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Shaishwawastha Infancy in Hindi | शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ | शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप

Shaishwawastha Infancy in Hindi | शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ | शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप
Shaishwawastha Infancy in Hindi | शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ | शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप

Shaishwawastha Infancy in Hindi (शैशवावस्था)

शैशवावस्था वह आधार है जिस पर बालक के भावी जीवन का निर्माण होता है। फ्रायड ने कहा था कि “मनुष्य को जो कुछ बनना होता है वह चार पाँच वर्ष की आयु में ही बन लेता है।” एडलर के अनुसार “बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है कि वह जीवन में कौन सा स्थान ग्रहण करेगा।” स्ट्रांग के अनुसार “जीवन के प्रथम दो वर्षों में बालक अपने भावी जीवन की बुनियाद डालता है। यद्यपि परिवर्तन किसी भी आयु में ही सकता है किन्तु प्रारम्भिक प्रवृत्तियाँ और प्रतिमान स्थायी बने रहते हैं।”

जीवन के प्रारम्भिक तीन वर्षों में विकास और अभिवृद्धि की गति सबसे अधिक तीव्र रहती है। इस काल में मस्तिष्क और नाड़ी मण्डल की वृद्धि तीव्र गति से होती है और शिशु की शारीरिक क्रियाऐं भी स्थायी तथा आत्म नियंत्रित बनती जाती है। उसका शारीरिक और मानक विकास भी अत्यधिक तीव्र गति से होता है।

भारतीय शिक्षा आयोग ने भी शिशु शिक्षा का विस्तार करने की जोरदार सिफारिश की है। उसने अपनी रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि “तीन और दस वर्ष के बीच का काल बालक के शारीरिक, संवेगात्मक और मानसिक विकास के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। अतः इस पूर्व प्राथमिक शिक्षा के अधिक से अधिक सम्भव विस्तार की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं।”

शैशवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ

शैशवावस्था का काल जन्म से लेकर छह वर्ष तक का समय है। यह व्यक्ति के जीवन की महत्वपूर्ण प्रारम्भिक अवस्था है। इन अवस्था की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

1. शारीरिक वृद्धि में तीव्रता- शिशु की शारीरिक अभिवृद्धि बहुत तीव्र गति से होती प्रथम दो वर्षों में उसका शरीर तीब्र गति से भार और लम्बाई प्राप्त करता रहता है उसके अवयवों और ज्ञानेन्द्रियों का आन्तरिक अभिवृद्धि के कारण क्रमिक विकास होता है।

2. असहाय और निर्भर- शिशु असहाय और निर्भर रहता है। तीव्र अभिवृद्धि के होते हुए भी उनके वर्षों तक माता पिता तथा अन्य लोगों पर निर्भर रहता है। उसे अपने पैरों पर खड़ा होने में कई वर्ष लग जाते हैं। व्यक्तिगत कार्यों के लिए भी वह दूसरों पर निर्भर रहता है। यहाँ तक कि वह बिना दूसरों के प्रेम, दया और सहानुभूति के भी नहीं रह सकता।

3. आत्मप्रेम की प्रबल भावना – शिशु में आत्मप्रेम की भावना भी प्रबल रहती है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरों का ध्यान अपनी आकर्षित करता है। वह चाहता है कि सभी की प्रेम वृष्टि उस पर होती रहे। मनोविश्लेषणवादी फ्रायड के अनुसार शिशु की इन प्रवृत्ति का कारण उसकी लैंगिक भावना का इस काल में आत्मकेन्द्रित होना है जिसे वह आत्मप्रेम कहता है। माता का स्तनपान शिशु की काम प्रवृत्ति का प्रतीक है।

