राज्यपाल पद से सम्बन्धित समस्त व्यवस्था
यह तथ्य है कि “भारतीय संविधान के द्वार स्थापित राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत यदि किसी पद की गरिमा को सर्वाधिक आघात पहुंचा है, तो वह निश्चित रूप से राज्यपाल प ही है। इन्दर मल्होत्रा के शब्दों में, “जन साधारण की बात को छोड़ दिया जाए, स्वयं राज्यपाल पदधारी भी अपने इस पद को सम्मान की दृष्टि से नहीं देखते हैं।” राज्यपाल पद के इस भार अवमूल्यन के लिए कोई एक पक्ष नहीं, वरन् सभी पक्ष दोषी है। केन्द्र में कांग्रेस, इन्द्रिरा कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय मोर्चे या जनता दल ‘स’, संयुक्त मोर्चे या भाजपा के नेतृत्व में मिलीजुलता सरकार, जिस किसी राजनीतिक दल की सरकार रही, उसने न केवल दलीय हितों के आधार पर राज्यपाल पद पर नियुक्ति की वरन् राज्यपालों के स्थानान्तरण और पदच्युति का अत्यधिक अशोभनीय मार्ग भी अपनाया।
इस पृष्ठभूमि में इस मांग को जन्म दिया कि राज्यपाल पद को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। संविधान द्वारा राज्य स्तर पर भी संसदीय व्यवस्था की स्थापना की गयी है, इस नाते राज्यपाल पद को समाप्त तो नहीं किया जा सकता, लेकिन राज्य स्तर पर संसदीय व्यवस्था के सुचारू संचालन तथा केंन्द्र राज्य सम्बन्धों को स्वस्थ स्थिति में बनाए रखने के लिए राज्यपाल पर पर नियुक्ति और पदधारी के आचरण के सम्बन्ध में कुछ निश्चित परम्पराओं को अपनाया जाना नितान्त आवश्यक है। यदि समय रहते, ऐसा नहीं किया गया तो समस्त राजनीतिक व्यवस्था को चाहे आघात पहुंचने की आशंका हे। राज्यपाल पद से सम्बन्धित समस्त स्थिति पर विचार करते हुए इस सम्बन्ध में कुछ सुझाव प्रमुख रूप में दिए जा सकते है :
सर्वप्रथम, राज्यपाल पद पर सर्वमान्य योग्यता और प्रतिष्ठा के व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाना चाहिए। बी.एम. तारकुण्डे के शब्दों में, “इस पद पर महिमावान् व्यक्तियों को ही नियुक्त किया जाना चाहिए।” अब तक सामान्यतया यह देखा गया है कि जिस किसी व्यक्ति को सक्रिय राजनीति से अलग करना हो, उसे राज्यपाल पद पर नियुक्त कर दिया जाता है, उसका राजनीतिक जीवन चाहे प्रतिष्ठापूर्ण रहा हो- चाहे विवादपूर्ण और कलुषित। यह स्थिति राज्यपाल पद और समस्त राजनीतिक व्यवस्था के हित में नहीं है। आज की परिस्थिति में यह कहना तो उचित नहीं होगा कि ‘राजनीतिक को राज्यपाल पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए’ लेकिन यह अवश्य ही कहा जा सकता है कि केवल ऐसे ही व्यक्तियों को राज्यपाल पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए जिन्होंने राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, समाज सेवा या अन्य किसी क्षेत्र में कार्य करते हुए सभी पक्षों से सम्मान प्राप्त किया हो और जो दलीय राजनीति से ऊपर उठकर परिस्थितियों का आकलन करने तथा स्वतन्त्र निर्णय लेने की क्षमता रखते हों। सरकारिता आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में इसी आशय की सिफारिश की है।
द्वितीय, अभी हाल ही के वर्षों में अनेक राज्यों में राज्यपाल और मुख्यमन्त्री पदधारी के ही बीच सन्देह, अविश्वास, मतभेद और तनाव की स्थिति देखी गयी है। इस प्रकार की स्थिति उत्पन्न न हो, इसके लिए प्रयत्न किया जाना आवश्यक है। इस प्रसंग में सरकारिया आयोग का सुझाव है कि संविधान के अनुच्छेद 155 में संशोधन कर राज्यपाल की नियुक्ति के बारे में सम्बन्धित राज्य के मुख्यमन्त्री के साथ विचार-विमर्श की व्यवस्था को अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। अन्तर्राज्य परिषद की स्थायी समिति की 1 सितम्बर, 2000 ई. को जो बैठक हुई, उस बैठक में इस बात पर आम सहमति बनी है कि राज्यपाल की नियुक्ति के पूर्व सम्बन्धित राज्य सरकार से अनिवार्यता सलाह ली जानी चाहिए।
