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विकास का अर्थ | विकास में परिवर्तन | विकास की अवस्थाएँ | विकास की विशेषताएं

विकास का अर्थ
विकास का अर्थ

विकास का अर्थ (Meaning of Development) 

विकास का अर्थ है ‘बढ़ना’। यह समग्र, क्रमिक, एवं प्रगतिशील होता है। इससे परिपक्वता की प्राप्ति होती है। इस प्रकार विकास उन प्रगतिशील परिवर्तनों को कहते हैं जिनका प्रारम्भ नियमित एवं क्रमिक होता है तथा परिपक्वता प्राप्ति की ओर निर्देशित रहता है। प्रायः देखने में आता है कि शारीरिक एवं मानसिक रचना में परिवर्तन के कारण उसकी विभिन्न अवस्थाओं में नये नये गुणों का अविर्भा और पुरानी विशेषताओं का लोप होता रहता है। व्यक्ति को जीवित और सक्रिय बने रहने के लिए ये परिवर्तन आवश्यक हैं क्योंकि जीवन का अर्थ है ‘अविरल परिवर्तन’। इन्हीं शारीरिक और मानसिक परिवर्तनों, गुणों तथा विशेषताओं की नियमित और क्रमिक उत्पत्ति को मनोवैज्ञानिक भाषा में विकास कहा जाता है और निहित क्षमताओं को साकार करने की प्रक्रिया ही विकासात्मक प्रक्रिया है।

विकास का अर्थ स्पष्ट करते हुए स्कीनर ने कहा है कि “विकास नियमित और क्रमिक प्रक्रिया है”। ई० बी० हरलॉक ने विकास को परिभाषित करते हुए लिखा है कि, “विकास नियमित और क्रमबद्ध रूप में परिवर्तनों के प्रगतिशील क्रम को व्यक्त करता है। इसे कार्य हेतु अधिकाधिक सुविधा प्रदान करने के लिए क्षमताओं को प्रकट करने और विस्तृत करने के रूप में परिभाषित किया जा सकता है” स्पष्ट है कि विकास परिवर्तनों की प्रक्रिया है और इसके फलस्वरूप ही व्यक्ति के भीतर नयी नयी विशेषताओं और क्षमताओं का जन्म होता है।

विकास में परिवर्तन

निरन्तर चलने वाली विकास प्रक्रिया के कारण शारीरिक और मानसिक दोनों ही क्षेत्रों में परिवर्तन होते हैं। ये परिवर्तन मुख्यतः चार प्रकार के हैं –

1. आकार में परिवर्तन-आयु वृद्धि के साथ ही साथ बालक के शारीरिक और मानसिक क्रियाओं के आकार में परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। नवजात शिशु के हाथ, पैर, पेट पीठ और सिर के आकार में परिवर्तन प्रतिमाह होता है। शारीरिक परिवर्तन के कारण उसकी ऊँचाई, भार में भी परिवर्तन होता है। बाहृय अंगों के समान ही आन्तरिक अवयवों जैसे हृदय, फ़फड़े और अंतड़ियों के आकार में परिवर्तन होता है। आयुवृद्धि के साथ ही साथ बालक के शब्द, ज्ञान, बुद्धि, स्मरण शक्ति आदि में भी विस्तार होता जाता है।

2. अनुपात में परिवर्तन- बालक के शारीरिक अंगों में वृद्धि आनुपातिक होती है अर्थात् सभी अंग और भाग समान गति से विकसित नहीं होते। जब तक बालक तेरह वर्ष का नहीं हो जाता है तब तक उसके शरीर का परिणाम बड़ों के समान नहीं होता। बालकों तथा वयस्कों के मानसिक विकास के अनुपात में भी परिवर्तन होता है। पहले बालक आत्मकेन्द्रित होता है किन्तु बाद में वह किशोर होने पर विषमलिंगियों में अपनी रूचि प्रदर्शित करता है।

3. पुरानी आकृतियों का लोप- बालकों के विकास के साथ-साथ उसके कुछ प्राचीन चिन्हों का लोप हो जाता है। लुप्त हो जाने वाली शारीरिक आकृतियों में मुख्य हैं – थाइमस ग्रन्थि, पीनियल ग्रन्थि, बचपन के दाँत तथा बचपन के बाल इसी प्रकार विकसित होने पर वह तुतलाना तथा अन्य बाल सुलभ बोलने का ढंग छोड़ देता है।

4.. नयी आकृतियों की प्राप्ति- बाल्यावस्था के अनेक शारीरिक तथा मानसिक चिन्हों का लोप होने पर अनेक नवीन शारीरिक तथा मानसिक चिन्ह प्रकट होते हैं। इनमें कुछ तो अर्जित होते हैं और कुछ परिपक्वता के कारण स्पष्ट होते हैं। शारीरिक नये चिन्हों में स्थायी दाँत दाढ़ी मूंछ का उगना, आवाज का भारी होना तथा जननेन्द्रीय का पूर्णतः परिपक्व होना आदि – मुख्य हैं। अर्जित मानसिक आकृतियों के अंतर्गत लैंगिक विषयों के प्रति जिज्ञासा, नैतिक नियम, धार्मिक मान्यताओं तथा विभिन्न प्रकार की भाषाओं इत्यादि की प्रधानता है।

