राजनीति विज्ञान / Political Science

दल-बदल रोकने हेतु 52वें संविधान संशोधन अधिनियम का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।

दल-बदल रोकने हेतु 52वें संविधान संशोधन अधिनियम का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।
दल-बदल रोकने हेतु 52वें संविधान संशोधन अधिनियम का आलोचनात्मक वर्णन कीजिए।

दल-बदल रोकने हेतु 52वें संविधान संशोधन अधिनियम

भारत की संसद ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52वां संविधान संशोधन ऐक्ट (1985) सर्वसम्मति से पारित कर दिया। मोटे तौर पर इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान किए गए हैं-

(1) निम्न परिस्थितियों में संसद/ विधानसभा के सदस्य की सदस्यता समाप्त हो जाएगी-

(क) यदि वह स्वच्छा से अपने दल से त्यागपत्र दे दे।

(ख) यदि वह अपने दल या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति की अनुमति के बिना सदन में उसके किसी निर्देश के प्रतिकूल मतदान करे या मदतान में अनुपस्थित रहे, परन्तु यदि पन्द्रह दिन के अन्दर दल उसे इस उल्लंघन के लिए क्षमा कर दे तो उसकी सदस्यता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

(ग) यदि कोई निर्दलीय निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो गया।

(घ) यदि कोई मनोनीत सदस्य शपथ लेने के छह माह बाद किसी राजनीतिक दल में सम्मिलित हो जाए।

(2) किसी राजनीतिक दल के विघटन पर सदस्यता समाप्त नहीं होगी, यदि मूल दल के एक-तिहाई सांसद/ विधायक दल छोड़ दें।

(3) इसी प्रकार विलय की स्थिति में भी दल-बदल नहीं माना जाएगा, यदि किसी दल के कम से कम दो-तिहाई सदस्य उसकी स्वीकृति दें।

(4) दल-बदल पर उठे किसी भी प्रश्न पर अन्तिम निर्णय सदन के अध्यक्ष का होगा और किसी भी न्यायालय को उसमें हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा।

उच्च न्यायालय द्वारा दल-बदल विरोधी कानून वैध

दल-बदल कानून की वैधता को पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री प्रकाश सिंह बादल और 25 अन्य विधायकों ने चुनौती दी थी। ये सभी विधायक अकाली दल (लोंगोवाल) से पृथक् हो गए थे।

पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय ने 1 मई, 1987 को एक महत्त्वपूर्ण फैसले में दल बदल रोकने के लिए बनाए गए संविधान के 52वें संविधान संशोधन अधिनियम को वैध ठहराया, परन्तु न्यायालय ने इसकी धारा 7 को गैर-कानूनी घोषित किया। धारा 7 में यह प्रावधान है कि किसी सदस्य को अयोग्य ठहराए जाने के फैसले को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस फैसले के कुछ घण्टे बाद ही पंजाब विधानसभा के अध्यक्ष सुरजीत सिंह मिन्हास ने प्रकाश सिंह बादल सहित 11 विधायकों को अयोग्य घोषित कर, उनकी सीटों को रिक्त घोषित कर दिया।

दल-बदल रोकने हेतु 52वां संविधान संशोधन जैसा कानून बन जाने के बाद भी नागालैण्ड (1988), मिजोरम (1988), कर्नाटक (1989), गोवा (1990), नगालैण्ड (1990), मेघालय (1991), मणिपुर (1992), नगालैण्ड (1992) और मणिपुर 2001) में दल-बदल हुआ और इस कानून के प्रावधानों को लागू न कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना बेहतर समझा गया। वर्ष 1998-99 में गोवा दल-बदल और बदलती सरकारों के कारण सुर्खियों में रहा है। ‘आयाराम गयाराम’ के कारण 17 महीनों में गोवा में पांच मुख्यमंत्री बदल गए और फरवरी-जून 1999 में चार महीने तक राज्य राष्ट्रपति शासन झेलने को मजबूर हुआ। दल-बदल के कारण मणिपुर के राजनीतिक इतिहास में अस्थिरता एक स्थायी लक्षण बन गई है। मणिपुर को राज्य का दर्जा 21 जनवरी, 1972 को मिला था। तब से अब तक राजनीतिक स्थिरता कभी दिखी ही नहीं। राज्य बनने से अब तक एक भी सरकार ने पांच वर्ष पूरे नहीं किए हैं। राज्य में अब तक नौ मुख्यमंत्री बने हैं, लेकिन 18 बार सरकार बदली है। 22 फरवरी, 2000 को सम्पन्न सातवी विधानसभा के चुनाव में भाजपा को 6 और समता पार्टी को 1 सीट प्राप्त हुई थी वहां मई 2001 में दल-बदल के बाद भाजपा और समता मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच गए। 28 जुलाई, 1989 की राज्यसभा के सभापति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने मुफ्ती मोहम्मद सईद की राज्यसभा की सदस्यता दल-बदल अधिनियम के अन्तर्गत समाप्त करने की घोषणा की। दल बदल अधिनियम लागू होने के बाद उसके अधीन किसी सदस्य की सदस्यता समाप्त होने का यह पहला मामला था। मुफ्ती जम्मू-कश्मीर राज्य से राज्यसभा के सदस्य थे। वे कांग्रेस (इ) के टिकट पर चुने गए थे और बाद में उन्होंने जनता दल की सदस्यता ग्रहण कर ली थी। नवम्बर 1990 में केन्द्र में वी. पी. सिंह सरकार के पतन के पश्चात् जिस तरह चन्द्रशेखर के नेतृत्व में 54 सांसदों के एक गुट ने दल-बदल करते हुए समाजवादी जनता पार्टी के रूप में विपक्षी कांग्रेस के समर्थन से केन्द्र में दल-बदल के जरिए नई सरकार बनाई, वह निश्चय ही भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास की एक अपूर्व एवं निराली घटना थी। बाद में लोकसभा अध्यक्ष रविराय ने उनके मन्त्रिमण्डल के मात्र 5 सदस्यों को 52वें संशोधन के तहत दल-बदल का दोषी पाया और उनकी संसद की सदस्यता समाप्त कर दी। 19अक्टूबर, 1997 को कल्याण सरकार से मायावती द्वारा समर्थन वापस लेने के बाद कल्याणसिंह ने बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस, जनता दल और बहुजन समाज पार्टी का जो विभाजन करवाया वह एक प्रकार से दल बदल ही था। कल्याण सिंह ने विधानसभा में उनकी सरकार को समर्थन देने वाले हर दल-बदलू को मन्त्रिमण्डल में शामिल कर 93 सदस्यी मन्त्रिमण्डल बना डाला।

