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हिन्दू धर्म एवं हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त

हिन्दू धर्म एवं हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त
हिन्दू धर्म एवं हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त

हिन्दू धर्म को स्पष्ट कीजिए

हिन्दू धर्म भारत का सबसे प्राचीन धर्म है जो ईसा के लगभग 3,000 वर्ष पूर्व आर्यों के साथ ही भारत में आया था। प्रारम्भ में इसे आर्य धर्म कहा जाता था। वेदों की रचना के साथ इसे वैदिक धर्म कहा गया। पुराणों एवं स्मृतियों की जब रचना हुई तो इसे पौराणिक धर्म कहा गया और जब भारत को हिन्दुस्तान कहने लगे तो यहाँ के निवासियों के धर्म को हिन्दू धरम की संज्ञा दी गयी। भारत में सर्वाधिक 82.41 प्रतिशत लोग हिन्दू धर्म को मानने वाले हैं।

पी.वी. काणे ने धर्म को परिभाषित करते हुए बताया है, “धर्मशास्त्र के लेखकों ने धर्म का अर्थ एक मत या विश्वास नहीं माना है, अपितु उसे जीवन के एक ऐसे तरीके या आचरण की एक ऐसी संहिता माना है जो एक व्यक्ति के समाज के सदस्य के रूप में और एक व्यक्ति के रूप में कार्य एवं क्रियाओं को नियमित करता है और जो व्यक्ति के क्रमिक विकास की दृष्टि से किया जाता है और जो इसे मानव अस्तित्व के उद्देश्य तक पहुंचाने में सहायता करता है।”

स्पष्ट है कि भारतीय धर्मग्रन्थों में धर्म का प्रयोग संकुचित अर्थों, किसी सम्प्रदाय विशेष के विचार मात्र को व्यक्त करने तथा केवल अलौकिक सत्ता के सम्बन्ध में विश्वासों को प्रकट करने के लिए नहीं हुआ है। इसका प्रयोग व्यापक अर्थों में हुआ है। धर्म मानव के कर्त्तव्य बतलाता है, उसे सत्य की ओर अग्रसर करता है, उसके व्यवहार को दिशा देता और उचित अनुचित का बोध कराता है, धर्म की समाजशास्त्रीय विवेचना के रूप में धर्म के अन्तर्गत उन सब कर्त्तव्यों को लिया जा सकता है जो व्यक्ति के जीवन को सफल बनाने की दृष्टि से आवश्यक है।

वेद हिन्दू धर्म के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। इन पर आधारित धर्म को वैदिक धर्म कहा गया है। वैदिक धर्म विकसित हुआ और काल-क्रम के साथ उत्तर वैदिककालीन वेदों, ब्राह्मणों ग्रन्थों, आरण्यकों, उपनिषदों में प्रस्फुटित हुआ। सुविधा के लिए प्रारम्भिक धर्म को ऋग्वैदिक अथवा पूर्व-वैदिक धर्म कहा जाता है एवं परवर्ती धर्म को उत्तर वैदिक ऋग्वेदिक धर्म के प्रधान दो अंक थे- देवता और यज्ञ विभिन्न देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए आर्य यज्ञ एवं अनुष्ठान आदि में बलि देते थे। ऋग्वेद में ‘देवता’ शब्द का विशेष अर्थों में प्रयोग हुआ है। सामान्यतः इसका अभिप्राय दिव (चमकनां) धातु से निर्मित शब्द से लिया जाता है जिसका अर्थ है चमकने वाला हालांकि यह शब्द वैदिक धर्म में अपनी अलग विशेषता रखता है।

पूर्व-वैदिककालीन धर्म बहुदेववादी देवों का मानवीकरण था। उन्होंने प्राकृतिक लीलाओं को सुगमता से समझने के लिए विभिन्न देवताओं की कल्पना की। वे मानते थे कि विश्व विभिन्न देवों की क्रीड़ा-स्थली है और इन्हीं देवों के अनुग्रह से विश्व के समस्त कार्य संचालित होते हैं। और इन्हीं के कारण विभिन्न प्राकृतिक घटनाएँ घटित होती हैं। आर्यों का देव समूह प्रकृति का दैवीकरण है। ऋग्वेद में कुल 33देवता माने गये हैं। इनमें इन्द्र, अग्नि तथा सोम सर्वश्रेष्ठ हैं।

