व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले कारक
व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विकास आनुवंशिकता तथा पर्यावरण से प्रभावित होती है। क्रो और क्रो का कथन है कि “सामाजिक या पर्यावरणीय प्रभावों के साथ जैवकीय कारकों की अंतःक्रिया के परिणामस्वरूप व्यक्तित्व के स्वरूप का विकास होता है। इस प्रकार व्यक्तित्व के निर्धारकों को दो मुख्य वर्गों में रखा गया है-
(क) जैवकीय निर्धारक,
(ख) पर्यावरण संबंधी निर्धारक
निम्नांकित रेखाचित्र द्वारा व्यक्तित्व के निर्धारकों को स्पष्टतापूर्वक समझा जाता है –
(क) जैविकीय निर्धारक (Biological Determinats)
ये जन्मजात होते हैं। इसके अन्तर्गत व्यक्तित्व को प्रभावित करने वाले अग्रलिखित कारक है।
1. वंशानुक्रम – व्यक्तित्व के जैविक निर्धारकों में आनुवंशिकता या वेशानुक्रमण अत्यधिक महत्वपूर्ण है। अनेक अध्ययन इस बात की पुष्टि करते हैं कि व्यक्तित्व का स्वरूप निर्धारण वंशानुक्रमण के प्रभाव से होता है। शेल्डन ने शरीर की बनावट और उससे सम्बन्धित स्वभाव एवं व्यवहार का जो वर्णन किया है, उससे व्यक्तित्व के निर्माण में वंशानुक्रमण का महत्व स्पष्ट हो जाता है। फ्रांसिस गाल्टन ने व्यक्तियों के शरीरिक, मानसिक लक्षणों में भिन्नता का कारण वंशानुक्रमण को ही बतलाया है।
2. अंतः श्रावी ग्रंथियाँ- अंतःश्रावी ग्रन्थियाँ रासायनिक पदार्थों का जिन्हें हारमोन कहते हैं, सीधे रक्तप्रवाह में विसर्जन करती है जिससे रक्त के द्वारा वे पूरे शरीर में पहुँच जाती है अंतः श्रावी ग्रन्थियों से निकले हारमोन प्रत्यक्ष रूप से शरीर की वृद्धि एवं विकास पर प्रभाव डालते हैं। गैरेट के अनुसार ” यह कहना है कि हम अपनी ग्रन्थियों की कठपुतली हैं, सत्य नहीं है किन्तु अंतः श्राव हारमोन निस्संदेह हमारे व्यक्तित्व के कई लक्षणों पर बहुत अधिक प्रभाव डालते हैं। एक या अधिक ग्रन्थियों के कार्य में गड़बड़ी होने पर इनका प्रभाव बड़े नाटकीय रूप में देखा जा सकता है। शरीर में अन्तः श्रावी ग्रन्थियाँ मुख्य रूप से आठ हैं।
1. पिट्यूटरी ग्रंन्थि, 2. गल ग्रन्थि, 3. उपगल ग्रन्थियाँ, 4. लँगर हँस के आइलेट, 5. अधिवृक्क ग्रन्थियाँ, 6 यौन ग्रन्थि, 7. थाइमस ग्रन्थि और पीनियल ग्रन्थि। इन सभी ग्रन्थियों का प्रभाव व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है।
3. तंत्रिका तंत्र- व्यवहार का मूल शारीरिक आधार तंत्रिका तंत्र होता है तंत्रिका तंत्र के सुचारू रूप कार्य करने पर व्यक्ति का मानसिक विकास तथा मानसिक क्रियाओं का संचालन निर्भर होता है इसलिए जिसका तंत्रिका तंत्र जितना अधिक विकसित रहता है उतनी अधिक उसकी मानसिक योग्यताएं भी विकसित रहती हैं।
अतः वह परिख्यिाति को सूक्ष्मता से समझकर उसके अनुरूप समायोजन करने में समर्थ रहता है तंत्रिका तंत्र के पूर्ण विकास के अभाव में व्यक्ति की शारीरिक मानसिक शक्तियों का पूर्ण विकास नहीं हो पाता इसलिए वह कम बुद्धि का होता है ऐसी स्थिति में उसका व्यक्तित्व विकास अवरूद्ध हो जाता है।
