपराधी प्रवृत्ति को जन्म देते हैं, अतः उसका निराकरण होना आवश्यकरहता है।
(3) यह विकास की सबसे कठिन एवं संवेदनशील अवस्था है। किशोर चाहता है कि उसे भी सामाजिक मान्यता प्राप्त हो । अतः उसके साथ प्रौढ़ व्यक्ति के समान व्यवहार किया जाना चाहिए। किशोर के विभिन्न क्रिया कलापों तथा उसके निर्णयों को भी मान्यता प्रदान की जानी चाहिए।
(4) इस अवस्था में किशोर के मन-मस्तिष्क में एक अजीब सा द्वन्द्व पाया जाता है फलतः वह शीघ्र ही उचित निर्णय नहीं ले पाता है, अतः शिक्षक अभिभावक एवं माता-पिता के लिए आवश्यक है कि वे किशोर को उचित मार्गदर्शक एवं परामर्श देकर उसकी समस्याओं का समाधान करें।
(5) वर्तमान भारतीय समाज में परम्परागत संयुक्त परिवारों के टूटने और रूढ़िवादिता के कारण विभिन्न पारिवारिक समस्याएँ बढ़ रही हैं। इनका प्रभाव किशोरों पर भी पड़ता है। अतः परिवार की परिस्थितियां के कारण भी निर्देशन देना आवश्यक है
(6) किशोरावस्था में किशोर यह निर्णय नहीं ले पाता कि वह अपनी आजीविका हेतु किस व्यवसाय का चयन करें, किस प्रकार चयनित व्यवसाय के लिए तैयारी करे, किस प्रकार इस व्यवसाय को ग्रहण करे और किस तरह व्यवसाय में आने वाली समस्याओं / कठिनाइयों/ बाधाओं को दूर करके उन्नति कर सके। इनका समस्या निर्देशन / मार्गदर्शन द्वारा किया जा सकता है।
(7) विद्यालय में कुछ पिछड़े हुए, विकलांग, समस्याओं एवं मंद बुद्धि बालक आते हैं। ऐसे बालकों की अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयाँ / समस्याएँ होती हैं फलस्वरूप व कक्षा स्तर पर समायोजित नहीं हो पाते। इसके लिए भी निर्देशन की आवश्यकता उत्पन्न होती है।
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