भारत में राजनीति एवं भाषाई अन्तः क्रिया
भाषा का प्रश्न राजनीतिक प्रश्न बन गया। भाषा के आधार पर राजनीतिक दलों एवं राजनीतिज्ञों ने जनता को उत्तेजित करने का प्रयास किया। कभी-कभी तो ऐसा लगने लगा कि कहीं भाषा का सवाल हमारी राष्ट्रीय एकता को खण्डित न कर दे। भात की राजनीति में भाषा से जुड़ी हुई राजनीतिक समस्याएं इस प्रकार है-
(1) हिन्दी के विरोध की राजनीति- राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त आयोग के बंगला तथा तमिलभाषी सदस्यों— डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी और डॉ. पी. सुब्बानारायण ने अपने विमत टिप्पणी (Minutes of dissent) में समन्वय अथवा मेल-जोल के दृष्टिकोण से अत्यन्त दूर के विचार प्रकट किए। इनका यह दृष्टिकोण था कि अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को प्रतिस्थापित करने में जल्दी करने का परिणाम “अहिन्दी भाषी जनता पर हिन्दी थोपना” होगा और उससे सार्वजनिक जीवन अस्त-व्यस्त हो जाएगा। इन दोनों का यह दृढ़ मत था कि जब तक सरकारी भाषा अर्थात् हिन्दी पूर्णतः विकसित नहीं हो जाती, अंग्रेजी भाषा प्रयुक्त होती रहे।
(2) भाषायी आधारों पर राज्यों का पुनर्गठन- भाषावार राज्यों के पुनर्गठन की समस्या भारत में जितनी गम्भीर रही है उतनी नवोदित स्वतन्त्र राष्ट्रों में सम्भवतः अन्यत्र कहीं नहीं रह है। स्वाधीनता के कुछ ही समय बात इस बात के लिए जोरदार राजनीतिक दबाव दिए जाने लगे कि भारत के राज्यों के बीच की सीमाएं भाषाओं के आधार पर बनायी जाएं। सन् 1952 में विशेषतः तेलुगु भाषी लोगों में आन्दोलन बहुत ही तीव्र हो उठा। एक प्रतिष्ठित तेलुगु नेता पोट्टी श्री रामुलु ने उन क्षेत्रों को लेकर जहां तेलुगुभाषियों का बहुमत था, एक अलग राज्य बनाने की मांग मनवाने के लिए आमरण अनशन का तरीका अपनाया। अनशन के परिणामस्वरूप उनकी मृत्यु हो गयी और इससे इतनो जोर का हंगामा उठ खड़ा हुआ कि नेहरूजी को भाषा के आधार पर राज्य का निर्माण करने के लिए झुकना पड़ा। एक बार तेलुगु भाषाभाषियों की मांग पर सरकार के झुक जाने के बाद देश के विभिन्न भागों में उसी तरह भाषा के आधार पर राज्य बनाने की मांगें बढ़ने लगीं। इन मांगों की जांच-पड़ताल करने और नए राज्यों की सीमाएं निर्धारित करने के लिए राज्यपुनर्गठन आयोग नियुक्त किया गया। राज्य पुनर्गठन आयोग के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करने के बाद भी बम्बई के नए राज्य में भाषा के प्रश्न को लेकर निरन्तर असन्तोष बना रहा, अतः सन् 1960 में इसे दो राज्यों- गुजरात और महाराष्ट्र में बांटना पड़ा। में आगे चलकर 1966 में पंजाब को भाषा के आधार पर ही हरियाणा और पंजाब में विभाजित करना पड़ा। इस तरह के अलगाव के लिए सिक्खों द्वारा बरुत जोरदार आन्दोलन चलाया गया। मास्टर तारा सिंह ने कहा कि “यह प्रान्त केवल भाषा पर आधारित होगा और इसे पंजाबी सूबा नाम दिया जा सकेगा।”
