मन्त्रिपरिषद् और विधानमण्डल या विधानसभा के बीच सम्बन्ध
मन्त्रिपरिषद् और विधानमण्डल या विधानसभा के बीच सम्बन्ध- संविधान के द्वारा राज्यों में भी संसदात्मक व्यवस्था को अपनाया गया है इसी कारण मन्त्रिपरिषद् का उदय विधानमण्डल से होता है। मन्त्रिपरिषद् के प्रत्येक सदस्य के लिए राज्य विधानमण्डल के किसी एक सदन का सदस्य होना आवश्यक होता है। यदि मन्त्रिपद ग्रहण करते समय वह विधानमण्डल का सदस्य न हो तो 6 महीने के अन्दर उसके लिए सदस्य बनना आवश्यक होता है।
संविधान के अनुच्छेद 164 में कहा गया है कि मन्त्रिपरिषद्, विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी। इसका आशय यह है कि मन्त्रिपरिषद् उसी समय तक अपने पद पर रहेगी, जब तक कि उसे विधानसभा का विश्वास प्राप्त रहे। विधानसभा के द्वारा मन्त्रिपरिषद् पर निम्नलिखित साधनों से नियन्त्रण रखा जा सकता हैं:
( 1 ) प्रश्न पूछकर- विधानसभा और विधानपरिषद् के सदस्यों को अधिकार है कि वे अधिवेशन के दिनों में मन्त्रिपरिषद् के सदस्यों से विभिन्न प्रशासनिक बातों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछें। इन प्रश्नों के आधार पर प्रशासन के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने और प्रशासन पर नियन्त्रण रखने का कार्य किया जा सकता है।
( 2 ) कामरोको प्रस्ताव- कामरोको प्रस्ताव विधानमण्डल द्वारा प्रशासन पर नियन्त्रण का एक महत्वपूर्ण साधन है। यदि प्रशासन के किसी भी क्षेत्र में कोई गम्भीर घटना घटित हो जाती है तो विधानमण्डल के प्रत्येक सदस्य को अधिकार है कि वह अपने सदन में इस में आशय का प्रस्ताव रखे कि पहले से चले आ रहे सभी विषयों पर विचार स्थगित कर इस गम्भीर घटना पर विचार किया जाए।
( 3 ) विधेयक या नीति की अस्वीकृति- विधानमण्डल को अधिकार है कि वह मन्त्रिमण्डल के सदस्य द्वारा प्रस्तावित किसी विधेयक या नीति को अस्वीकार कर दे। यदि वह अस्वीकृति विधानसभा की ओर से होती है तो मन्त्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना होता है।
( 4 ) बजट पर कटौती- मन्त्रिमण्डल विधानमण्डल की स्वीकृति के बिना आय व्यय से सम्बन्धित कोई कार्य नहीं कर सकता। विधानसभा द्वारा बजट में कटौती से मन्त्रिमण्डल को त्यागपत्र देना होता है।
( 5 ) प्रशासनिक जांच – विधानमण्डल मन्त्रिमण्डल के कार्यों की जांच-पड़ताल के लिए एक जांच-समिति स्थापित कर सकता है और सरकार के हिसाब-किताब की जांच के लिए लेखा परीक्षक नियुक्त कर सकता है।
( 6 ) अविश्वास प्रस्ताव- विधानसभा के द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पास कर मन्त्रिपरिषद् को पदच्युत किया जा सकता है।
इस प्रकार सैद्धान्तिक दृष्टि से विधानमण्डल विशेषतया विधानसभा, मन्त्रिमण्डल के कार्यों पर नियन्त्रण रखती है तथा उसे पदच्युत भी कर सकती है, लकिन व्यावहारिक स्थिति नितान्त विपरीत ही है। व्यवहार में विधानसभा मन्त्रिमण्डल पर नियन्त्रण नहीं रखती, वरन् मन्त्रिमण्डल द्वारा विधानसभा पर निम्नलिखित साधनों के आधार पर पर्याप्त नियन्त्रण रखा जा सकता है :
(1) मुख्यमन्त्री विधानसभा के बहुमत दल का नेता होने के आधार पर विधानसभा पर नियन्त्रण रखता है। विधानसभा के बहुमत दल के सदस्य दलीय अनुशासन के कारण मुख्यमन्त्री का समर्थन करने के लिए बाध्य होते हैं।
(2) कानून निर्माण के क्षेत्र में भी नेतृत्व मन्त्रिमण्डल के द्वारा ही किया जाता है और यदि कहा जाए कि कानून निर्माण का कार्य विधानमण्डल की सहमति से मन्त्रिमण्डल के द्वारा किया जाता है तो अनुचित न होगा।
(3) वित्तीय क्षेत्र में वित्तमन्त्री जिस रूप में बजट पेश करता है विधानसभा के द्वार स्वीकार कर लिया जाता है, क्योंकि बजट में कटौती का मतलब होता है सरकार का पतन और बहुमत दल यह कभी नहीं चाहता है।
(4) विधानसभा पर मन्त्रिमण्डल के नियन्त्रण का अन्तिम महत्वपूर्ण साधन मुख्यमन्त्री द्वारा विधानसभा को भंग करने की शक्ति है।
