राजनीति विज्ञान / Political Science

भारतीय राजनीति में भाषाई विस्तार का उल्लेख कीजिए।

भारतीय राजनीति में भाषाई विस्तार
भारतीय राजनीति में भाषाई विस्तार

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भारतीय राजनीति में भाषाई विस्तार

प्रो मॉरिस जोन्स लिखते हैं, “क्षेत्रवाद और भाषा के सवाल भारतीय राजनीति के इतने ज्वलन्त प्रश्न रहे हैं और भारत के हाल के राजनीतिक इतिहास की घटनाओं के साथ इनका इतना गहरा सम्बन्ध रहा है कि अक्सर ऐसा लगता है कि यह राष्ट्रीय एकता की सम्पूर्ण समस्या है।”

भारत एक बहुभाषी देश है। सन् 1902 की एक गणना के अनुसार भारत में 179 भाषाएं एवं 544 स्थानीय भाषाएं (Dialects) थीं और सन् 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में 771 भाषाएं एवं स्थानीय भाषाएं विद्यमान थीं। 1961 और 1971 की जनगणनाओं ने मातृभाषाओं के रूप में 1952 भाषाओं की गणना की थी। यदि हम स्थानीय और क्षेत्र विशेष की भाषाओं को छोड़ भी दें तो भारत में प्रमुख रूप से प्रचलित भाषाओं की संख्या 22 है, जिनके अन्तर्गत देश की 90 प्रतिशत से अधिक जनता आ जाती है। प्रारम्भ में हमारे संविधान में 14 भाषाओं को स्वीकार किया गया जिनके नाम हैं—असमी, बंगाली, गुजराती, हिन्दी कन्नड़, कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, तमिल, तेलुगु, संस्कृत एवं उर्दू। बाद में सिन्धी भाषा को भी संविधान में सम्मिलित कर लिया गया। अतः संख्या 15 हो गयी। अगस्त 1992 में हुए 71वें संविधान संशोधन के अनुसार कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली को और सम्मिलित कर लिया गया, तब यह संख्या 18 हो गयी; 92वें संवैधानिक संशोधन (2003 ई.) के आधार पर बोदो, डोगरी, मैथिली और संथाली को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया गया है। इस प्रकार अब इन भाषाओं (प्रादेशिक भाषाओं) की संख्या 22 हो गई है। भौगोलिक दृष्टि से भारत के पूर्वी तट की चार भाषाएं क्रमशः तमिल, तेलुगू, उड़िया और बंगला पश्चिमी तट की चार भाषाएं क्रमशः मलयालम, कन्नड़, मराठी एवं गुजराती, ठेठ उत्तर में कश्मीरी एवं उत्तर-पश्चिम में पंजाबी और मध्य क्षेत्र की भाषा हिन्दी है। हिन्दी से सम्बन्धित राज्य हैं हरियाणा, राजस्थान, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश एवं केन्द्र शासित दिल्ली चण्डीगढ़, आदि। उर्दू संस्कृत तथा सिन्धी भाषा से सम्बन्धित कोई विशेष भाग नहीं हैं, परन्तु थोड़ी-बहुत मात्रा में इनका सर्वत्र प्रयोग होता है।

भाषागत विविधता (Diversity of Languages)– भाषा की विविधता भारतीय समाज की विलक्षणता है। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की जनता भिन्न-भिन्न भाषा बोलती है। इन भाषाओं में तथा इनकी लिपियों में बहुत अधिक अन्तर है। उत्तर भारत का निवासी दक्षिण की भाषा नहीं समझ पाता और न ही दक्षिण का निवासी उत्तर की भाषा एक राजस्थानी के लिए बंगाली भाषा भाषी भाषा के सन्दर्भ में विदेशी ही है। भाषागत विविधता को खराब बात नहीं है। भाषागत विविधता से एकता बढ़ाने में थोड़ी कठिनाई अवश्य होती है, किन्तु यदि एक ऐसी सम्पर्क भाषा हो जो विविध भाषा-भाषी व्यक्तियों को एकता के सूत्र में बांधे रख सके तो इस कठिनाई का आसानी से निवारण हो सकता है।

संविधान सभा में विचार-विमर्श (Discussions in Constituent Assembly)- संविधान सभा में जब इस प्रश्न पर वाद-विवाद हुआ कि देश की राजभाषा क्या हो तो वहां बहुत सी भाषा सम्बन्धी हठधर्मी देखी गयीं और उत्तेजनापूर्ण दृश्य सामने आए। राजभाषा के रूप में किसी एक देशी भाषा को मान्यता देने की संविधान निर्माताओं की आकांक्षा ‘राजभाषा आयोग’ के इन शब्दों से स्पष्ट हो जाती है- “हम देश के सांस्कृतिक जीवन की अनन्यता को दृढ़ करने वाले तत्वों की अभिव्यक्ति के लिए माध्यम की खोज करते हैं। सदियों के बाद पुनः प्राप्त इस राजनीति एकता के साथ-साथ भाषायी एकता भी हम पाना चाहते हैं। इस एकता की प्राप्ति हम अंग्रेजी भाषा का स्थानापन्न किसी देशी भाषा को बनाना चाहते हैं तथा सभी प्रादेशिक भाषाओं में हिन्दी को राष्ट्रभाषा इसलिए चुना गया है कि इसके बोलने वालों की संख्या सबसे अधिक है।”

