राजनीति विज्ञान / Political Science

भारत के प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यकों का वर्णन कीजिए एवं इनकी समस्याओं को स्पष्ट कीजिए।

भारत के प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यक
भारत के प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यक

भारत के प्रमुख धार्मिक अल्पसंख्यक

यहां विभिन्न धर्मों के अल्पसंख्यों का प्रमुख समस्याओं का उल्लेख करेंगे।

मुस्लिम अल्पसंख्यक

वर्तमान में भारत के अल्पसंख्यकों में सर्वाधिक जनसंख्या मुसलमानों की 11.67 प्रतिशत है। अंग्रेजी शासनकाल में भारत की 40 करोड़ जनसंख्या में 9 करोड़ मुसलमान थे। अंग्रेजों के समय मुसलमानों का सर्वप्रथम संगठित आन्दोलन बहाबी आन्दोलन था जो प्रारम्भ में एक धर्म-सुधार आन्दोलन के रूप में प्रारम्भ हुआ और बंगाल के मुसलमान किसानों में भी फैला जिसने किसान विद्रोहों को जन्म दिया। 1857 के विद्रोह में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने अधिक भाग लिया। अतः अंग्रेजों ने उनके प्रति उपेक्षा की नीति अपनाई।

भारत में लम्बे समय तक मुसलमानों का शासन रहा। इस दौरान इनके संरक्षण की कोई समस्या नहीं थी, किन्तु अंग्रेजों ने शासन करने के लिए ‘फूट डालो और राज करों की नीति अपनाई तथा हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया। अंग्रेजों से पूर्व भारत में राजकाज की भाषा अरबी और फारसी थी जिसके स्थान पर अंग्रेजों ने अंग्रेजी भाषा का प्रयोग प्रारम्भ किया। 1906 में भारत में ‘मुस्लिम लीग’ की स्थापना की गई। इसी वर्ष मुसलमानों के लिए पृथक चुनाव क्षेत्रों एवं प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई। अंग्रेजों के शासनकाल में हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर स्वशासन और स्वतन्त्रता की मांग की, उन्होंने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। अभी तक हिन्दू और मुसलमान परस्पर सहयोग से रह रहे थे। 1929 में जिन्ना ने अपनी 14-सूत्री योजना प्रस्तुत की और 1940 में लाहौर के अधिवेशन में लीग ने मुसलमानों के लिए पृथक राज्य पाकिस्तान बनाने की घोषणा की। पाकिस्तान की मांग दो राष्ट्रों के सिद्धान्त पर आधारित थी। अर्थात् उनका मत था कि हिन्दू और मुसलमान दो पृथक एवं विशिष्ट राष्ट्र हैं। अतः इनके लिए पृथक-पृथक राज्य होने चाहिए। अन्ततः 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतन्त्र हुआ और उसके साथ ही देश का विभाजन भी हुआ।

पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी बहुत बड़ी संख्या में मुसलमान भारत में ही रह गये। 1991 की जनगणना के अनुसार देश की कुल जनसंक्या का 11.67 प्रतिशत भाग मुसलमानों का है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जब भारत में प्रजातन्त्र की स्थापना की गई और बहुमत के आधार पर जनप्रतिनिधि चुने जाने लगे तो अल्पसंख्यक मुसलमानों को यह भय पैदा हुआ कि बहुसंख्यक लोग उनके हितों की अनदेखी करेंगे, साथ ही उनमें अपनी सुरक्षा का भय भी पैदा हुआ जो कि निराधार एवं निर्मूल है। स्वतन्त्र भारत में मुसलमानों को भी अन्य लोगों की भांति ही कानून द्वारा समानता, स्वतन्त्रता एवं न्याय प्राप्त करने के अधिकार दिये गये हैं। वे देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। डॉ. जाकिर हुसैन और फखरुद्दीन अली अहमद देश के सर्वोच्च पद को सुशोभित कर चुके हैं। श्री हिदायतुल्लाह उपराष्ट्रपति रह चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में श्री हिदायतुल्लाह और एम.एच. . बेग कार्य कर चुके हैं। राज्यपाल के पद अलीयावरजंग, अकबर अली खां एवं सादिक अली, राजदूत के पद पर, एम.सी. छागला, लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष पद पर ए.आर. किदवई, एयर चीफ मार्शल के पद पर इदरिस हसन लतीफ कार्य कर चुके हैं। केन्द्र और राज्यों के सांसद, मंत्री और विधायक के रूप में एवं न्यायालयों के न्यायाधीश तथा भारतीय और प्रान्तीय प्रशासनिक सेवा के अनेक पदों पर कई मुसलमान कार्य कर चुके हैं तथा वर्तमान में भी कार्यरत हैं। फिर भी मुसलमानों की निम्नांकित शिकायतें और समस्याएं रही हैं