(3) भाषायी राज्यों के विवाद- भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन करने से राज्यों में राजनैतिक विवाद अत्यन्त उग्र हो गए। ऐसी समस्या चण्डीगढ़ में उत्पन्न हो गयी। इस प्रकार की समस्या महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर बेलगांव व अन्य क्षेत्रों के विवाद के रूप में चली। महाराष्ट्र सरकार बेलगांव नगर पर अपना अधिकार जमाना चाहती थी क्योंकि 1961 की जनगणना के अनुसार यहां मराठी भाषी लोगों की संख्या 51.2 प्रतिशत थी। इसके विपरीत, कर्नाटक सरकार का द्वारा था कि इस नगर में सभी भाषाओं और जातियों के लोग रहते हैं और जो कुछ बहुमत मराठी भाषा का था वहग भी अब समाप्त हो गया है। बेलगांव चूंकि सम्पूर्ण बेलगांव तालुके का मुख्य केन्द्र है, इसलिए प्रशासनिक दृष्टि से उसे कर्नाटक में ही रहने दिया जाना चाहिए। असम में बंगाली और असमी भाषा के प्रश्न को लेकर सन् 1972 में उग्र विवाद उत्पन्न हो गया। कुछ अन्य प्रान्तों में भी लोग भाषा के आधार पर अलग राज्यों के निर्माण का नारा लगाते रहते हैं। इस प्रकार भाषायी आधार पर राज्यों के गठन का आंदोलन चलाया गया।
(4) भाषा के आधार पर उत्तर और दक्षिण भारत की संकुचित भावनाएं- भाषा के आधार पर भारत में उत्तर और दक्षिण भारत की संकुचित मनोवृत्तियां पनपने लगीं। दक्षिण भारत ने हिन्दी का जोरदार विरोध किया। दक्षिण भारत में ‘हिन्दी साम्राज्य के विरुद्ध जोरदार आवाजें उठीं। हिन्दी के उत्साही समर्थकों के लिए यह मुश्किल था कि वे चुपचाप बैठे रहें। इस प्रकार भाषा के आधार पर भारत दो टुकड़ों में विभाजित-सा प्रतीत होने लगा- उत्तर और दक्षिण।
(5) भाषा के आधार पर राजनीति में नए दबाव गुटों का उदय- भारतीय राजनीति में भाषागत दबाव गुटों का उदय हुआ। उदाहरणार्थ, भाषा के आधार पर महाराष्ट्रियनों और गुजरातियों ने अपने संगठन संयुक्त महाराष्ट्र समिति और महागुजरात जनता परिषद् बनाए थे, उन्होंने लगभग पूरी तरह से राजनीतिक पार्टियों की जगह ले ली। इन संगठनों में शुरू में वामपन्थी लोग थे, लेकिन जल्दी ही इन्हें गैर-राजनीतिक पार्टियों की जगह ले ली। इन संगठनों में शुरू गया। में वामपन्थी लोग थे, लेकिन जल्दी ही इन्हें गैर-राजनीतिक लोगों का समर्थन प्राप्त हो
(6) अन्य भाषाओं की मान्यता का प्रश्न– भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में देश की 14प्रमुख भाषाओं को मान्यता प्रदान की गयी है, जिनका उल्लेख किया जा चुका है। बाद में सिन्धी, कोंकणी, मणिपुरी व नेपाली भाषा को भी मान्यता दे दी गयी तथा 92वें संवैधानिक संशोधन के आधार पर 2003 ई. में ब ओदो, डोगरी, मैथली और संथाली को भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कर प्रादेशिक भाषा की मान्यता प्रदान कर दी गई, परन्तु अब भी समय-समय पर देश में कुछ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं की मान्यता की आवाज भी लगायी जाती रही है। उदाहरण के लिए, राजस्थान में राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने की मांग लम्बे समय से की जा रही है। सन् 1961 की गणना के अनुसार राजस्थानी बोलने वालों की संख्या 1 करोड़ 49 लाख थी। इसी तरह ब्रज, छत्तीसगढ़ी, आदि भाषाओं की मान्यता का प्रश्न भी जब-तब उठाया जाता रहा है और इन क्षेत्रीय भाषाओं के आधार पर प्रान्तों के निर्माण की बात भी की जाती रही है यद्यपि भारत सरकार ने इन मांगों को अब तक दृढ़तापूर्वक अस्वीकार कर दिया है।