विकास की अवस्थाएँ ( Stages of Development) 

विकास की श्रेणियों को मुख्यतः पाँच अवस्थाओं में वगीकृत किया जा सकता है-

1. गर्भावस्था (Pre-natal Period) – यह गर्भाधान से लेकर जन्म होने तक की अवस्था है। यह अवधि 9 महीने अथवा 280 दिन की होती है। इस अवस्था में जीव के विकास की गति बड़ी तीब्र होती है। वह एक सूक्ष्म जैविक इकाई से बढ़कर प्रायः 6 से 8 पौंड का हो जाता है और लम्बाई लगभग 20इंच हो जाती है। इस अवधि में जीव की शारीरिक रचना तीब्रता से बढ़ती है।

2. शैशवास्था (Infancy) – जन्म से लेकर छह वर्ष की अवस्था को ही शैशवावस्था कहते हैं। जन्म के समय बच्चे को नवजात शिशु कहते हैं। जन्म के बाद 10- 14 दिन तक बच्चे में कोई विकास नहीं होता है क्योंकि इस समय वह नये वातावरण से अपने को अभियोजित करने में व्यस्त रहता है। इस अवस्था में बच्चा नितांत असहाय होता है। उसकी आवश्यकताएं बढ़ती जाती है और उसमें शक्ति का सर्वथा अभाव रहता है इसलिए उसे अनिवार्यतः दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। धीरे धीरे बच्चा अपनी मांसपेशियों को नियंत्रित करना सीख लेता है और अपने खाने – पीने, चलने फिरने, बात चीत करने तथा खेलने योग्य हो जाता है। 3 वर्ष या 4 वर्ष का होने पर बहुत से बच्चे पूर्व प्राथमिक विद्यालयों में जाने लगते हैं।

3. बाल्यावस्था (Childhood ) – इसके अन्तर्गत 6 वर्ष से लेकर 12 वर्ष की अवस्था तक का काल आता है। विकास के इस चरण में बालक अपने वातावरण पर व्यापक रूप से नियंत्रण करता चला जाता है। बालक अपने वातावरण के प्रति जिज्ञासु रहता है इसलिए वह पग-पग पर प्रश्न पूछता रहता है। प्रायः छह वर्ष की अवस्था से बालक में सामाजिक गुण विकसित होने लगते हैं। 6 वर्ष से लेकर 11 वर्ष की अवस्था को 6 दल की अवस्था कहते है। इस समय वह सामूहिक खेलों तथा क्रियाओं में सक्रिय रूप से भाग लेता है। अधिकांश बच्चे छह वर्ष की उम्र होने पर विद्यालय जाना प्रारम्भ कर देते हैं। इसे विद्यालय जाने की अवस्था भी कहते हैं।

4. किशोरावस्था ( Adolescence) – ‘एडोलसेन्स’ शब्द लैटिन भाषा का है और इसका अर्थ है ‘प्रजनन क्षमता का विकास’। मुनरो ने किशोरावस्था को इस प्रकार परिभाषित किया है – “वह काल जो तारूण्य से प्रारम्भ होता है और प्रौढ़ता पर समाप्त होता है।’

विकास की दृष्टि से इस अवधि को 12 वर्ष अवस्था से लेकर 21 वर्ष की अवस्था तक माना जाता हैं। इस समय तीव्र गति से परिपक्वता होती है, इसलिए इस अवस्था को तीन भागों में बाँटा गया है 1. पूर्व किशोरावस्था, 2. प्रारम्भिक किशोरावस्था, 3. उत्तर किशोरावस्था, लड़कियों में पूर्व किशोरावस्था 11 से 13 वर्ष के बीच में आती है और लड़कों में प्रायः साल भर बाद।

इस अवस्था को बुहलर ने ‘निषेधात्मक अवस्था’ कहा है। 13 से 16 वर्ष का काल प्रारम्भिक किशोरावस्था का काल है। इस अवस्था में शारीरिक और मानसिक विकास में पूर्णता आ जाती है। उत्तर किशोरावस्था 21 वर्ष तक मानी जाती है। इस समय युवक युवतियाँ सबका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना चाहते हैं। अब ये लोग समाज में अधिक सफलता पूर्वक समायोजन सम्पन्न करने योग्य हो जाते हैं। प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक स्टैनले हॉल ने किशोरावस्था को गम्भीर उथल पुथल की अवस्था कहा है।

5. प्रौढ़ावस्था (Adult hood) – प्रौढ़ावस्था की अवधि 21 से 40 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवस्था को नये कर्तव्यों और बहुमुखी उत्तरदायित्व की अवस्था कहा जाता है। व्यक्ति इसी अवस्था में बड़ी बड़ी उपलब्धियों की ओर अभिमुख होता है।