(1) विधानमण्डलों एवं प्रशासन के प्रतिनिधित्व से असन्तुष्टि- विधानमण्डलों एवं प्रशासनिक सेवाओं को लेकर मुसलमानों में यह असन्तोष रहा है कि इनमें उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है। देश की कुल जनसंख्या का 11.67 प्रतिशत भाग मुस्लिम जनसंख्या का है। कतिपय मुस्लिम संगठनों के अनसुआर 545 सदस्यों की लोकसभा में 62 स्थान पर मुस्लिम प्रतिनिधि होने चाहिए। किन्तु 1952 में 36, 1957 में 24, 1962 में 32, 1979 में 48, 1984 में 45 सदस्य थे।

इसी प्रकार से कुल आई.ए.एस. अधिकारियों की संख्या वर्तमान में 3,368 इनमें से 105 अधिकारी मुसलमान है। इन दोनों तथ्यों से स्पष्ट है कि लोकसभा व प्रशासनिक सेवाओं में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कम है।

(2) साम्प्रदायिक दंगे- स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश में अनेक बार साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। मेरठ, अहमदाबाद, बिहार शरीफ, रांची, जबलपुर, इन्दौर, भिवानी, मुरादाबाद, व्यावर एवं अलीगढ़ आदि अनेक स्थानों पर साम्प्रदायिकता की आग भड़कती रही है। इन दंगों के कारण मुसलमानों में बहुमत सम्प्रदाय के विरुद्ध असुरक्षा की भावना विकसित हुई।

(3) उर्दू भाषा का प्रश्न – मुसलमानों ने समय-समय पर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में उर्दू को राजभाषा का दर्जा दिलाने की मांग की है। कुछ राजनीतिक दलों ने यह प्रचार किया कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है। उर्दू भाषा का प्रश्न एक साम्प्रदायिक प्रश्न बन गया।

(4) अलीगढ़ विश्वविद्यालय का मामला- अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के संगठन और कार्य प्रणाली में सुधार लाने की दृष्टि से सन् 1965 में भारत सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया। चूंकि मुसलमान लोग उस विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक सवरूप को बनाए रखना चाहते हैं, अतः उन्होंने इस अध्यादेश का विरोध किया।

(5) मुस्लिम पर्सनल लॉ- भारतीय संविधान में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि देश के सभी नागरिकों के लिए एक ही सिविल कोड होगा। भारत सरकार समाज सुधार की दृष्टि से मुसलमानों के पर्सनल लॉ में कुछ परिवर्तन करना चाहती है जिससे कि इस समुदाय का आधुनिकीकरण हो सके। इस दृष्टि से सरकार ने मुसलमानों की बहुविवाह पद्धति एवं तलाक के नियमों में हस्तक्षेप किया। इस बाद से अनेक रूढ़िवादी मुसलमान रुष्ट हो गए। उनका कहना है कि विवाह सम्बन्धी मुस्लिम कानून शरीयत पर आधारित हैं जिसमें हस्तक्षेप करना धर्म विरुद्ध है।

स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में मुसलमानों का कोई भी दल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बन सका। राजनीति दो प्रकार के मुस्लिम संगठनों ने भाग लिया एक वे जो शुद्ध राजनीतिक संगठन हैं: जैसे मुस्लिम लीग, मुस्लिम, मजलिस आदि। दूसरे वे जो मूलरूप में अराजनीतिक संगठन हैं, जैसे जमायते इस्लामी, मुशावरत, जमीय तुल, इलामा आदि।

ईसाई अल्पसंख्यक ( Christian Minority)

भारत में धार्मिक अल्पसंख्यको में मुसलमानों के बाद ईसाईयों का स्थान है। 1991 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत 2.32 था। अंग्रेजी शासनकाल में ईसाई लोगों का शासन रहा। भारत के अधिकांश ईसाई यहीं के निवासी और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव के कारण अपना धर्म परिवर्तन कर वे ईसाई बने हैं। ईसाइयों ने राजनीति की अपेक्षा अपनो को सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक कार्यों में लगा रखा है। अंग्रेजों के समय इनके संरक्षण की कोई समस्या नहीं थी। अंग्रेजों के बाद भारतीय ईसाइयों ने अपनी सुरक्षा में सन्देह प्रकट किया और उन्होंने योरोप में बसने की इच्छा प्रकट की। इधर ईसाइयों की की वफादारी में शंका प्रकट की जाने लगी और उन्हें विघटनकारी तत्व समझा जाने लगा, क्योंकि उन्होंने लालच और बल के आधार पर हिन्दुओं को ईसाई बनाया। हिन्दुओं को अपने धर्म से च्युत करने के लिए करोड़ों रुपया प्रतिवर्ष विदेशों से आने लगा। मणिपुर, असम, नगालैण्ड एवं मेघालय आदि राज्यों में ईसाइयों की संख्या बढ़ने लगी। उन्होंने कई जनजातीय एवं अछूत व निम्न जातियों के लोगों ईसाई बनाया।