(7) उर्दू भाषा के सवाल को चुनावी मसला बनाना- राजनीतिक दल उर्दू भाषा के सवाल को चुनावी मसला बनाने में नहीं हिचकिचाते। अल्पसंख्यक मुस्लिम मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए कांग्रेस (आई) के 1980 के घोषणापत्र में आश्वासन दिया गया था.. जो इस प्रकार है…… “उर्दू भाषा को उसके ऐतिहासिक, सामाजिक महत्त्व के अनुरूप उचित स्थान दिलाया जाएगा……. उर्दू को कुछ राज्यों में खास-खास क्षेत्रों में सरकारी कामकाज में व्यवहार के लिए दूसरी भाषा के रूप में मान्यता दी जाएगी।” जनवरी 1980 के चुनावों से पूर्व उत्तर प्रदेश की लोकदल सरकार ने तीसरी भाषा के रूप में स्कूलों में उर्दू को पढ़ाया जाना अनिवार्य कर दिया था। नवम्बर 1989 के लोकसभा चुनावों से पूर्व उत्तर प्रदेश में उर्दू का दूसरी राजभाषा बनाए जाने के फैसले को लेकर बदायूं में दंगे हुए और दो दर्जन लोगों की जानें गयीं।
हास्यास्पद स्थिति यह है कि एक वोट बैंक को खुश करने के लिए यहां तक कहा जा जाने लगा कि उर्दू हमारे राष्ट्रीय स्वतन्त्रता संग्राम की भाषा रही है।
(8) भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्या- नये भाषायी राज्यों के निर्माण के उपरान्त भी भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्या बनी हुई है, जो शासन से अनेकानेक प्रकार के संरक्षणों की मांग कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में उर्दू का सवाल, कर्नाटक में मराठी भाषा-भाषियों का सवाल, पंजाब में हिन्दी भाषा-भाषियों की स्थिति भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्याएं उत्पन्न करती है। कर्नाटक में बसे मलयालियों और तमिलों में अब असुरक्षा की भावना पैर जमाने लगी है। कन्नड़िगाओं का गुस्सा धीरे-धीरे सुलग रहा है और 1982 के हिंसक आन्दोलन में तो जैसे ज्वालामुखी फट ही पड़ा।
(9) सर्वमान्य शिक्षा नीति के निर्माण में कठिनाइयां- भाषा सम्बन्धी समस्याओं का ही परिणाम है कि हम स्वतंन्ता प्राप्ति के 60 वर्षों के उपरान्त भी किसकी ऐसी शिक्षा नीति (Education Policy) का निर्माण नहीं कर सके जिसे हम अपना कह सकें; शिक्षा के क्षेत्र में आज भी प्रयोग हो रहे हैं और इससे जीवन के हर क्षेत्र पर दूरगामी प्रभाव पड़ रहा है। माध्यमिक और उच्च शिक्षा के बारे में शिक्षाशास्त्रियों और राजनीतिज्ञों के बीच निरन्तर नोंक-झोंक चलती ही। कई फार्मूले आते और खण्डित होते रहे और जब कभी ऐसा लगता था कि एक पक्ष की जीत हो गयी तो उसे लागू करने की विधि के सम्बन्ध में मतभेद पैदा हो जाता था। सरकार फूंक फूंककर कदम रखती हुई ‘तीन भाषा फार्मूले’ तक पहुंची। इसका मतलब यह था कि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में माध्यमिक शिक्षा के किसी स्तर पर क्षेत्रीय भाषा के अलावा कोई अन्य भारतीय भाषा भी पढ़ायी जाएगी। इस प्रकार दो भाषाएं हो जाएंगी। तीसरी भाषा अंग्रेजी या अन्य कोई विदेशी भाषा होगी। इस प्रकार माध्यमिक स्तर पूरा होते-होते तीन भाषाएं आ जाएंगी। शुरू में उत्तर भारत के कुछ भागों में इसका पालन नहीं किया गया— यहां तमिल या ऐसी कोई भाषा पढ़ान के बजाय संस्कृत भाषा को लिया गया, लेकिन जब 1967 से मद्रास (तमिलनाडु) में हिन्दी के कट्टर विरोधी द्रविड़ मुनेत्र कड़गम की सरकरा बन गयी तो सबसे पहला काम यह किया कि द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी की पढ़ाई रोक दी। मद्रास (तमिलनाडु) विधानसभा के प्रस्ताव में प्रावधान था कि मद्रास राज्य के विद्यार्थियों में केवल अंग्रेजी व तमिल भाषाएं पढ़ायी जाएं तथा हिन्दी को पाठ्यक्रम से बिल्कुल निकाल दिया जाए।