वास्तव में, राज्य मन्त्रिपरिषद् और विधानसभा का पारस्परिक सम्बन्ध इस बात पर निर्भर करता है कि एक राजनीतिक दल का मन्त्रिमण्डल है या मिला-जुला मन्त्रिमण्डल और मन्त्रिमण्डल के राजनीतिक दल की राज्य विधानमण्डल, विशेषतया विधानसभा में स्थिति कैसी हैं। एक राजनीतिक दल का मन्त्रिमण्डल मिले-जुले मन्त्रिमण्डल की अपेक्षा विधानमण्डल के साथ सम्बन्ध में अधिक शक्ति का परिचय देता है। व्यवहार में सामान्यतया मन्त्रिमण्डल विधानमण्डल से नियन्त्रित होने के बजाय विधानमण्डल पर नियन्त्रण ही रखता है। जनवरी 1985 में ‘दल-बदल निषेध कानून’ (भारतीय संविधान में 52वां संवैधानिक संशोधन) बन जाने से विधानसभा पर मन्त्रिमण्डल का नियन्त्रण निश्चित रूप से कुछ और बढ़ गया है।
राज्यपाल और मन्त्रिपरिषद् या राज्यपाल और मुख्यमन्त्री
संविधान के अनुच्छेद 163 में कहा गया है कि “राज्यपाल को उसके कार्यों के सम्पादन में सहायता और परामर्श’ के लिए एक मन्त्रिपरिषद् होगी, जिसका प्रधान मुख्यमन्त्री होगा।” किन्तु यह वैधानिक शब्दाबली है और जहां तक व्यवहार का सम्बन्ध है, मन्त्रिपरिषद् राज्य की वास्तविक कार्यपालिका सत्ता होती है। यद्यपि प्रशासन राज्यपाल के नाम में किया जाता है, किन्तु अधिकांश मामलों में वास्तविक निर्णय मन्त्रिपरिषद् द्वारा लिए जाते हैं। सामान्य परिस्थितियों में राज्यपाल से मन्त्रियों की मन्त्रणा के आधार पर कार्य करने की आशा की जाती है। यद्यपि संविधान में कोई ऐसी बात नहीं है जो राज्यपाल को मन्त्रियों की मन्त्रणा मानने के लिए बाध्य करती हों, किन्तु फिर भी संसदात्मक व्यवस्था की राजनीतिक आवश्यकता के रूप में उसे मन्त्रियों की मन्त्रणा माननी होती है। यदि राज्यपाल ऐसी मन्त्रिपरिषद् की सलाह को अस्वीकार कर दे, जिसे कि विधानसभा का विश्वास प्राप्त है तो मन्त्रिपरिषद् विरोधस्वरूप त्यागपत्र दे सकती है और ऐसा होने पर राज्यपाल कठिन स्थिति में पड़ जाएगा।
अनुच्छेद 167 के अनुसार राज्य के मुख्यमन्त्री का यह कर्तव्य है कि राज्य प्रशासन से सम्बन्धित मन्त्रिपरिषद् के सभी निर्णयों और विचाराधीन विधेयक की सूचना राज्यपाल को दे और राज्यपाल इस सम्बन्ध में अन्य आवश्यक जानकारी भी मांग सकता है। मुख्यमन्त्री से प्राप्त इन सूचनाओं के आधार पर राज्यपाल द्वारा मन्त्रिपरिषद् को परामर्श देने, प्रोत्याहित करने और चेतावनी देने का कार्य किया जा सकता है, लेकिन इस प्रकार की सलाह और चेतावनी के बावजूद मन्त्रिपरिषद् द्वारा एक बार निर्णय कर लेने पर राज्यपाल उसे स्वीकार करने के लिए बाध्य होता है, लेकिन कुछ ऐसी परिस्थितियां हो सकती है जिनमें राज्यपाल मन्त्रिपरिषद् की सलाह के बिना ही कार्य करें। उदाहरण के लिए, राजय में संवैधानिक तन्त्र की विफलता के सम्बन्ध में राष्ट्रपति को रिपोर्ट राज्यपाल अपने ही विवेक के आधार पर तैयार कर भेजता है और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने की स्थिति में राज्यपाल केन्द्र सरकार के निर्देशों को दृष्टि में रखते हुए राज्य के शासन का संचालन करता है।
संविधान में इस बात का उल्लेख है कि मन्त्रियों द्वारा राज्यपाल के प्रसादपर्यन्त अपना पद धारण किया जाएगा। इसका शाब्दिक अर्थ यह लिया जा सकता है कि राज्यपाल मन्त्रियों को पदच्युत कर सकेगा, लेकिन इस प्रकार का कार्य उत्तरदायी शासन की भावना और परम्परा के विरूद्ध होगा। इसलिए सैद्धान्तिक रूप में राज्यपाल को इस प्रकार की शक्ति प्राप्त होने पर भी व्यवहार में कोई राज्यपाल इस प्रकार का कार्य करने का साहस नहीं कर सकता। राज्यपाल तथा मन्त्रिपरिषद् के मध्य यदि किसी विषय पर किसी कारणवश विरोध उत्पन्न हो जाए तो उसका क्या वैधानिक हल होगा, इस सम्बन्ध में संविधान में उल्लेख नहीं है।
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