4. पशुवत व्यवहार- शिशु का व्यवहार पशुवत होता है रूसो ने उसे जंगली के समान माना है। उसका सम्पूर्ण व्यवहार प्रवृत्तिजन्य होता है। अतएव उसका आचरण मानवीय न होकर पशुओं से अधिक मिलता जुलता रहता है किन्तु शनैः शनैः उसकी पशु प्रवृत्तियों का समाजीकरण होने लगता है और वह परिस्थितियों के साथ समझौता करना तथा आत्म नियन्त्रण करना भी सीख लेता है। जन्म के कुछ समय बाद ही उसके अन्दर कुछ सामाजिक प्रतिक्रियायें भी प्रारम्भ हो जाती हैं।

5. खेल में आनन्द – शिशु खेल से आनन्दित होता है शिशु का अधिकांश समय सोने में ही व्यतीत होता है, किन्तु जागने पर वह चाहता है कि सब लोग उसके साथ ही खेलते रहें। उसके प्रारम्भिक काल में तो खेल व्यक्तिगत ही होते हैं परन्तु दो वर्ष की आयु के उपरान्त वह भाई बहिनों के के साथ खेलने लगता है और अपनी वस्तुओं में से भी दूसरी को हिस्सा बटाने लगता है।

6. मानसिक शक्तियों का विकास – मानसिक शक्तियों का तीव्र विकास होता है। शिशु की मानसिक क्रिया अवधान (ध्यान) से प्रारम्भ होती है। वह चमकदार वस्तु पर आँखें केन्द्रित करता है जिस ओर से ध्वनि आती है उसी ओर वह अपना सिर घुमा लेता है। अवधान के बाद संवेदना और प्रत्यक्षीकरण द्वारा वह मानसिक वृद्धि करता है। शिशु कल्पना और स्मृति से भी कम लेता है। लगभग तीन वर्ष की आयु में उसकी मानसिक शक्तियाँ भी कार्य करने लगती हैं। इस कार्य में ‘इन्द्रिय ज्ञान की प्रमुखता रहती है।

7. अनुकरण से सीखना- शिशु अनुकरण के आधार पर तीव्र गति से सीखता है। जो शिशु जितना अधिक क्रियाशील रहता है वह उतना ही अधिक सीखता है। जन्म के समय उसका मस्तिष्क कोरी पटिया के समान होता है। अतः इस आयु में शिशु की सीखने की क्षमता सबसे अधिक होती है। वह अनुकरण द्वारा सीखता है।

8. नैतिकता का अभाव- शिशु में नैतिकता का अभाव होता है। वह प्रारम्भ में नैतिक अनैतिक का ज्ञान नहीं कर पाता है, क्योंकि उसका सम्पूर्ण व्यवहार पशुवत तथा मूल प्रवृत्तिजन्य ही होता है। इसका सम्पूर्ण व्यवहार आत्मप्रेम की भावना से प्रेरित रहता है किन्तु तीन वर्ष की आयु लगभग उसमें भले बुरे और उचित अनुचित में भेद करने की क्षमता उत्पन्न होने लगती है। वह सामाजिक अनुकरण द्वारा प्रारम्भिक नैतिकता को ग्रहण करता है।

9. सामाजिक भावना का विकास- शिशु में सामाजिक भावना का भी विकास होता है तीन या चार वर्ष की आयु में उसे अकेलापन खलने लगता है। वह दूसरे बच्चों और व्यक्तियों में निःस्वार्थ भाव से रूचि लेने लगता है। वह खेल द्वारा भी सामाजिक सम्पर्क स्थापित करता है। एक वर्ष की आयु के बाद वह दूसरे बच्चों में अपनी रूचि या अरूचि व्यक्त करने लगता है।

10. संवेगों पर नियन्त्रण का अभाव- शिशु संवेगों पर नियन्त्रण करने में असमर्थ – रहता है। जन्म के समय वह कोई स्पष्ट संवेग अनुभव नहीं करता। अतः उस समय की उसकी इस संवेगात्मक अनुभूति को सामान्य उत्तेजना कह सकते हैं। परन्तु लगभग दो वर्ष की आयु में वह अनेक संवेगों की स्पष्ट अनुभूति करता है। शिशु के संवेग सीमित होते हैं। प्रारम्भ में केवल भय, क्रोध, प्रेम और दुख इन चारों संवेगों का ही प्रकाशन उसके व्यवहार में होता है।

