मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख अंग आर्थिक एवं सामाजिक परिषद ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग से निवेदन किया कि मानवाधिकार की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1966) को प्रभावी बनाने हेतु प्रत्येक राष्ट्र में मानवाधिकार की सुरक्षा हेतु एक राष्ट्रीय आयोग की व्यवस्था की जाय। इस पर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग ने 1970 में विचार किया और संस्तुति दी मानव अधिकारों की राष्ट्रीय कमीशन की स्थापना के प्रश्न पर निर्णय प्रत्येक सदस्य राज्यों की सरकारों को अपने देश की परस्मपराओं एवं संस्थाओं को ध्यान में रखते हुये लेना चाहिए। तब से कई बार मानव अधिकार कमीशन ने प्रत्येक सदस्य राज्य ने राष्ट्रीय कमीशन की स्थापना पर बल दिया है। मानव अधिकारों के वियना सम्मेलन ने जून 25,1993 को अपनाये गये वियना घोषणा तथा ने कार्यवाही के प्रोग्राम में भी यह संस्मुति दी थी कि प्रत्येक राज्य को मानव अधिकारों के उल्लंघन होने की दशा में एक प्रभावशाली व्यवस्था या संस्था उपचार प्रदान करने के लिए स्थापित करना चाहिए। वियना विश्व सम्मेलन के पश्चात् भारत समेत कई राज्यों ने मानव अधिकारों के उल्लंघन की शिकायतों के उपचार के लिए मानव अधिकारों की राष्ट्रीय कमीशन स्थापित करने की प्रक्रिया शुरु की। 28 सितम्बर, 1993 को भारत के राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश की उद्घोषणा द्वारा मानव अधिकारों की राष्ट्रीय कमीशन स्थापित किया ।
तत्पश्चात् मानव अधिकारों के एक बिल को लोकसभा ने 18 दिसम्बर, 1993 को पारित किया। इस बिल को राष्ट्रपति की सम्मति 8 जनवरी, 1994 भारत के गजेट, असाधारण में प्रकाशित हुआ। इस प्रकार अध्यादेश का स्थान मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए अधिनियम, 1994 (1994 का. 10) ने ले लिया। परन्तु चूँकि मानव अधिकारों की राष्ट्रीय कमीशन की स्थापना पहले ही हो चुकी थी तथा इसके अन्तर्गत कुछ कृत्य भी किये गये थे यह उपबन्धित किया गया कि अधिनियम 28 सितम्बर, 1993 से लागू माना जायेगा। अधिनियम की धारा 1 (2) के अनुसार, अधिनियम पूर्ण भारत में लागू होगा परन्तु जम्मू एवं कशतीर के मामले में अनेक उन्हीं विषयों में लागू होगा जो संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 1 या सूची 3 में वर्णित हैं।
मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए अधिनियम, 1993 की प्रस्तावना में यह स्पष्ट किया गया है कि यह अधिनियम मानव अधिकारों के बेहतर संरक्षण के लिए राष्ट्रीय मानव अधिकार कमीशन, राज्यों में कमीशन तथा मानव अधिकार न्यायालयों की स्थापना तथा उनसे सम्बन्धित मामलों के लिए पारित किया गया है।
1993 के अधिनियम के अन्तर्गत “मानव अधिकारों” की परिभाषा
अधिनियम की धारा 2 (घ) को व्यक्तियों के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं गरिमा के संविधान में गारंटीकृत अधिकार तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में निहित तथा भारत में न्यायालयों में प्रवर्तनीय अधिकारों के रूप में परिभाषित किया गया है। अतः अधिनियम के प्रयोजनों के लिए “मानव अधिकार” व्यक्ति के संविधान ने गारंटीकृत एवं अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में निहित तथा भारत में न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय जीवन, स्वतंत्रता समानता तथा गरिमा से सम्बन्धित अधिकार हैं। यह ‘मानव अधिकारों” की बड़ी ही संकीर्ण परिभाषा है तथा इसमें संविधान में गारंटीकृत सब मौलिक अधिकार भी सम्मिलित नहीं है। उदाहरण के लिए इसमें फैक्टरी आदि में बच्चों के नियोजन की निषिद्धि (अनुच्छेद 24); अल्पसंख्यकों के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29); उनकी शैक्षिक संस्थाओं का प्रशासन (अनुच्छेद 30); आदि सम्मिलित नहीं है। जहाँ तक शब्द “अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में निहित तथा भारत में न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय” शब्दों का प्रश्न है, वह मानव अधिकारों (मौलिक अधिकारों) की परिधि में वृद्धि करते हैं। भारत में न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय मानव अधिकारों को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है-
(A) वर्णित मूल अधिकार, (B) अन्य मूल अधिकार, (C) अवर्णित मूल अधिकार।
