मुद्रित साधन तथा अमुद्रित साधनों की उपयोगिता
मुदित साधन ( Print Media in Hindi )
पाठ्यपुस्तक ( Text Book)- शिक्षण सामग्री में सर्वप्रमुख स्थान पाठ्य पुस्तक को प्राप्त है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में पाठ्य पुस्तक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। पाठ्य पुस्तक के द्वारा छात्र विषय-वस्तु को एकत्रित, संगठित व्यवस्थित कर सुगम बनाता है। पाठ्य पुस्तक के बाहर अध्यापक नही पढ़ाते है। इसकी सहायता से पाठ्यक्रम एवं पाठ योजना का ज्ञान होता है। इसके अलावा पुस्तकें संचित ज्ञान का भण्डार है। इसके द्वारा छात्रों को विभिन्न लेखकों के विचारों को स्पष्ट ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
पाठ्यपुस्तकों की आवश्यकता
(i) भारत में वर्तमान युग में योग्य एवं प्रशिक्षित अध्यापकों का अभाव है। शिक्षकों को अपने विषय का भी पर्याप्त ज्ञान नही है। अध्यापक अपनी इस कमजोरी को पाठ्यपुस्तकों के अध्ययन से दूर करते है।
(ii) पुस्तकें पठन योग्य सामग्री को अत्यन्त मनोवैज्ञानिक रूप से प्रस्तुत करती है इस प्रकार ये छात्र एंव अध्यापक दोनों के समय की बचत करते है।
(iii) पुस्तक लेखक छात्रों के सीमित ज्ञान को आधार बनाकर पुस्तक लिखता है। इसलिये अपनी भाषा शैली में वह सरल भाषा का प्रयोग करता है।
(iv) भारत एक निर्धन देश है। अधिकांश स्कूलों की आर्थिक अवस्था दयनीय होने के कारण पुस्तकालयों का स्कूलों में अभाव है। अतः जहाँ पर पुस्तकालय है, वहाँ पर उचित पुस्तकों का अभाव है।
पाठ्य-पुस्तक चुनाव के सिद्धान्त
(1) लेखक- पुस्तक का चुनाव करते समय सर्वप्रथम उसके लेखक का ध्यान रखना चाहिये। लेखक के ज्ञान, अनुभव एंव प्रस्तुतिकला इत्यादि का प्रभाव पुस्तक पर पड़ता है।
(2) भाषा-शैली- पुस्तक जिसका चयन किया जायें, भाषा सरल स्पष्ट तथा स्तर के अनुकूल होनी चाहिए। पुस्तक में मुख्य स्थान विषय-वस्तु को दिया जाए न कि भाषा को ।
(3) पाठ्यपुस्तक का स्तर- पाठ्यपुस्तक के स्तर का ध्यान चुनाव करते समय अवश्य रखना चाहिए। पाठ्यपुस्तक अमुक कक्षा के लिए उचित है या नहीं इस बात को कभी भी भुलाया नही जा सकता है। पुस्तक छात्रों के मानसिक स्तर को ध्यान में रखकर लिखी गई है। या नही।
(4) गेट-अप- गेट-अप से तात्पर्य पुस्तक की बाहरी बनावट से है। पुस्तक का बाह्य रूप आकर्षक तथा विषय-वस्तु से सम्बन्धित होना चाहिए। अमेरिकन पुस्तकों का कागज प्राय: इतना चमकीला होता है कि रात को पढ़ने में असुविधा होती है। अतः कागज ऐसा न हो।
(5) विषय वस्तु – पुस्तक की विषय वस्तु पूर्ण होनी चाहिए। उसे छात्रों की समस्त आवश्यकताओं को पूरा करना चाहिए, पुस्तक पढ़ने के बाद छात्रों को अन्य पुस्तकों के अध्ययन करने की आवश्यकता नही होनी चाहिये। विषय वस्तु के हिसाब से पुस्तक अपने में पूर्ण होनी चाहिए।
(6) विचार धाराएँ- पुस्तक आधुनिक विचारधाराओं तथा सिद्धान्तों के अनुसार लिखी होनी चाहिए। लेखक को वर्तमान मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए पुस्तक की रचना की जानी चाहिये।
पुस्तकों के देयनीय स्तर के कारण पुस्तकों की दशा अत्यन्त खराब होने के कारण निम्न है-
(a) पुस्तके राज्य आधार पर प्रान्तीय भाषा में प्रस्तुत की जाती है, इससे उन्हें अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ता।