11. दोहराने की प्रवृत्ति- शिशु में दोहराने की प्रवृत्ति पायी जाती है। वह अनेक ध्वनियों और शारीरिक क्रियाओं को भी खेल ही खेल में दोहराता रहता है। यह प्रवृत्ति उसके सीखने तथा गामक विकास में सहायक होती है। इसके बिना शिशु का भाषा विकास सम्भव नहीं होता। ध्वनि अथवा क्रिया को दोहराना, उसके लिए व्यक्तिगत खेल अथवा आनन्दायी क्रिया होती है।

12. जिज्ञासा की प्रवृत्ति- शिशु में जिज्ञासा या कौतुहल का बाहुल्य होता है। वह अपने खिलौनों के विषय में भी उनको मुँह से चखकर, हाथ से छूकर, पृथ्वी पर पटक कर अथवा उनसे ध्वनि करके ही उनके बारे में जानना चाहता है। जिज्ञासावस ही वह वस्तुओं की ओर लुढ़क कर, रेंग कर या खिसक कर पहुँचने का प्रयत्न करता है। वह ज्ञानेन्द्रियों के मार्ग से उसके बारे में जानकारियां प्राप्त करता है।

13. भाषा का विकास- शिशु का भाषा विकास पहले धीमी और फिर तीव्र गति से होता है।

शैशवावस्था में शिक्षा का स्वरूप (Form of Education in Infancy)

किसी भी राष्ट्र के बच्चे अपने राष्ट्र के भावी निर्माता होते हैं। वे अपने राष्ट्र की पवित्र धरोहर होते हैं। उनकी देखभाल करना भी माता पिता तथा गुरूजनों का परम कर्त्तव्य होता है। शिशु का शरीर और मन, दोनों ही पवित्र तथा स्वच्छ होते हैं। अतः इस बात की सावधानी रखना अति आवश्यक है कि उसके मन और शरीर में विकार उत्पन्न न हों। अतएव माता – पिता और अध्यापक को चाहि कि शिशु में निहित गुणों और क्षमताओं को जाग्रत करें और उसके व्यवहार को कुप्रवृत्तियों से बचायें।

शिशु की शिक्षा तथा देखभाल से सम्बन्धित कुछ गुण और लक्ष्य निम्नलिखित प्रकार हैं-

1. अच्छी आदतों का निर्माण – आदत मनुष्य का दूसरा स्वभाव होता है। बालक के अच्छे स्वभाव की नींव अच्छी आदतों द्वारा ही पड़ती है। शिशु के जीवन को व्यवस्थित बनाने के लिए कुछ आदतें बहुत अधिक है, जैसे समय पर भोजन करना, आँख, नाक एवं दाँत इत्यादि अंगों को सफाई रखना, नियमित ढंग से शौच जाना, मलमूत्र विसर्जन के लिए शौचालय का प्रयोग करना। एक वर्ष की आयु के बाद शिशु को ये आदतें सिखानी प्रारम्भ कर देनी चाहिए। लेकिन आदत डलवाने के लिए दण्ड या कठोरता से काम नहीं लेना चाहिए।

2. शिशु को स्वस्थ, सुरक्षित तथा सांस्कृतिक वातावरण प्रदान करना- जहाँ तक सम्भव हो सके शिशु के खेलने और सोने का स्थान स्वास्थ्यवर्द्धक होना चाहिए। उसे प्रेम, सहानुभूति और दया का पोषण भी निरन्तर मिलते रहना आवश्यक है। जहाँ तक सम्भव हो सके, उसे मानव संस्कृति की अभद्र और अश्लील वस्तुओं से बचाया जाये।