आलोचना (Criticism)- मुख्य निर्वाचन आयुक्त का सुझाव था कि दल-बदल रोकने के लिए संविधान के संशोधन की आवश्यकता नहीं है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम में परिवर्तन करना पर्याप्त होगा। पर इस प्रश्न के हर पक्ष पर विचार करने के बाद 1973 से ही सरकार का यह निष्कर्ष रहा कि संविधान का संशोधन अधिक उपयुक्त होगा। इसका मुख्य कारण यह है कि संवैधानिक संशोधन के बाद दल-बदल अधिनियम को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि इसके प्रावधान संविधान के प्रतिकूल हैं, या कि वे विधायकों के मूलभूत अधिकारों पर प्रहार करते हैं।

सदन की सदस्यता की समाप्ति पर दो मुख्य अनुच्छेद हैं- एक तो सीधा-सादा कि यदि कोई विधायक स्वेच्छा से अपने दल को छोड़ देता है तो उसकी सदस्यता भी समाप्त हो जाएगी। इस पर अधिक विवाद की गुंजाइश नहीं। दूसरे अनुच्छेद में यह व्यवस्था की गयी है कि यदि कोई विधायक बिना अनुमति के अपने दल के निर्देशन का उल्लंघन करते हुए सदन में मतदान करता है या मतदान में अनुपस्थित रहता है तो वह सदन का सदस्य नहीं रह सकेगा। ऐसा नहीं है कि हर स्थिति में अयोग्यता अनिवार्य रूप से लागूह ओगी। यदि मतदान के 15 दिन के अन्दर दल अपने सदस्य के आचरण को क्षमा कर देता है तो सदस्यता समाप्ति का प्रश्न नहीं उठेगा।

इस कानून के द्वारा दल-बदल को रोकने के लिए अपेक्षित परिणाम नहीं मिलने के परिणामस्वरूप समय-समय पर यह मांग की गई है कि दल-बदल विरोधी कानून को और शक्तिशाली बनाया जाए। इस बात की भी आलोचना की गई कि यह सामूहिक दल-बदल को स्वीकृति प्रदान करता है जबकि व्यक्तिगत दल-बदल को अवैध करार देता है। दूसरी ओर इस. कानून की इसलिए भी आलोचना की गई कि यह सदस्यों को बोलने की स्वतन्त्रता, कार्य करने की स्वतन्त्रता, जिसमें मत देने की स्वतन्त्रता भी शामिल है जैसे मूलभूत अधिकारों और उन्मुक्तियों का गम्भीर अतिक्रमण करता है। आलोचकों के अनुसार इस अधिनियम के माध्यम से ‘ह्विपतन्त्र’ की स्थापना की गई है।

10वीं अनुसूची की व्यवस्था के अनुसार एक-दो सदस्य यदि सैद्धान्तिक आधार पर दल-बदल करें तो स्वतः ही उनकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी, किन्तु यदि दल के एक-तिहाई सदस्य सामूहिक रूप से दल-बदल करें तो वह जायज माना जाएगा। भले ही इन सदस्यों ने निजी लाभ या पद पाने के लोभ से ही दल-बदल किया हो । अब तो यह भी विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इस विधेयक के कारण दल-बदल रोककर सरकार को स्थायित्व प्रदान किया ही जा सकेगा। बड़े राज्यों में सत्तारूढ़ दल के एक-तिहाई सदस्यों को तोड़ना कठिन होता है, परन्तु छोटे राज्यों में यह अब बड़ी आसान है। दल-बदल रोकने की दिशा में यह विधेयक शुभारम्भ ही माना जा सकता है।

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