पाठ्यक्रम के प्रमुख आधार (Various Basis of Curriculum)
पाठ्यक्रम हेतु एक आधार की प्रमुख आवश्यकता है। पाठ्यक्रम के विभिन्न आधार (Basis) माने जाते हैं। इन आधारों के विषय में रस्क (Rusk) महोदय द्वारा कहा गया है। “पाठ्यक्रम का संगठन जितना दर्शन पर आधारित होता है, उतना शिक्षा का कोई अन्य पहलू नहीं है। शिक्षा सम्बन्धित मुख्यतः तीनों दर्शन-आदर्शवाद, प्रकृतिवाद तथा प्रयोजनवाद इस विचार पर सहमत है कि बच्चों के अपेक्षित अनुभवों के साधन जुटाए जाने चाहिए, परन्तु तीनों विचारधाराएँ इस पर एकमत नहीं हैं कि बच्चों को किस प्रकार का तथा किस प्रकार से अनुभव करवाया जाए।”
पाठ्यक्रम के आधार को निम्न रेखाचित्र के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है-
प्रस्तुत संदर्भ में हम दार्शनिक अधिकारों की व्याख्या करेंगे। दार्शनिक आधार इसके अन्तर्गत निम्न हैं- (1) आदर्शवाद, (2) प्रकृतिवाद, (3) प्रयोजनवाद, (4) यथार्थवाद ।
(1) दार्शनिक आधार (Philosophical basis)- दर्शन पाठ्यक्रम का एक मुख्य आधार माना जाता है। शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। दर्शन के द्वारा ही शिक्षा के विभिन्न उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव है। अतः पाठ्यक्रम से सम्बन्धित समस्या एक दार्शनिक समस्या मानी जाती है। पाठ्यक्रम विभिन्न रूप से विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं के अनुरूप निर्धारित किए जाते हैं। विभिन्न दार्शनिक विचारों को निम्न प्रकार स्पष्ट कर सकते हैं-
(i) आदर्शवाद (Idealism)
आदर्शवाद एक ऐसा दर्शन है जिसके कारण पाठ्यक्रम में साहित्य, संगीत, इतिहास, कला, भाषा इत्यादि को प्रमुखता प्रदान किया जाता है। आदर्शवादी विचारधारा में विभिन्न शाश्वत् मूल्यों तथा आदर्शों पर बल प्रदान किया जाता है। इसलिए आदर्शवादी पाठ्यक्रम का मुख्य आधार मानव के विचारों अथवा आदर्शों को प्रमुख मानता है। आदर्शवाद के मुख्य प्रतिनिधि विचारक प्लेटो, हीगल, फिच, सुकरात, ह्यूम, काण्ट, रॉस एवं डी. पी. नन हैं।
इसमें पाठ्यक्रम से सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं का समाधान आदर्शवादी विचारों के अनुसार किया जाना सम्भव है। नन (Nunn) के द्वारा भी ऐसे ही कार्यक्रम विद्यालय में रखने पर जोर दिया गया है। Nunn के द्वारा चलाए गए कार्यक्रमों को दो भागों में विभाजित किया गया है
(1) इसमें विभिन्न कार्यक्रम जिनके द्वारा सभ्यता का प्रतिनिधित्व किया जा सके; जैसे साहित्य, विज्ञान, गणित, भूगोल, इतिहास अथवा कला से सम्बन्धित कार्यक्रम शामिल है।
(2) इसमें उन्हें शामिल किया गया है जो कार्यक्रम सामाजिक तथा व्यक्तिगत जीवन के स्तर को बनाए रखने के लिए अनिवार्य माना गया है। जैसे-स्वास्थ्यरक्षा, शिष्टाचार, सामाजिक संगठन व धर्म इत्यादि।
रॉस (Ross) के द्वारा पाठ्यक्रम के अन्तर्गत दो प्रकार की क्रियाओं को सम्मिलित किया गया है- (1) शारीरिक (Physical) (2) आध्यात्मिक (Spiritual), इन दोनों क्रियाओं के अनुसार पाठ्यक्रम निम्न प्रकार का होना चाहिए।
मानवीय क्रियाएँ एवं सम्बन्धित विषय (Human Activities and Related Subject)
मानवीय क्रियाओं से सम्बन्धित विषय निम्न हैं-
(I) शारीरिक क्रियाएँ (Human Activites )
1. स्वास्थ्य विज्ञान (Care of body) |
2. शारीरिक कुशलताएँ (Bodily skills) । 3. व्यायाम (Gymnastics) |
(II) आध्यात्मिक क्रियाएँ (Spirtual Activites )
(1) मानसिक क्रियाएँ (Intellectual Activities)- इसमें भाषा, इतिहास व भूगोल, साहित्य, गणित, विज्ञान आदि सम्मिलित हैं।