ऐसी स्थिति में 22 दिसम्बर, 1978 को ओमप्रकाश त्यागी ने लोकसभा में ‘धर्म स्वतन्त्र विधेयक’ के नाम से एक विधेयक प्रस्तुत किया। इस विधेयक की धारा तीन के अन्तर्गत “कोई भी प्रत्यक्षतः या बलपूर्वक या उत्प्रेरण द्वारा या प्रवंचन द्वारा या किन्हीं कपटपूर्ण साधनों द्वारा एक धार्मिक विश्वास से दूसरे में परिवर्तित नहीं करेगा और न ही इस तरह के प्रयास के लिए दुष्प्रेरणा देगा, यदि ऐसा करेगा तो ऐसे व्यक्ति को एक वर्ष तक का कारावास और तीन हजार रुपये तक का जुर्माना हो सकेगा।” इस विधेयक के विरुद्ध ईसाई समाज के विरोध को देखते हुए इसे पारित नहीं किया गया।

‘ईसाइयों के प्रति शंका का एक कारण यह भी रहा है कि ईसाई धर्म स्वीकार करने वाली जनजातियों ने पृथकतावादी आन्दोलन को जन्म दिया, साथ ही हिन्दू एवं अन्य लोगों में धर्म परिवर्तन की शंका एवं भय को गहरा किया, इस प्रकार ईसाइयों ने भी भारतीय समाज में एकीकरण की समस्या पैदा की।

सिख अल्पसंख्यक

1991 की जणणना के अनुसार भारत में सिखों की जनसंख्या 1.63 करोड़ अर्थात् कुल जनसंख्या 1.99 प्रतिशत भाग है। स्वतन्त्रता के बाद सिखों ने पंजाबी सूबे की मांग की। अकाली दल ने आन्दोलन प्रारम्भ किया और कहा कि सिखों की भाषा एवं संस्कृति के आधार पर एक पृथक राज्य का निर्माण किया जाना चाहिए। सन् 1967 में पंजाब का विभाजन कर हरियाणा और पंजाब राज्य बनाये गये। इस नवगठित पंजाब में सिखों की जनसंख्या 61 प्रतिशत हो गई। सिखों को केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल, संसद तथा विधानसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त है। ज्ञानी जैलसिंह भारत के राष्ट्रपति रह चुके हैं। सेना, पुलिस एवं प्रशासन में भी सिखों का प्रतिनिधित्व बहुत है। इस सब रके बावजूद सिखों ने एक पृथक राज्य खालिस्तान की मांग की है। अकाली दल के कई नेताओं ने यह धमकी दी कि भारतीय संघ के अन्तर्गत यदि राज्य को स्वायत्तता प्रदान नहीं की गई तो वे जन आन्दोलन का सहारा लेंगे। खालसा पंथ का कहना है कि सिखों को धोखाधड़ी से भारतीय गणतन्त्र में शामिल होने के लिए मजबूर कर दिया ता। पथ यह भी कहता है कि भारत के हिन्दू बहुमत ने एकजुट होकर इस बात पर जोर देते हुए कि सिख धर्म हिन्दू धर्म कता ही अंग है, सिख धर्म को बर्बाद करने की कोशिश की और उनकी पंजाबी भाषा को एक बोली मात्र घोषित करके और पंजाब को द्विभाषी प्रदेश बनाकर उनकी भाषा को नीचा दिखाने की कोशिश की। अतः आनन्दपुर साहिब में आयोजित शैक्षिक सम्मेलन के मंच से पृथक राज्य की मांग की गई। इस आन्दोलन को भारतीय और विदेशों में रहने वाले अनेक सिखों का समर्थन प्राप्त है। यह मांग चिन्ता का विषय इसलिए बन गयी है क्योंकि इसका नेतृत्व कुछ मुट्ठी भर उग्र तत्वों एवं आतंकवादियों के हाथ में आ गया है, जिन्होंने देश की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या कर दी एवं आये दिन देश के विभिन्न भागों में हिंसा, लूटपाट, बैंक डकैती, सामूहिक हत्या, आदि की घटनाएं करते रहते हैं। आतंकवादी गतिविधियों का नियन्त्रण करने के लिए स्वर्ण मन्दिर पर दो बार सैनिक कार्यवाही करनी पड़ी। जुलाई 1985 में केन्द्र सरकार और अकाली दल के मध्य पंजाब समस्या के समाधान के लिए तथा सिखों के घावों को भरने एवं टूटने को जोड़ने के लिए एक समझौता हुआ, किन्तु यह समझौता भी समस्या का समाधान नहीं कर सका है। जैन, बौद्ध और ईसाई भी भारत में अल्पसंख्यक समुदाय हैं, किन्तु इन्होंने देश की एकता और राजनीतिक दृष्टि से किसी गम्भीर समस्या को जन्म नहीं दिया है।

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