तृतीय, प्रशासनिक सुधार आयोग ने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया था कि किसी व्यक्ति को केवल एक ही बार राज्यपाल पद पर नियुक्त किया जाना चाहिए। कुछ उदाहरणों में देखा गया है कि राज्यपाल पदधारी व्यक्ति दूसरा कार्यकाल प्राप्त करने की इच्छा रखने के कारण केन्द्र के अनुचित निर्देशों के सम्मुख समर्पण कर देता है। अतः “राज्यपाल पद पर एक ही बार नियुक्ति’ की परम्परा को अपनाने पर इस पद की विकृति पर अंकुश लगाया जा सकेगा।
चतुर्थ, दिसम्बर 1970 में नियुक्त ‘भगवान सहाय समिति’ ने अपनी सिफारिशों में कहा था कि “किसी मन्त्रिमण्डल को बहुमत का विश्वास प्राप्त है अथवा नहीं इस बात का निर्णय ‘राजभवन’ में नहीं वरन् विधानसभा में ही किया जाना चाहिए।” इस सिफारिश का पालन अत्यावश्यक है। यदि राज्यपाल को मुख्यमन्त्री के बहुमत विश्वास में सन्देह है तो राज्यपाल मुख्यमन्त्री को विधानसभा का अधिवेशन शीघ्रातिशीघ्र बुलाने के लिए परामर्श, विशेष परिस्थितियों में इस प्रकार का आदेश भी दे सकता है और राज्य मन्त्रिमण्डल को तभी पदच्युत किया जा सकता है, जबकि मुख्यमन्त्री इस सम्बन्ध में राज्यपाल के परामर्श को अस्वीकार करें। अगस्त 1984 में आन्ध्र प्रदेश के मुख्यमन्त्री एन.टी. रामाराव तीन दिन के भीतर विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर अपने बहुमत का परिचय देने के लिए तैयार थे तब राज्यपाल द्वारा उन्हें इसका अवसर न देते हुए रामाराव मन्त्रिमण्डल को अपदस्थ करने का कोई औचित्य नहीं था। यह ‘खतरनाक मिसाल’ (Dangerous Precedent) है और भविष्य में कभी ऐसी स्थिति को नहीं अपनाया जाना चाहिए।
पंचम, जब कभी विधानसभा में दलीय स्थिति स्पष्ट न हो और मुख्यमन्त्री पद के लिए एक से अधिक दावेदार हों, तब मुख्यमन्त्री के चयन और मनोनयन में राज्यपाल पदधारी को अपने विवेक का प्रयोग करना होगा, लेकिन ऐसी प्रत्येक स्थिति में अनिवार्य रूप से इस परम्परा को अपनाया जाना चाहिए कि मनोनीत मुख्यमन्त्री तीन दिन के भीतर विधानसभा का अधिवेशन बुलाकर अपने बहुमत को प्रमाणित करे। बहुमत का परिचय देने के लिए मुख्यमन्त्री को इससे अधिक समय देना, उसे मोलभाव का अवसर देना है और यह स्थिति राजनीतिक तनाव, विवाद तथा उत्पातों को ही जन्म देती है।
षष्ठम्, अभी हाल ही के वर्षों में ऐसी स्थितियां बनी है जिनमें केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यपाल को पद्रच्युति और मानमाने तौर पर राज्यपाल पदधारियों के एक राज्य से दूसरे राज्य में स्थानान्तरण का मार्ग अपनाया गया। ये स्थितियां राज्यपाल पद की गरिमा को आघात पहुंचाने और केन्द्र राज्य सम्बन्धों में नवीन विवादों को जन्म देने का कारण बनती है। केन्द्रीय सरकार द्वारा राज्यपाल पद के सम्बन्ध में मर्यादित आचरण की स्थिति को अपनाते हुए राज्यपाल पद को यथासम्भव सभी राजनीतिक विवादों से दूर रखने की चेष्टा की जानी चाहिए।
भविष्य में उत्पन्न होने वाली सभी स्थितियों के लिए कोई ‘पूर्ण निर्देश पत्र’ तैयार नहीं किया जा सकता। वास्तव में, राज्यपाल पदधारी का स्वविवेक ही उनका इस सम्बन्ध में सर्वोच्च निर्देश हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे व्यक्तियों का राज्यपाल पद पर नियुक्त किया जाए जिन्हें संसदीय लोकतन्त्र से सम्बन्धित विषयों का व्यापक ज्ञान हो और जिनका अपना स्वतन्त्र दृष्टिकोण हो। पद पर नियुक्ति के बाद भी इन व्यक्तियों द्वारा केन्द्र के अनुचित निर्देशों और किसी भी राजनीतिक दल के दबावों से दूर रहते हुए अपनी संवैधानिक भूमिका निभायी जानी चाहिए। स्वयं राज्यपाल का आचरण ही उन्हें सभी पक्षों की ओर से सम्मान दिला सकता है।
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