ऋग्वेद काल में बहुदेववाद और प्रकृति उपासना का समन्वय था। यह कहा जा सकता है कि प्रकृतिक की उपासना लाक्षणिक थी। वास्तव में, प्रकृति की पूजा अथवा उपासना तो सिन्धु घाटी के निवासियों में भी प्रचलित थी। प्रकृति की शक्ति का साक्षात्कार मनुष्य को सबसे पहले हुआ, परिणामस्वरूप इसी शक्ति ने देवताओं को आरोपित किया होगा। इस प्रकार ऋग्वेदिक धर्म प्रकृति पूजा पर ही आधारित बहुदेववाद था।

ऋग्वेद में एकेश्वरवाद का स्पष्ट संकेत मिलता है, यह भी उनकी आध्यात्मिक उन्नति की चरम सीमा है। इन सब देवों से अलग उन्होंने एक ऐसी सत्ता की कल्पना की जो समस्त सृष्टि को जन्म देने वाली है। वह शक्ति और कोई नहीं स्वयं ईश्वर है।

ऋग्वेद नैतिक आदर्शों को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। नैतिक आदर्शों की महानता पर ही किसी धर्म का महत्त्व समाज में स्थापित हो सकता है। केवल दर्शन ही धर्म में सब कुछ नहीं होता। नैतिक आदर्श मानव के निकटतम सम्बन्धों को सुन्दरतम बनाने में सहायता करते हैं। आर्य झूठ को अत्यधिक घृणित समझते थे। प्राचीन आर्यों में अतिथि सत्कार का विशेष | महत्त्व था।

हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त

हिन्दू धर्म के प्रमुख सिद्धान्त या आधार निम्नलिखित हैं-

(1) धर्मशास्त्रीय विचार (Theological Ideas)— हिन्दू धर्म कुछ समय विश्वासों एवं विचारों पर आधारित हैं। उनमें से प्रमुख हैं— आध्यात्मवाद, पाप-पुण्य, कर्म, धर्म, मोक्ष, पुनर्जन्म, आत्मा की अनश्वरता, आदि। धर्म का सिद्धान्त व्यक्ति को कर्तव्य निर्वाह एवं ईश्वर भजन की प्रेरणा देता है।

(2) अपवित्रता एवं पवित्रता (Pollution and purity) — पवित्रता एवं अपवित्रता का सम्बन्ध जन्म, विवाह, मासिक धर्म, मृत्यु एवं प्रार्थना से जोड़ा गया है। भोजन, स्पर्श, शारीरिक दूरी एवं विवाह तथा जातीय भेदभाव में पवित्रता व अपवित्रता पर विचार किया जाता है। शाकाहरी भोजन पवित्र है और मांसाहारी अपवित्र ।

(3) संस्तरण (Hierarchy) — हिन्दू धर्म में संस्तरण ( उच्चता एवं निम्नता) का विचार विद्यमान हैं। यह संस्तरण जीवन के अनेक क्षेत्रों में देखा जा सकता है। वर्ण, जाति, गुण एवं जीवन के लक्ष्यों में संस्तरण व्याप्त हैं। इसी आधार पर चार वर्ण माने गये हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।

(4) मूर्ति पूजा (Idol worship)- हिन्दू धर्म की एक विशेषता है मूर्ति पूजा ईश्वर को साकार मानकर राम, कृष्ण, हनुमान, सीता, दुर्गा, शिव, गणेश, आदि की पूजा हिन्दुओं द्वारा की जाती है।