(2) नैतिक व धार्मिक क्रियाएँ (Moral and Religions Activities) – इसके अन्तर्गत है धर्म आचरणशास्त्र (Ethics) |
(3) सौन्दर्यात्मक क्रियाएँ (Aesthetic Activities)- इसमें विभिन्न ललित कलाएँ प्लेटो (Plato) के द्वारा, मानव के द्वारा उसके जीवन का उद्देश्य अच्छाई अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति है, जिसकी प्राप्ति के लिए पाठ्यक्रम का मुख्य लक्ष्य-सत्यम् शिवम्, सुन्दरम् है। आदर्शवाद के अनुसार तीनों द्वारा आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति की जानी चाहिए। इन तीनों की प्राप्ति गणित, भूगोल, साहित्य, विज्ञान व इतिहास द्वारा की जा सकती है।
(ii) प्रकृतिवाद (Naturalism)
प्रकृतिवादी विचारधारा बालकों को आत्म प्रकाशन (Self-expression) के लिए अनियन्त्रित स्वतन्त्रता देने का समर्थन करता है। प्रकृतिवादी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत व्यायाम, खेलकूद, भूगोल, तैरना, प्रकृति ज्ञान इत्यादि को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया है। प्रकृतिवादी विचारधारा में बालक की वैयक्तिकता (Individual duality) पर पूर्ण बल दिया गया है। शिक्षा के क्षेत्र में प्रकृतिवाद के मुख्य प्रवर्तक रूसो (Rousseau) हैं। रूसो ने कहा है कि मुझे लम्बी-लम्बी व्याख्याओं से घृणा है। छोटे बच्चे प्रत्येक वस्तु को सूक्ष्मता से समझना चाहते हैं। छोटे बच्चों का आकर्षण लम्बी व्याख्याओं पर नहीं होता है तथा वे उन्हें ग्रहण करने में भी असमर्थ होते हैं। यदि बच्चे शिक्षा स्वयं प्रवृत्ति के द्वारा ग्रहण करें तो उसे वह जल्दी ग्रहण कर सकेंगे। रूसो कहते हैं कि कहना न होगा कि हम शब्दाड़म्बर में अत्यधिक विश्वास रखते हैं और (With our chattering education we make nothing but chatters) अपनी बकवादी शिक्षा द्वारा हम बच्चों को बकवादियों के सिवाय कुछ नहीं बता पाते। आगे वे लिखते हैं कि “I hate books, they are a curse to education, they teach us to talk only which we do not know” मुझे पुस्तकों से घृणा है, क्योंकि ये बच्चों के लिए अभिशाप हैं। जो कोई पुस्तक पढ़ाता है वह चिन्तन करने में समर्थ है। इसलिए प्रकृतिवाद बालक को आत्म-प्रकाशन (Self-expression) के लिए अनियमित स्वतन्त्रता देने के समर्थक है जिसके द्वारा बालकों को पाठ्यक्रम से स्वतन्त्रता दिलेवाकर उन्हें बहुत बड़ी समस्या अथवा विपदा से स्वतन्त्र कराया जा सकता है।
(iii) प्रयोजनवाद (Pragmatism)
प्रयोजनवादी दर्शन बालक को शिक्षा का केन्द्र बिन्दु मानता है। इसके साथ-साथ उपयोगिता के सिद्धान्त पर भी बल देती है। प्रयोजनवादी पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की विभिन्न अभिरुचियों (Interest) के अनुसार करते हैं। प्रयोजनवादी पद्धति के मुख्य समर्थक जॉन ड्यूवी (Jon Dewey) हैं। डीवी के अनुसार जिसके द्वारा स्वयं का प्रयोजन सिद्ध होता है, वही सत्य है तथा वही जीवन का निर्माण करता है। इस विचारधारा के अनुसार जिसके द्वारा स्वयं असीम (Absolute values) अलौकिक अथवा वही जीवन का निर्माण करता है। इस प्रयोजनवादी विचारधारा में प्रारम्भिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम का निर्माण जिज्ञासा, कलात्मक अभिव्यक्ति, रचनात्मक अभिरुचि तथा विचारों के आदान-प्रदान के आधार पर किया जाता इस सबके द्वारा बालक अपने भावी जीवन को ड्यूवी द्वारा रुचियों का विभाजन सफलतापूर्वक चलाने के लिए तत्पर होता है।
जॉन ड्यूवी द्वारा बच्चों की रुचियों को चार भागों में विभाजित किया गया है-
(1) सृजनात्मक रुचि