(b) लेखक अपनी योग्यता पर ध्यान न देते हुए चार-छ: पुस्तकों को मिलाकर उनका सारांश लिख देते है और इस प्रकार नवीन पुस्तक की रचना हो जाती है, इस प्रकार के कार्य में विभिन्न पुस्तकों में प्रस्तुत सामग्री को अपनी पुस्तक में संगठित कर प्रस्तुत नही कर पाते है।
(c) कुछ दिनों से पुस्तक व्यापार क्षेत्र में नये-नये प्रकाशको ने प्रवेश किया है। ये प्रकाशन नये है अधिक से अधिक पुस्तको को कम से कम समय में प्रकाशित कर देना चाहते है। फलतः प्रकाशन सम्बन्धी त्रुटियाँ पुस्तकों में देखी जाती है।
(d) प्रकाशन अधिक से अधिक पैसा कमाने की दृष्टि से मूल्य अधिक रखते है। कागज खराब लगाते है। लेखको को कम पैसा देते है। फलतः पुस्तको का स्तर नीचा होता है।
पठन पुस्तकों के लाभ
(i) विषय के ज्ञान में वृद्धि होती है।
(ii) पठन-साहित्य विषय के सम्बन्ध में आधुनिकतम ज्ञान प्रदान करता है।
(iii) पठन-पुस्तकें विषय के ज्ञान को गम्भीर तथा गहन बनाती है।
(iv) पठन-पुस्तकें विषय में छात्र की रूचि पैदा करती है।
(v) पठन-पुस्तकें हमारी तर्क-शक्ति का विकास करती है।
(vi) पठन-पुस्तकों से शब्द भण्डार में वृद्धि होती है।
(vii) पठन-पुस्तकों के अध्ययन से छात्रों में आत्मभिव्यक्ति का विकास होता है।
अमुदित साधन (Non-Print Media in Hindi )
अमुद्रित साधन वे है, जिन्हें किसी मुद्राणालय में मुद्रित नहीं कराया जाता वरन् हाथ से तैयार किया जाता है, जैसे- चार्ट, मानचित्र, ग्लोब, भ्रमण, सर्वेक्षण आदि।
(1) श्यामपट्टः- श्यामपट्ट को हम परम्परागत सहायक सामग्री के अन्तर्गत इसलिए सम्मिलित करते है क्योंकि यह परम्परागत समय से शिक्षा के क्षेत्र में प्रयुक्त होता हुआ रहा है। इसको परम्परागत इसलिए कहते है क्योंकि यह परम्परागत विद्यालयों में प्रचलित है। इसको तो हम सभी प्रगतिशील विद्यालयों की सभी कक्षाओं में काले गहरे, हरे तथा नीले रंग में पाये है।
(2) चित्र:- शिक्षण में चित्र अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान रखते है। चित्र छात्रों के सम्मुख विषय वस्तु को वास्तविक रूप से प्रस्तुत करने की चेष्ठा करते है, इस प्रकार चित्र विषय वस्तु को यथार्थ बनाने की चेष्ठा करते है। शिक्षक उपयोगी चित्रों को समाचार-पत्र, पत्रिकाओं, साप्ताहिक पत्रों आदि से प्राप्त कर सकता है। इसका उपयोग करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए।
(a) विषय वस्तु से सम्बन्धित चित्र होना चाहिए।
(b) चित्र आकर्षक हो।
(c) चित्र सादा होना चाहिए।
(d) चित्र यथार्थ पर आधारित हो।
(e) चित्र अपने उद्देश्य से सम्बन्धित हो ।
( 3 ) रेखाचित्र तथा रेखाकृति:- शिक्षण तथा रेखाकृतियों को बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। शिक्षक इनकी सहायता से शिक्षण से सम्बन्धित विविध विषय वस्तु जैसे प्राकृतिक वनस्पति, मिट्टी, सिंचाई के साधन कृषि आदि को अत्यन्त सफलता से पढ़ा सकता है। रेखाचित्र का सबसे बड़ा गुण है कि आवश्यकता पड़ने पर कक्षा में ही श्यामपट्ट पर निर्माण कर सकता है
(4) चार्ट एवं ग्राफ:- चार्ट एंव ग्राफ का प्रयोग उच्च कक्षाओं में किया जाता है। छोटी कक्षाओं में इनका उपयोग उपयुक्त नहीं है। चार्ट एंव ग्राफ के द्वारा संख्यात्मक तथ्यों को बड़ी सरलता से संक्षिप्त रूप से स्पष्ट किया जा सकता है।
