भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका एक वरदान है या अभिशाप
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का मूल्यांकन करना अत्यन्त कठिन कार्य है। कई लोग जाति को ‘राजनीति का केन्सर’ मानते हैं। जाति प्रथा को राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधक माना जाता है क्योंकि इससे व्यक्तियों में पृथकतावाद की भावना जाग्रत होती है। राष्ट्रीय हितों की अपेक्षा अपने जातिगत हितों को अधिक महत्त्व देने लगते हैं। जातिगत निष्ठाओं का सृजन कर यह प्रथा लोकतन्त्र के विकास मार्ग को अवरुद्ध कर देती है। डी. आर. गाडगिल के अनुसार, ‘क्षेत्रीय दबावों से कहीं ज्यादा खतरनाक बात यह है कि वर्तमान काल में जाति व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बांधने में बाधक सिद्ध हुई।’ प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम. एन. श्रीनिवासन् का स्पष्ट मत है कि परम्परावादी जाति व्यवस्था ने प्रगतिशील और आधुनिक राजनीतिक व्यवस्था को इस तरह प्रभावित किया है कि ये राजनीतिक संस्थाएं अपने मूलरूप में कार्य करने में समर्थ नहीं रही हैं।
दूसरी तरफ अमरीकी लेखकों रुडोल्फ एण्ड रुडोल्फ का मत है कि जाति व्यवस्था ने जातियों के राजनीतिकरण में सहयोग देकर परम्परावादी व्यवस्था को आधुनिकता के सांचे में ढालने का कार्य किया है। वे लिखते हैं, “अपने परिवर्तित रूप में जाति व्यवस्था ने भारत में कृषक समाज में प्रतिनिधि लोकतन्त्र की सफलता तथा भारतीयों की आपसी दूरी कम करके उन्हें अधिक समान बनाकर समानता के विकास में सहायता दी है।”
राजनीति में जाति के प्रभाव का एक अन्य पक्ष भी है। यदि एक और जाति ने समाज को टुकड़ों में बांटने वाले तत्व की भूमिका अदा की है तो दूसरी ओर इसने जोड़ने वाले तत्व का भी कार्य किया है, जिसकी ओर कम ध्यान दिया गया है। भारतीय समाज में जाति प्रभावदायक सम्पर्क सूत्र तथा नेतृत्व और संगटन का आधार प्रदान करती है और उन व्यक्तियों को भी प्रजातान्त्रिक प्रक्रिया में भाग लेने की क्षमता प्रदान करीत है जो परम्परागत दृष्टि से समाज के निचले स्तर पर हैं। एक अन्य तत्व यह है कि “जाति पर राजनीतिक व्यवस्था के प्रभाव के परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था में अधिक विवेकात्मकता का संचार हुआ है।” जाति व्यवस्था के परिणामस्वरूप ही राजनीतिक शक्ति उन वर्गों या समूहों के हाथों में पहुंच सकी है, जो अब तक उससे वंचित थे। वस्तुतः अब तक राजनीति में जाति की भूमिका को गलत रूप में समझा गया और उसके सकारात्मक योगदान की अवहेलना की गयी है।
निष्कर्ष – भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका के प्रसंग में कुछ बातें निष्कर्ष रूप में कही जा सकती हैं: प्रथम, जाति प्रथा किसी न किसी रूप में विश्व के हर देश में पायी जाती है और विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत में जाति का तत्व अधिक प्रभावशाली स्थित रखता है। आधुनिकीकरण की प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप जाति का तत्त्व लगभग पूर्णतया समाप्त हो जाएगा, यह सोचने का कोई आधार नहीं है। कोई भी सामाजिक तन्त्र पूर्णतया समाप्त नहीं हो सकता। राजनीति में जाति के तत्व का प्रभाव बना ही रहेगा, क्योंकि राजनीति का खेल शून्य में नहीं खेला जा सकता, यह खेल सामाजिक जीवन में ही संचालित होता है। राजनीति में जाति के तत्व की भूमिका है और बनी रहेगी, आवश्यकता इस बात की है कि जाति का तत्त्व अपनी सीमाओं में रहे।