4. शारीरिक रचना एवं शारीरिक रसायन- शरीर रचना जैवकीय निर्धारण है दीर्घकाल से यह विश्वास चला आ रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति की शरीर रचना विशेष ढंग की होती है जिसमें व्यक्तित्व के निरिचित लक्षण पाये जाते हैं। शारीरिक रचना के अन्तर्गत शरीर के अंगों का पारस्परिक अनुपात शरीर की लम्बाई और भार, नेत्रों और बालों का रंग, मुखाकृति आदि आते हैं।
शरीर में रासायनिक तत्वों की अधिकता या न्यूनता का प्रभाव व्यक्ति के व्यक्तित्व पर विशेष रूप से पड़ता है। रक्त की अधिकता व्यक्ति को आशावादी। पित्त का आधिक्य व्यक्ति को चिड़चिड़ा और कफ की अधिकता व्यक्ति को शान्त स्वभाव का बना देती है। अधिकतर रासायनिक पदार्थों का निर्माण शरीर के भीतर भोजन के आधार पर होता है। कुछ रासायनिक तत्व शरीर में बाहर से पहुँचते है जैसे- शराब, गाँजा, भांग इत्यादि।
5. अन्य जैवकीय कारक – व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करने वाले अन्य जैवकीय कारक मुख्य है लिंग भेद, बुद्धि, स्वभाव, संवेग, मूल प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ और विशिष्ट अभियोग्यताएं। लड़के एवं लड़कियों में लिंग भेद के कारण व्यक्तित्व के गुणों में अन्तर पाया जाता है। बुद्धि जन्मजात होती है। विभिन्न बुद्धि के स्तर के लोग जैसे प्रतिभावान, सामान्य या जड़मति व्यक्तित्व की दृष्टि से भिन्न होते हैं।
(ख.) पर्यावरण संबंधी निर्धारक
व्यक्तित्व विकास पर पर्यावरण के प्रभाव को मनोवैज्ञानिक अनेक अध्ययनों के आधार पर सिद्ध कर चुके हैं। व्यक्तित्व के पर्यावरण सम्बन्धी निर्धारक मुख्यतः तीन प्रकार के माने जाते हैं.
1. प्राकृतिक पर्यावरण, 2. सामाजिक पर्यावरण, 3. सांस्कृतिक पर्यावरण
1. प्राकृतिक पर्यावरण- अन्य प्राणियों के समान ही व्यक्ति भी अपने प्राकृतिक पर्यावरण
की उपज है। किसी स्थान की स्थिति, भूरचना, जलवायु, प्राकृतिक संसाधनों आदि का प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक गठन, रंग, प्रकृति, आदत और उद्यम पर निश्चित रूप से पड़ता है। ठंडे और गर्म, पर्वतीय और मैदानी समुद्र से दूर और पास रहने वाले लोगों का रहन सहन बिल्कुल भिन्न हुआ करता है। चीनियों का ठिगना कद, अंग्रेजों का श्वेत वर्ण, पंजाबियों का बलिष्ठ शरीर, आदिवासियों का संकुचित जीवन, दक्षिण भारतीयों का कृष्ण वर्ण, प्राकृतिक पर्यावरण की देन है। ठंडे देशों के लोगों में गर्म देशों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा परिश्रम और कार्यक्षमता की मात्रा अधिक होती है।
2. सामाजिक पर्यावरण- सामाजिक प्राणी होने के कारण व्यक्ति का समाज से अविछिन्न सम्बन्ध है। विद्वानों के अनुसार जननिक वंशानुक्रमण से कहीं अधिक महत्व व्यक्ति के सामाजिकता का है। बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का निर्माण समाज के ही भीतर होता है जिसमें वह रहता है। सामाजिक पर्यावरण का क्षेत्र काफी विस्तृत है। इसके अन्तर्गत निम्नलिखित कारक विशेष महत्व रखते हैं
(क) घर- बालक के व्यक्तित्व की आधारशीला का आधार उसका वह घर और परिवार होता है जिसमें वह जन्म लेता है। घर में बालक के साथ पिता और अन्य बड़े लोगों का व्यवहार बालक के व्यक्तित्व विकास पर काफी प्रभाव डालती है। माता पिता द्वारा बालक को मिलने वाला वांछित स्नेह, निर्देशन, सही प्रशिक्षण, स्वस्थ विचारो, सही आदतो और रूचि प्रतिमानों को विकसित करता है।