3. प्रवृत्तिजन्य व्यवहार को प्रेरित करना तथा मार्गान्तरीकरण करना- शिशु का समस्त व्यवहार प्रवृत्तिजन्य होता है। इसका दमन किसी भी रूप में हानिकारक होता है। दमन से शिशु के मन में हानिकारक ग्रन्थियाँ बन जाती हैं जिसके कारण उसके विकास में बाधा उत्पन्न होती है और उसका व्यक्तित्व विकृत हो जाता है। अतएव जहाँ तक सम्भव हो सके, प्रवृत्तिजन्य व्यवहार का मार्गान्तरीकरण एवं शोधन किया जाना चाहिए।

4. शिशु की जिज्ञासा प्रवृत्ति का सदुपयोग- शिशु ज्ञानेन्द्रियां तीव्र होती है। वह आँख, कान, नाक एवं त्वचा द्वारा अपने आसपास की वस्तुओं के बारे में प्राप्त करता है। वह कौतुहलवश वस्तुओं का प्रसस्तन करता है। माता-पिता तथा परिवार ज्ञान के अनुभवजन्य अन्य सदस्यों से वह अनेक प्रश्न करता है। आस पास की वस्तुओं के बारे में उसकी जिज्ञासा शान्त होनी चाहिए, यही उसका मानसिक पोषण है।

5. खेल एवं क्रिया द्वारा शिक्षा- शिशु की प्रारम्भिक जीवन अनुभवजन्य होता है। शिशु की खेल के प्रति जन्मजात रूचि होती है। यही उसकी क्रियाशीलता और अनुभवों का आधार होता है। बालक को स्वतन्त्र वातावरण में शैक्षिक उपकरणों तथा खिलौनों से खेलना बहुत अच्छा लगता है। खेल की क्रियाओं में उसका सम्पूर्ण आत्म ही संलग्न रहता है। वह अनुकरण द्वारा बहुत सी बातें सीखता है। यही कारण है कि शिशु शिक्षा प्रणालियों में भी खेल अनुभव एवं क्रियाशीलता पर अधिक बल दिया जाता है।

6. शिशु के साथ व्यवहार द्वारा उसकी शारीरिक एवं मानसिक आवश्यकता की पूर्ति- शिशु को डाँटनेद्ध फटकारने अथवा मारने से कोई लाभ नहीं होता, अपितु हानि ही – अधिक होती है, प्रेम, दया, सहानुभूति एवं सुरक्षा प्रदान करके उसकी मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिए। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के अभाव में शिशु का नैसर्गिक विकास अवरूद्ध हो जाता है।

7. आत्मनिर्भरता की शिक्षा- जन्म के समय शिशु असहाय और पूर्ण रूप से दूसरों – पर ही आश्रित रहता है। परिवार और समाज की सहायता से वह धीरे धीरे जीवन में प्रवेश – करके आत्मनिर्भरता ग्रहण करता है। जिस बच्चों की आवश्यकता से अधिक सहारा दिया जाता है। वे आत्मनिर्भरता के विकास में पिछड़ने लगते हैं। आत्मनिर्भरता के लिए दूसरी आवश्यकता अनुकूल परिस्थिति की है। जिन बच्चों पर नियन्त्रण रखा जाता है, वे हर बात में दूसरों का ही मुख देखते हैं, जैसा कि वे अपने आप एक गिलास पानी भी नहीं दे सकते हैं।

8. शिशु के जीवन में कल्पना और वास्तविकता का सामंजस्य- शिशु का मानस कल्पना प्रधान होता है। वह कभी कभी अपने काल्पनिक जगत को ही वास्तविक मान बैठता है जिसके कारण अनेक भ्रान्तियों का शिकार हो जाता है। जो शिक्षा क्रियाशील या खेल में संलग्न रहता है, उसे काल्पनिक जगत् में विचरण करने का अवसर भी कम ही मिलता है। अतएव यह नितान्त आवश्यक है कि शिशु को अपने आसपास की वस्तुओं का प्रहस्तन करने, उससे खेलने और क्रियाशील रहने का पर्याप्त अवसर दिया जाये जिससे उसका मानस जीवन की वास्तविकता के निकट रहे।