द्वितीय, राजनीति में जाति का तत्त्व वरदान है या अभिशाप, इस प्रकार के प्रश्न का कोई महत्त्व नहीं है। जाति की भूमिका एक स्वाभाविक तत्त्व है और जाति की भूमिका सम्पूर्ण अंशों में न तो वरदान है और न ही अभिशाप; जाति के तत्त्व का प्रभाव हितकारी होगा या अहितकारी, यह तो जातिगत तत्व की मात्रा और उसके स्वरूप पर निर्भर करता है। यदि जाति का तत्त्व अपने उदार रूप में है और कमजोर वर्गों को विकास के मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है तो यह पूर्णतया वांछित स्थिति है, लेकिन यदि जाति का तत्व अपनी सीमाओं को लांघकर राजनीति का सर्वप्रमुख निर्धारक तत्व बन जाता है और अन्य जातियों के साथ टकराव की प्रेरणा देता है, तो इसमें अनौचित्य के अतिरिक्त क्या शेष रह जाता है? बुराई धर्म और जाति में नहीं है, बुराई तो धार्मिक कट्टरता और जातीय कट्टरता में है। यह जातीय कट्टरता जातीय हिंसा का कारण बनती है और न केवल राजनीति, वरन् समस्त सामाजिक जीवन को विषाक्त कर देती है। आज बिहार, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु आदि राज्यों में यही स्थिति है। बिहार में ‘रणवीर सेना’ (राजपूतों या ज़मींदारी की सेना) और माले (दलित वर्ग) या एम.सी.सी. के बीच खूनी जंग छिड़ी हुई है। उत्तर प्रदेश में विभिन्न जातियों के बीच, विशेषतया यादव आदि अन्य पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के बीच आपसी विरोध की कोई सीमा नहीं रही है। जातियों ने अपने आपको सीधे ही राजनीतिक दलों के साथ जोड़ लिया है और अपराधी गिरोहों के साथ जुड़ी हुई दलीय राजनीति का अंग बनकर रह गई हैं। इसी प्रकार तमिलनाडु के दक्षिणी जिलों में अन्य पिछड़ी जातियों (थेवर और नाडार) के साथ दलित जातियों के संघर्ष की स्थितियों ने बहुत गंभीर रूप ले लिया है। आरक्षण की राजनीति ने भी जातिगत भेदों को और गहरा कर दिया है। ये जातीय संघर्ष लोकतंत्र की दृष्टि से बहुत घातक हैं।
प्रश्न यह है कि राजनीति में इस जातिगत विद्वेष के लिए उत्तरदायी कौन है? इस प्रसंग में सामान्य जन की तुलना में अभिजन का दायित्व अधिक है और मूल रूप से तो दलीय राजनीति और चुनावी राजनीति ही दोषी है। गत एक दशक से स्थिति यह है कि राजनीतिक दल आर्थिक विकास का कोई कार्यक्रम जनता के सामने प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। चुनावों में आर्थिक और राजनीतिक विकास के कोई मुद्दे नहीं हैं और राजनीतिक खेल धार्मिक भेदों तथा अगड़ों, पिछड़ों और दलितों को आपस में बांटकर खेला जा रहा है। राजनीतिक दल ‘वोट राजनीति की प्रेरणा’ से जातिगत विद्वेष का वातावरण बना रहे हैं। राजनीतिक दल विकास की ओर उन्मुख राजनीति को अपनाव, चुनावों में जनता के सामने आर्थिक विकास वैकल्पिक कार्यक्रम प्रस्तुत करें तभी राजनीति में जाति की भूमिका को मर्यादित किया जा सकेगा और इस भूमिका को रचनात्मक दिशा दी जा सकेगी। आवश्यकता इस बात की है कि जाति जो रूप ऊंच नीच का भेद उत्पन्न करने वाला और टकराव के लिए प्रेरित करने वाला है, उसे समाप्त किया जाय, लेकिन राजनीति में जाति की जो स्वस्थ उदारवादी और सम्पर्क सूत्र प्रदान करने वाली भूमिका है, उसे न केवल बनाये रखा जाना चाहिए, वरन् विकसित किया जाना चाहिए।
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