(ख) पास-पड़ोस विद्यालय जाने से पूर्व वर्षों में बच्चे का समय घर और पड़ोस में ही व्यतीत होता है। इस समय यह अधिक महत्व रखता है कि बच्चा किस प्रकार के बच्चों के साथ खेलता है, किन परिवारों में आता जाता है और कौन लोग उसके साथ कैसा व्यवहार करते हैं। इन सभी का सम्मिलित प्रभाव बालक के व्यक्तित्व विकास पर पड़ता है बालक का सभ्य परिवारों के बच्चों के साथ ही मिलना जुलना उसमें आत्मगौरव, आत्मविश्वास, सामाजिकता, – मित्रता, मिलनसारिता आदि अनेक गुणों का विकास होता है।
(ग) विद्यालय- व्यक्तित्व विकास के पर्यावरण सम्बन्धी निर्धारकों में घर के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक विद्यालय है। विद्यालय को समाज की लघु रूप माना जाता है। किसी भी देश के भविष्य का निर्माण विद्यालयों से ही होता है। निर्माण की प्रक्रिया इस बात पर निर्भर करती है। अधिक से अधिक अधिगम करके छात्र अपने व्यक्तित्व का सर्वतोमुखी विकास किस सीमा तक कर पाते हैं।
(घ) मंनोरंजन के साधन मनोरंजन के साधनों का प्रभाव भी बालक के व्यक्तित्व – विकास पर पड़ता है। मनोरंजन के साधनों की आवश्यकता उस समय होती है जब बालक के समक्ष खाली समय व्यतीत करने की समस्या होती है। विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के अतिरिक्त रेडियो, दूरदर्शन, चलचित्र आदि के द्वारा बालकों के व्यक्तित्व विकास में काफी सहायता मिलती है। प्रेरणादायी कार्यक्रम बहुत शीघ्र बालकों के व्यक्तित्व पर प्रभाव डालते हैं।
(ङ) मनोवैज्ञानिक कारक- घर से लेकर विद्यालय तक विस्तृत समाज में कुछ ऐसे कारक होते हैं। जो बालक के व्यक्तित्व पर मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रभाव डालते हैं। उदाहरणस्वरूप- जिन बालकों को घर व विद्यालय में उनके अच्छे कार्यों के लिए पुरस्कृत और प्रशंसित किया है जाता है तथा गलत एवं अनुचित कार्यों के लिए आवश्यक निर्देश दिया जाता है, उनमें व्यक्तित्व के धनात्मक गुणों का विकास होता है उसके विपरीत जिन्हें बराबर दण्डित और निन्दा का ही पात्र समझा जाता है, उनका व्यक्तित्व भावनात्मक ग्रन्थियों का शिकार हो जाता है। इन कारकों को मनोवैज्ञानिक कारक कह सकते हैं। इनमें मुख्य हैं –
1. प्रशंसा एवं निन्दा, 2. सहयोग और संघर्ष, 3. आत्मसम्मान एवं आत्मदैन्य, 4. समायोजन एवं आत्मसात, 5. पुरस्कार एवं दण्ड, 6. स्थायी भाव एवं आदर्श निर्माण।
3. सांस्कृतिक पर्यावरण – इस समय संस्कृति एवं व्यक्तित्व के अध्ययन पर विशेष बल दिया जा रहा है क्योंकि व्यक्तित्व संस्कृति से भी प्रभावित होता है। आजकल अधिकतर मनोवैज्ञानिक भी यह मानने लगे है कि संस्कृति एवं व्यक्तित्व दो भिन्न वस्तुएं न होकर एक हैं। व्यक्तित्व और संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान हमें व्यक्ति के व्यवहारों, आदतों द्वारा सरलता से होता है। किसी भी देश में संस्कृति में कुछ ऐसे तत्व की प्रधानता होती है जिन्हें उस देश के नागरिकों में ढूढाँ जा सकता है। संस्कृतियों के विभिन्नता के कारण ही व्यक्तित्व विभिन्न प्रकार के होत हैं। इसलिए जापान की संस्कृति में जापानी और भारत की संस्कृति में भारतीय व्यक्तित्व का विकास होता है।
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