(10) भाषायी आधार पर राजनीति आन्दोलन- सरकार की भाषा नीति से हिन्दी के समर्थकों एवं विरोधियों दोनों में ही बड़ा रोष फैला। पहले उत्तरी राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में अंग्रेजी विरोधी प्रदर्शन व उपद्रव हुए और भीड़ ने, जिसमें अधिकतर छात्र होते थे, अआजकता एवं हिंसापूर्ण कृत्य किए। दिसम्बर 1967 में मद्रास राज्य (तमिलनाडु) में छात्रों ने हिन्दी विरोधी आन्दोलन आरम्भ किए जो शीघ्र ही आन्ध्र और कर्नाटक तक जा पहुंचे।
(11) स्थानीय की संकीर्ण भावना का उदय- भाषागत राजनीति के परिणामस्वरूप “धरती के पुत्रों को ही” (The Sons of the Soils) अर्थात् केवल उन्हीं लोगों को जो प्रादेशिक भाषा बोलते हैं, सरकारी व गैर-सरकारी पदों पर नियुक्त कर देना चाहिए, धारणा का प्रचलन हुआ। महाराष्ट्र में शिवसेना ने केरल एवं कर्नाटकवासियों को इसलिए तंग किया और उनके साथ मारपीट की थी कि केरलवासियों की भाषा मलयालम तथा कर्नाटक वालों की भाषा कन्नड़ थी।
निष्कर्ष- भाषा विषयक तनावों ने भारत की राष्ट्रीय एकता को बहुत अधिक प्रभावित किया है। आज एक भाषाभाषी व्यक्ति अपने आपको अन्य भाषाभाषियों से भिन्न और स्वतन्त्र समुदाय मानने लगे हैं तथा अपने लिए एक अलग राज्य अथवा अलग प्रशासनिक इकाई की मांग करने लगे हैं। अनेक अवसरों पर राजनीतिक दलों ने भाषायी समस्या से राजनीतिक लाभ उठाने के प्रयत्न किए हैं और वर्तमान समय में भी इस प्रकार की प्रवृत्ति जारी है। प्रत्येक चुनाव में राजनीतिक दल और उनके नेताओं द्वारा दक्षिण के लोगों को आश्वासन दिया जाता है कि जब तक वे न चाहें, तब तक समस्त भारत में हिन्दी को राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया जाएगा। अल्पसंख्यक वर्ग के मत प्राप्त करने के लिए किन्हीं राज्यों में उर्दू को दूसरी भाषा और किन्हीं राज्यों में तीसरी भाषा के रूप में अपनाने की बात कही जाती है। वर्तमान शासक दल इस प्रकार के आश्वासन देने में किसी अन्य दल से पीछे नहीं है। ये आश्वासन तात्कालिक राजनीतिक लाभ भले ही प्रदान करते हों, इन्होंने भाषा समस्या को सुलझाने के बजाय उसमें जटिलता उत्पन्न करने का ही कार्य किया है। ‘हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में अपनाया जाना है’ इस पर दो मत नहीं हो सकते और न ही होने चाहिए। आवश्यकता इस बात की है कि विविध राजनीति दलों, भाषाओं और क्षेत्रों के प्रतिनिधियों का व्यापक आधार पर एक गोलमेज सम्मेलन बुलाकर शान्त वातावरण में भाषा समस्या पर आवश्यक गम्भीरता के साथ विचार कर इस सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय लिया जाए । भारत राष्ट्र की एकता, अखण्डता और शिक्षा व्यवस्था के हितों में भाषा के प्रश्न को दलीय राजनीति से अलग रखना होगा।
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