( 5 ) प्रारूप तथा नमूने:- वास्तविक शत्-प्रतिशत वास्तविक होती है। जहाँ तक सम्भव हो कक्षा में वास्तविक वस्तुओं द्वारा ज्ञान प्रदान किया जाए, किंतु किन्ही कारणों से वास्तविक वस्तुएँ प्रस्तुत नही की जा सकती है या उनको प्रस्तुत करना उचित नही रहता है। उदाहरण के लिए लौह उद्योग पढ़ाते समय दुर्गापुर, राउरकेला या भिलाई के कारखानों को वास्तविक रूप से कक्षा में नहीं लाया जा सकता है। इन अवस्थाओं का ज्ञान चित्र या प्रारूप के द्वारा सफलतापूर्वक दिया जा सकता है।
(6) मानचित्र तथा ग्लोब:- शिक्षण में मानचित्र तथा ग्लोब दोनो का ही बड़ा महत्व है। मानचित्र तथा ग्लोब का प्रयोग विभिन्न स्थलों की स्थिति का ज्ञान प्रदान करने हेतु किया जा सकता है। शिक्षण में ग्लोब को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। ग्लोब की सहायता से पृथ्वी की रूपरेखा, उसकी स्थिति, उसकी गति, आदि बातों को बड़े सरल ढंग से बताया जा सकता है।
विद्युत संसाधन- श्रृव्य सामग्री वे सहायक सामग्रियाँ है, जिनको सुनकर छात्र कुछ सीखते है। इनका सुनाना महत्वपूर्ण होता है। उदाहरण के आधार पर हैं-
(1) विडियो, ग्रामोफोन तथा टेपरिकॉर्डर-इसके प्रयोग से अग्रलिखित लाभ है-
(i) पाठ्यपुस्तकों की कमियों को दूर कर सकते है।
(ii) छात्र तथा शिक्षक दोनो के दृष्टिकोण को व्यापक बनाते है।
(iii) एक ही समय में बड़े समुदाय का शिक्षण किया जा सकता है।
(iv) टेपरिकॉर्डर की सहायता से रिकॉर्ड करके भविष्य के लिए संचित किया जा सकता है।
(v) रेडियों कार्यक्रम रोचक तथा प्रभावोत्पाकद होते हैं।
( 2 ) चलचित्र – श्रव्य-दृश्य सामग्री वह सामग्री है, जिसका देखना तथा सुनना दोनों ही महत्वपूर्ण है इस प्रकार की सहायक सामग्री में हम टेलीविजन तथा चल-चित्रों के द्वारा अपने छात्रों को अनेक ऐसी वस्तुओं का ज्ञान स्थूल रूप से प्रदान कर सकते हैं, जिनका ज्ञान अन्य साधनो में कभी भी नही दिया जा सकता है। चलचित्र का प्रयोग करते समय निम्न बातें ध्यान रखनी चाहिए।
(i) चलचित्र सुखान्त हो ।
(ii) छात्रों को बैठने की समुचित व्यवस्था हो ।
(iii) विषय वस्तु से सम्बन्धित हो ।
(iv) चलचित्र उत्सुकता पैदा करने वाला हो।
(v) अन्धकार, प्रकाश, ध्वनि की समुचित व्यवस्था हो ।
दूरदर्शन का शिक्षण- आधुनिक युग में दूरदर्शन का शिक्षण के क्षेत्र में व्यापक प्रयोग हो रहा है। शिक्षण के क्षेत्र में दूरदर्शन का प्रयोग दो रूपो में पाया जाता है। प्रथम रूप में इसका प्रयोग आर्थिक रूप से सम्पन्न विद्यालयों में देखने को मिलता है। जहाँ एक ही विषय की कई कक्षाएँ एक साथ पृथक-पृथक कमरों में चलती है। दूसरे रूप में देश में दूरदर्शन केन्द्र, विद्वान एंव कुशल अध्यापको से पाठ तैयार कराकर उनके वास्तविक शिक्षण को ही एक निश्चत समय पर दूरदर्शन पर प्रसारित करना ।
लाभ-
(1) छात्रों को प्रेरणा प्राप्त होती है।
(2) शिक्षण में सरलता, प्रभावक्ता तथा मनोरंजन आता है।
(3) दूरदर्शन कार्यक्रम उच्चकोटी के विद्वानों द्वारा तैयार करवाया जाता है।
(4) ज्ञान सम्बन्धी विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
(5) बड़ी संख्या में छात्रों को शिक्षण प्रदान किया जाता है तथा समय, श्रम व साधनों की बचत होती है।
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