(2) आदान-प्रदान की रुचि
(3) कला अभिव्यक्ति की रुचि
(4) खोज अथवा जिज्ञासा की रुचि
इन रुचियों के कारण बालक पाठ्यक्रम में कलन, भाषा, गणित, काष्ठकला, कताई-बुनाई, सामाजिक क्रियाएँ, व्यवसाय इत्यादि का स्थान महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है। प्रयोजनवाद के अनुसार पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों का निर्धारण वास्तविक जीवन की विभिन्न क्रियाओं द्वारा निर्धारित किया जाता
1. पाठ्यक्रम, समन्वय (Integration) के सिद्धान्तों पर निर्मित किया जाना चाहिए।
2. पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ऐसे विषयों को स्थान दिया जाता है जिसके द्वारा बच्चों को इस प्रकार शिक्षित किया जा सके या उन्हें निपुण बनायें जिससे वह स्वयं के भावी जीवन में सफलता प्राप्त कर सकें।
3. बालकों की स्वयं के अनुभवों, उनके द्वारा किए गए कार्य अथवा उनकी क्रियाशीलता को ही पाठ्यक्रम का आधार बनाया जाता है।
4. पाठ्यक्रम का आधार बच्चों की रुचियों अथवा उनके उत्तरोत्तर विकास के अनुकूल होना चाहिए।
(iv) यथार्थवाद
याथार्थवाद व्यावहारिकता से सम्बन्धित हैं। यथार्थवादी विचाधारा के अनुसार जीवन की व्यावहारिकता पर बल दिया जाता है। इस विचारधारा के द्वारा पाठ्यक्रम के लिए महत्त्वपूर्ण आधार प्रदान किया जाता है। यथार्थवादी पाठ्यक्रम में उन विशेष क्रियाओं को स्थान प्रदान किया जाता है, जिनके द्वारा जीवन की वास्तविक परिस्थितियों का ज्ञान प्राप्त हो। यह वास्तविकता का दर्शन है।
(II) सामाजिक आधार (Sociological basis)- वर्गीकरण में यह आधार दूसरे स्थान पर है। सामाजिक आधार के अनुसार पाठ्यक्रम में इतिहास, समाजशास्त्र, भाषा, साहित्य, नीतिशास्त्र आदि को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है। सामाजिक आधार में उन सभी विषयों अथवा क्रियाओं को सम्मिलित किया गया है। इसके ऐसे विषय को स्थान प्रदान किया जाता है जिनमें छात्रों में सामाजिकता की भावना का विकास हो सके।
(III) मनोवैज्ञानिक आधार (Psychological basis)- मनोवैज्ञानिक आधार ने बालकों की स्वाभाविक प्रवृत्तियों, क्षमताओं, रुचियों के विकास, योग्यताओं अथवा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाता है अर्थात् मनोवैज्ञानिक आधार में बालक केन्द्रित पाठ्यक्रम का निर्धारण किया जाता है, जिसमें बालकों की रुचियों को भी ध्यान रखा जाए, जिससे बालक रुचिपूर्ण क्रियाएँ सम्पूर्ण कर सके।
(IV) वैज्ञानिक आधार (Scientific basis)- वैज्ञानिक आधार विषयों को वैज्ञानिक के आधार पर पाठ्यक्रम में सम्मिलित करता है। वैज्ञानिक आधार के पाठ्यक्रम निर्माण में वैज्ञानिक विषयों को महत्त्व प्रदान करके पाठ्यक्रम निर्माण में वैज्ञानिक विषयों को महत्त्व प्रदान किया गया है। इस प्रकार शिक्षा में विज्ञान केन्द्रित पाठ्यक्रम पर जोर दिया गया है। विज्ञान के विकास ने शिक्षा के पाठ्यक्रम के निर्माण के लिए जो आधार प्रदान किया है वह बहुत ही लाभदायक है। वर्तमान समय में इस आधार की महत्ता सर्वोपरि है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पाठ्यक्रमों का निर्माण करने में उपरोक्त दर्शनों को ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण है। विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास करने के लिए इन दर्शनों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए। केवल एक ही पक्ष पर ध्यान देने से बालक का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता है।
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