9. शिशु के व्यवहार का समाजीकरण करना- शिशु के व्यवहार का विकास पशुवत् व्यवहार से मानवीय व्यवहार की ओर होता है। सामाजिक भावना के विकास के साथ साथ ही उसके पशुवत आवेगों के प्रकाश का ढंग भी बदल जाता है। वह समाज की मर्यादाओं को धीरे – धीरे स्वीकार करने लगता है। इसी दिशा में उसे मार्ग निर्देशन की विशेष आवश्यकता होती है।

10. शिशु की ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का प्रशिक्षण- शिशु अपनी ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के सतत् प्रयोग के द्वारा नवीन जानकारियां प्राप्त करता है। वह नवीन क्रियाओं को करने में कुशलता प्राप्त करता है। यही कारण है कि मॉण्टेसरी और किंडरगार्टन शिक्षा प्रणालियों में इन्द्रिय प्रशिक्षण तथा कर्मेन्द्रियों की शिक्षा पर बल दिया जाता है। शैशवावस्था में ही यह निश्चित हो जाता है। कि बालक वामहस्ता बनेगा या दक्षिणहस्ता। जीवन में बहुत से कार्य उसे अपने हाथों से कुशलतापूर्वक करने होते हैं। यही कारण है कि आजकल हाथों की शिक्षा का शिक्षा में नया नारा चल पड़ा है। रूसो का भी कथन था – “बालक के हाथ, पैर और उसके प्रारम्भिक शिक्षक हैं। इसके द्वारा वह पाँच वर्ष की अवस्था में ही पहचान सकता है। सोच सकता है और याद कर सकता है।”

11. दृश्य श्रव्य सामग्री द्वारा शिक्षा – ‘क्रो और क्रो’ के अनुसार “पाँच वर्ष की आयु का शिशु, कहानी सुनते समय उससे सम्बन्धित चित्रों को पुस्तक में देखना पसन्द करता है।” शिशु शिक्षा में आँख और कान इन दोनों ज्ञानेन्द्रियों का विशेष उपयोग होता है। अतः कहानियों तथा सचित्र पुस्तकों का शिशु शिक्षा में अधिकाधिक उपयोग होना चाहिए। शिशु का अविकसित मस्तिष्क संगीत से शीघ्र ही प्रभावित हो जाता है। यदि संगीत के साथ साथ क्रियाशीलता या खेल को सम्बन्धित कर दिया जाये तो वह बहुत अधिक आनन्दित और प्रभावित होता है। इसलिए शिशुशालाओं में सामूहिक नृत्य, क्रियाशील गायन अथवा कविता पर बल दिया जाता है।

12. बौद्धिक विकास में सहायता करना- शिशु की मानसिक क्रियायें तीव्रगति से होती है। वह मानसिक दृष्टि से अधिक चैतन्य, संवेदनशील और जिज्ञासु होता है लेकिन उसके बौद्धिक विकास का एक निश्चित मनोवैज्ञानिक क्रम रहता है, जैसे किसी बात की ओर ध्यान देना। इन्द्रिय संवेदनाएं ग्रहण करना, प्रत्यक्ष ज्ञान का निर्माण करना, और प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर स्मृति तथा कल्पना की क्रियाएं करना। शिशु की देखभाल करने वाले और शिक्षा से सम्बन्धित सभी व्यक्तियों को इस मनोवैज्ञानिक क्रम को भली भाँति समझकर ही उसके साथ उचित व्यवहार करना चाहिए। वस्तु और चित्रों की सहायता से भी उसके प्रत्यक्ष ज्ञान को धनी और स्पष्ट बनाया जा सकता है।

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