“वर्णित मूल अधिकारों” से तात्पर्य सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा में स्वीकृत मानव अधिकारों से है जिनका विनिर्दिष्ट रूप से उल्लेख भारतीय संविधान के भाग 3 में भी किया गया है। “अन्य मूल अधिकारों” के अर्थ हैं वह अधिकार जो सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों की प्रसंविदा में स्वीकृत है उन्हें भारतीय न्यायालयों ने संविधान के भाग 3 के विद्यमान मौलिक अधिकारों से निर्गमित किया है या उनके भाग के रूप में स्वीकार किया है जैसे गुप्तता का अधिकार, विदेश यात्रा करने का अधिकार, अवैध गिरफ्तारी या निरोध के लिए प्रतिकर प्राप्त करने का अधिकार आदि यद्यपि यह अधिकार संविधान के भाग 3 में विनिर्दिष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है। “अवर्णित अधिकारों” से तात्पर्य ऐसे मानव अधिकारों से हैं जो सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा में उल्लिखित हैं परन्तु भारतीय संविधान के भाग 3 में उनका उल्लेख नहीं है परन्तु इन अवर्णित अधिकारों को या कम से कम उनमें से कुछ को भविष्य में मानव अधिकारों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, विशाका बनाम राजस्थान राज्य (1997) के मामले में उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायमूर्तियों की खण्ड पीठ ने कार्य करने वाली महिलाओं के कार्य स्थल पर लैंगिक समानता तथा लैंगिक संताप के विरुद्ध गारंटी के अधिकार को अनुच्छेद 14 एवं अनुच्छेद 21 निर्गमित किया है अथवा इन अनुच्छेदों में निहित मौलिक अधिकारों का भाग माना है। परन्तु एक बार ऐसे अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है तो यह “अ- उल्लिखित अधिकारों” की कोटि में नहीं रह जाता है तथा यह “अन्य मौलिक अधिकारों” की कोटि में सम्मिलित हो जाता है। लेकिन मानव अधिकारों की परिभाषा में सम्मिलित किये जाने के पूर्व यह देखना होता है क्या यह मानव अधिकारों की अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदाओं में निहित है।
महाराष्ट्र राज्य बनाम शोभा विट्ठल कोल्टे के मामले में एक विचाराधीन प्रश्न यह था कि क्या मानव अधिकार की परिभाषा में “रोजी का अधिकार” शामिल है। बम्बई उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि रोजी का अधिकार मानव अधिकार की परिभाषा में शामिल नहीं है। उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि उपयुक्त विधायन या कानून की अनुपस्थिति में तेजी के अधिकार को जीविका के अधिकार के समकक्ष नहीं रखा जा सकता है। अतः रोजी के अधिकार को उन्हीं मामलों में मौलिक अधिकार कहा जा सकता है जहाँ विधायन के रूप में विधायनी की गारंटी है। अत: जहाँ रोजी का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है। यह संविधान मानव अधिकार की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं होगा। इसी प्रकार सम्पत्ति के अधिकार को भी मानव अधिकार की परिभाषा के अन्तर्गत नहीं होगा, विशेषकर जब विधायनी ने इसे व्यक्ति रूप से छोड़ दिया है। परन्तु पी०आई० मनीचाईल्डकन्ना रेड्डी एवं अन्य बनाम रिवाम्मा एवं अन्य में उच्च न्यायालय ने धारित किया है कि सम्पत्ति का अधिकार न केवल एक संवैधानिक अधिकार हैं वरन् कानूनी अधिकार समझा जाता है वरन् एक मानव अधिकार भी है।
मेसर्स जी० टेली फिल्म लि० बनाम भारतीय संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ के सम्मुख विचाराधीन प्रश्न यह था कि बी०सी०सी०आई० (Board of Control for Cricket of India) जिसे क्रिकेट के खेल पर पूर्ण नियन्त्रण है, क्या अपने कार्य करते समय मानव अधिकार का उल्लंघन कर सकता है। उच्चतम न्यायालय की पूर्ण पीठ ने अपने निर्णय में कहां कि यह ध्यान में रखते हुये कि आधुनिक दशाओं में जब सरकार प्राइवेट क्षेत्र में भी कार्य कर रही तथा लोक उपयोगित सेवायें प्रदान कर रही हैं, इसके अधिकार कार्य राज्य कृत्य (State action) सकते हैं चाहे उनमें से कुछ कार्य सामान्य नियम को कड़ाई से लागू करने पर गैर सरकारी ही क्यों न हो। यद्यपि नियम यह है कि प्राइवेट निकाय के विरुद्ध रिट जारी नहीं की जा सकती है, परन्तु इस नियम के निम्नलिखित अपवाद न्यायिक रूप से स्वीकार किये गये हैं:
(i) जहां कोई संस्था किसी कानून या विधायन से नियन्त्रित होती है जो इस पर कानूनी दायित्व अधिरोपित करता है;
(ii) जहां कोई संस्था अनुच्छेद 12 के अर्थों में राज्य (State) है।
(iii) जहां चाहे कोई संस्था अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत राज्य नहीं भी है, वह लोक कार्य सम्पादित करती है चाहे वह कानूनी हो या अन्यथा।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जहाँ कोई संगठन मानवाधिकार की सुरक्षा करने को बाध्य है तो वह ऐसे अधिकारों का उल्लंघन भला कैसे कर सकती है।
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