विकास की विशेषताएं ( Characteristics of Devlopment)

मानव विकास की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

1. विकास की एक निश्चित प्रणाली होती है- बालक का विकास एक निश्चित क्रम में होता है। विकास का प्रत्येक स्तर उसके अगले तथा पिछले विकास क्रम से अनिवार्यतः प्रभावित होता है। उसके व्यवहारात्मक विकास की विशेष प्रणाली होती है। गेसेल के अनुसार सभी सामान्य बालकों में वृद्धि तथा विकास के लक्षण एक ही क्रम से उदय होते हैं।

2. विकास सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रिया की ओर होता है – बालक के विकास के प्रत्येक क्षेत्र में ये चाहे वह क्रियात्मक हो या मानसिक, उसकी प्रतिक्रियें विशिष्ट रूप धारण करने से पूर्व सामान्य प्रकार की होती हैं। प्रारम्भ में वह सरल क्रियाओं को सामान्य ढंग से और बाद में जटिल क्रियाओं को विशिष्ट ढंग से करता है। चलना, पकड़ना, खाना, शब्द भण्डार का निर्माण, प्रयत्न ज्ञान, संवेगात्मक अभिव्यक्ति इत्यादि में इसके प्रमाण मिलते हैं।

3. विकास अविराम गति से होता है – व्यक्ति का विकास एक सतत प्रक्रिया है जो गर्भाधान से आरम्भ होकर प्रौढ़ावस्था तक चलती रहती है। उसके कोई भी गुण चाहे वे शारीरिक हो अथवा मानसिक, सहसा ही विकसित नहीं होते हैं।

4. विकास की गति में तीब्रता और मन्दता पायी जाती है- कुछ विद्वानों के अनुसार – विकास सदैव एक गति से नहीं होता है, उसमें उतार चढ़ाव भी पाया जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि बालक एक नई क्रिया को सीखते सीखते अपनी कुछ प्रक्रिया क्रियाओं को दुहराने लगता है।

5. विकास की गति में वैयक्तिक विषमतायें स्थायी होती है- विकास की गति में – सदा एकरूपता पायी जाती है। जिन बच्चों का विकास आरम्भ में तीव्र गति से होता है उनका विकास आगे चलकर भी उसी तरह होता है। इसके विपरीत, जिन बच्चों का प्रारम्भिक विकास मन्द गति से होता है, उनमें आगे चलकर होने वाले विकास की गति भी मन्द होती है।

6. विकास सम्बन्धी अनेक गुण सह सम्बन्धित होते हैं- वैज्ञानिक अध्ययनों के – आधार पर यह प्रमाणित किया जा चुका है कि यद्यपि शरीर के विभिन्न भागों का विकास विभिन्न गति तथा समय पर होता है किन्तु यह भी सत्य है कि विकास का अनुपात प्रति पूरक होता है।

7. शरीर के विभिन्न अंगो का विकास भिन्न-भिन्न गति से होता है- शरीर के सभी भागों का विकास एक गति से नहीं होता है। यही बात मानसिक विकास के विषय में भी सत्य है उदाहरणार्थ – मस्तिष्क की परिपक्वता प्रायः छह से आठ वर्ष तक हो जाती है किन्तु उसका संगठन बाद में होता है।

8. विकास के सम्बन्ध में भविष्यवाणी करना सम्भव है- बाल विकास की गति नियमित, सतत और क्रमबद्ध होती है। अतः किसी भी स्तर पर अध्ययन कर यह कहना सम्भव कि बालक का भावी विकास किस दशा में कैसा मोड़ ले सकता है। इसके आधार पर बच्चों को उचित शिक्षा दी जा सकती है और उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप प्रशिक्षण भी दिया जा सकता है।

9. प्रत्येक विकासात्मक अवस्था का अपना-अपना गुण होता है- प्रत्येक आयु – स्तर पर गुण विशेष अधिक तीव्रता तथा विचित्रता से विकसित होते हैं। फेल्डमन के अनुसार “प्रत्येक स्तर को कुछ प्रमुख विशेषताएं तथा चारित्रिक गुण होते हैं जिससे उस स्तर की विलक्षणता, सुसंगतता तथा एकता परिलक्षित होती है।”

10. प्रत्येक व्यक्ति विकास की हर प्रमुख अवस्था से गुजरता है- सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति विकास के सभी प्रमुख स्तरों से होकर गुजरता है। कुछ निम्न बौद्धिक स्तर के लोग ही सभी स्तरों से होकर नहीं गुजरते। अनुपयुक्त वातावरण, दुर्बल स्वास्थ्यविकास सम्बन्धी उत्प्रेरकों का अभाव आदि के कारण भी सामान्य गति में बाधा पहुँचती है।

11. विकास परिपक्वता और शिक्षण का परिणाम होता है – विकास के सम्बन्ध में यह एक प्रधान तथ्य माना जाता है कि बालक का विकास चाहे वह शारीरिक हो या मानसिक परिपक्वता और शिक्षा का परिणाम होता है।

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