संघ की भाषा (The Language of he Union)- संविधान के अनुच्छेद 343, 344 में संघ की भाषा के सम्बन्ध में प्रावधान इस प्रकार हैं- (1) देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी संघ की राजभाषा होगी। (2) संविधान के आरम्भ में 15 वर्ष तक अंग्रेजी भाषा का प्रयोग संघ के सरकारी कार्यों में यथापूर्व जारी रहेगा, परन्तु इस अवधि के भीतर ही राष्ट्रपति हिन्दी के साथ-साथ प्रयोग किए जाने का अधिकार प्रदान कर सकते हैं। (3) पन्द्रह वर्षों के उपरान्त भी संसद किन्हीं विशिष्ट प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी का प्रयोग जारी रखने की अनुमति दे सकती है, परन्तु 1963 में ही संविधान के अनुच्छेद 343(3) के अधीन राजभाषा अधिनियम प्रस्तुत किया गया जिसके अनुसार 1965 के बाद भी अंग्रेजी अनिश्चित काल तक बनी रहेगी। (4) संविधान के अंगीकृत होने के पांच वर्ष बाद राष्ट्रपति एक भाषा आयोग की स्थापना करेंगें जो हिन्दी भाषा के प्रयोग में क्रमिक वृद्धि, अंग्रेजी के प्रयोग को धीरे-धीरे कम करने तथा तत्सम्बन्धी अन्य प्रश्नों व समस्याओं के सम्बन्ध में सिफारिशें करेगा। संविधान के अंगीकृत होने के दस वर्ष बाद राष्ट्रपति इसी प्रयोजन के लिए आयोग की स्थापना करने को बाध्य हैं। आयोग सिफारिश करते समय भारत की औद्योगिक, सांस्कृतिक तथा वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ अहिन्दी भाषी क्षेत्रों के निवासियों के सरकारी पदों के लिए न्यायोचित दावों समिति आनुपातीय प्रतिनिधित्व के आधार पर बनायी जाएगी जिसमें लोकसभा के 20 सदस्य तथा राज्यसभा के 10 सदस्य होंगे। यह संसदीय समिति आयोग की सिफारिशों पर अपना प्रतिवेदन राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करेगी। राष्ट्रपति इस प्रतिवेदन के आधार पर निर्देश जारी कर सकते हैं।

संसदीय समिति ने आयोग के प्रतिवेदन की जांच कर कहा कि संघ तथा राज्यों में अंग्रेजी के स्थान पर धीरे-धीरे हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग किया जाना चाहिए।

प्रादेशिक भाषाएं (Regional Languages)— संविधान के अनुच्छेद 345 के अनुसार प्रत्येक राज्य के विधानमण्डल को यह अधिकार है कि वह राज्य के समस्त अथवा सरकारी कार्यों के लिए एक या अधिक भाषाएं अंगीकार कर ले, किन्तु राज्यों के परस्पर सम्बन्धों में तथा संघ और राज्यों के परस्पर सम्बन्धों में संघ की राजभाषा ही प्राधिकृत भाषा मानी जाएगी। कुछ राज्यों में अल्पसंख्यकों के भाषा सम्बन्धी हितों की रक्षा के लिए संविधान में कुछ विशेष उपबन्ध रखे गए हैं।

उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों और विधानमण्डलों की भाषा (Language of the Courts and Legislature)- जब तक संसद कानून द्वारा अन्यथा निर्धारित न करे, तब तक उच्चतम न्यालयाय तथा प्रत्येक उच्च न्यायालय की सब कार्यवाहियों तथा केन्द्रीय और राज्य के विधानमण्डलों के विधेयकों, कानूनों, आदेशों, नियमों तथा अध्यादेशों का पाठ अंग्रेजी भाषा में होगा। किसी राज्य का राज्यपाल राष्ट्रपति की अनुमति से उच्च न्यायालय की कार्यवाही राज्य की राजभाषा में होने की अनुमति दे सकता है, लेकिन न्यायालय का फैसला, डिक्री या आदेश अंग्रेजी के बदले अन्य कोई भाषा निर्धारित करता है, तो उनका अंग्रेजी भाषा में राज्यपाल द्वारा अधिकृत अनुवाद अधिकृत पाठ समझा जाएगा।

अल्पसंख्यकों के लिए संरक्षण (Safeguards for the Minorities)– प्रत्येक राज्य में स्थानीय अधिकारियों का यह प्रयास होगा कि वह भाषायी अल्पसंख्यकों के बालकों की शिक्षा प्राथमिक चरण में मातृभाषा में देने के लिए आवश्यक व्यवस्था करे। भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रपति एक विशेष पदाधिकारी भी नियुक्त करेगा। इस विशेष पदाधिकारी का कर्तव्य होगा कि संविधान के अधीन भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए जो विशेष रक्षण और सुविधाएं उपलब्ध हैं, उनसे सम्बद्ध सब विषयों के सम्बन्ध में, जैसे राष्ट्रपति निर्दिष्ट करे, राष्ट्रपति को प्रतिवेदन दे। राष्ट्रपति ऐसे सभी प्रतिवेदनों को संसद के प्रतएयक सदन के समक्ष रखवाएगा तथा सम्बन्धित राज्यों की सरकारों को भी भेजेगा। संविधान में यह भी व्यवस्था की गयी है कि संघ अथवा किसी भी राज्य में प्रयोग होने वाली भाषा के सम्बन्ध में यदि किसी व्यक्ति को कोई शिकायत करनी है, तो वह संघ तथा राज्य के उपयुक्त अधिकारी से कर सकता है।

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