(5) एकेश्वरवाद एवं बहुदेववाद (Monotheism and Plytheism)– हिन्दुओं में अनेक देवताओं की कल्पना की गई है। जल, वायु, अग्नि, आदि सभी के अलग-अलग देवता हैं किन्तु ये सभी एक ही ईश्वर के अनेक रूप हैं, उनके नाम अलग-अलग हैं।

(6) सहिष्णुता (Tolerance) – हिन्दू धर्म सहिष्णुता प्रधान है, इसलिए ही इसमें अनेक मत-मतान्तर एवं सम्प्रदाय हैं। ईश्वर को अनेक रूपों में पूजने की स्वीकृति दी गई है।

(7) पृथकता (Segregation)– हिन्दू धर्म में पूजा, धार्मिक कृत्यों, सामाजिक सम्बन्धों एवं जातियों में पृथकता के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। जातियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पृथक्-पृथक् हैं, उनके सामाजिक सम्बन्धों में भी भिन्नता है। विभिन्न देवी देवताओं की पूजा आराधना में भी पृथकता पायी जाती है।

(8) अहिंसा (Ahinsa)— हिन्दू धर्म अहिंसावादी है। यह सभी जीवों के संरक्षण एवं उन पर दया करने में विश्वास करता है क्योंकि उनमें भी आत्मा होती है और वे भी ईश्वर के अंश हैं।

(9) आश्रम व्यवस्था ( Ashramas) — हिन्दुओं ने जीवन अवधि को 100 वर्ष मानकर उसके चार भाग किये और प्रत्येक भाग को एक आश्रम माना। चार आश्रम ब्राह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम।

( 10 ) पुरुषार्थ ( Purusharth) — हिन्दुओं में जीवन के चार उद्देश्य बताये गये हैं। जिन्हें पुरुषार्थ कहा गया है। वे हैं— धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। धर्म का अर्थ कर्तव्यों का पालन है, अर्थ में वह अर्जन कर जीवन यापन करता है। काम पूर्ति से सन्तानों को जन्म देता है तथा अन्त में जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति पाने का प्रयत्न कर मोक्ष प्राप्त करता है। सभी हिन्दुओं के जीवन के ये चार लक्ष्य माने गये हैं।

(11) महायज्ञ – हिन्दू धर्म में पंच महायज्ञों को महत्त्व दिया गया है जो निम्नांकित है-

(1) ब्रह्म यज्ञ- स्वाध्याय के द्वारा इस यज्ञ का अनुष्ठान होता था। मनुष्य स्वाध्याय के माध्यम से अपने प्राचीन ऋषियों के प्रति आदर प्रकट करता था। (2) देव यज्ञ— देवताओं को प्रसन्न रखने के लिए प्रातः एवं सायंकाल इन्द्र, अग्नि, सोम, पृथ्वी, आदि देवताओं के नाम के साथ ‘स्वाहा’ कहने के साथ अग्नि में आहुति दी जाती थी। (3) भूत यज्ञ— पृथ्वी, जल, वायु, आकाश, आदि को भोजन देने से इस यज्ञ का अनुष्ठान होता था (4) पितृ यज्ञ- पितरों के तर्पण, श्राद्ध, आदि का आयोजन इस यज्ञ के अन्तर्गत होता था। (5) मनुष्य यज्ञ- मनुष्य मात्र की सहायता एवं उत्तरदायित्व की भावना से यह यज्ञ पूरा होता था। इन यज्ञों के साथ ही हिन्दू धर्म के तीन ऋणों का उल्लेख भी मिलता है – (i) देव ऋण, (ii) ऋषि ऋण, (iii) पितृ ऋण मनुष्य का यह नैतिक कर्तव्य बनता था कि वह इन ऋणों से उऋण होने के लिए प्रयत्नशील रहे।

(12) संस्कार- हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों का महत्त्व भी है। स्त्री के गर्भ धारण करने से दाह संस्कार तक सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है। प्रमुख संस्कार निम्न थे गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, नामकरण निष्क्रमण, चूड़ा कर्म, उपनयन, वेदारम्भ, समावर्तन एवं विवाह संस्कार |

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