राजनीति विज्ञान / Political Science

जाति के राजनीतिक रूप का रजनी कोठारी किस प्रकार विश्लेषण करते हैं? स्पष्ट कीजिए।

जाति के राजनीतिक रूप का रजनी कोठारी किस प्रकार विश्लेषण करते हैं? स्पष्ट कीजिए।
जाति के राजनीतिक रूप का रजनी कोठारी किस प्रकार विश्लेषण करते हैं? स्पष्ट कीजिए।

जाति के राजनीतिक रूप का रजनी कोठारी किस प्रकार विश्लेषण करते हैं?

प्रो. रजनी कोठारी ने अपनी पुस्तक ‘कास्ट इन इण्डियन पॉलिटिक्स’ (Caste in Indian Politics) में भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का विस्तृत विश्लेषण किया है। उनका मत है कि अक्सर यह प्रश्न पूछा जाता है कि क्या भारत में जाति-प्रथा खत्म हो रही है ? इस प्रश्न के पीछे यह धारणा है कि मानो जाति और राजनीति परस्पर विरोधी संस्थाएं हैं। ज्यादा सही सवाल यह होगा कि जाति -प्रथा पर राजनीति का क्या प्रभाव पड़ रहा है और जाति-पांति वाले समाज में राजनीति क्या रूप ले रही है? जो लोग राजनीति में जातिवाद की शिकायत करते हैं, वे न तो राजनीति के स्वरूप को ठीक समझ पाये हैं और न जाति के स्वरूप को। भारत की जनता जातियों के आधार पर संगठिउत है अतः न चाहते हुए भी राजनीति को जाति संस्था का उपयोग करना ही पड़ा। अतः राजनीति में जातिवाद का अर्थ जाति का राजनीतिकरण है। रजनी कोठारी के शब्दों में, ‘जाति को अपने दायरे में खींचकर राजनीति उसे अपने काम में लाने का प्रयत्न करती है। दूसरी ओर राजनीति द्वारा जाति या बिरादरी को देश की व्यवस्था में भाग लेने का मौका मिलता है।’ राजनीतिक नेता सत्ता प्राप्त करने के लिए जातीय संगठनों का उपयोग करते हैं और जातियों के रूप में उनको बना-बनाया संगठन मिल जाता है जिससे राजनीतिक संगठन में आसानी होती है।

जाति व्यवस्था और राजनीति में अन्तःक्रिया के सन्दर्भ में प्रो. रजनी कोठारी ने जाति प्रथा के तीन रूप प्रस्तुत किये हैं— (i) लौकिक रूप (The secular aspect); (ii) एकीकरण का रूप (The integration aspect); तथा (iii) चैतन्य रूप (The aspect of consciousness)।

(i) जाति व्यवस्था का लौकिक रूप- रजनी कोठारी ने जाति व्यवस्था के – लौकिक रूप को व्यापक दृष्टि से देखने का प्रयत्न किया है। जाति व्यवस्था की कुल बातों पर सबका ध्यान गया है जैसे जाति के अन्दर विवाह, छुआछूत और रीति-रिवाजों के द्वारा जाति की पृथक् इकाई को कायम रखने का प्रयत्न । लेकिन इस बात की ओर बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया है कि जातियों में अपनी प्रतिद्वन्द्विता एवं गुटबन्दी रहती है, प्रत्येक जाति प्रतिष्ठा और सत्ता की प्राप्ति के लिए संघर्षरत रहती है। उदाहरण के लिए, गत लगभग चार दशक से बिहार में ऊंची जातियों और पिछड़ी जातियों के बीच सत्ता प्राप्ति का अनवरत संघर्ष चल रहा है। जाति व्यवस्था के इस लौकिक पक्ष के दो रूप थे—एक शासकीय रूप यानी जाति की और गांव की पंचायत और चौधराहट। दूसरा रूप राजनीतिक था यानी जाति की आन्तरिक गुटबन्दी और अन्य जातियों से गठजोड़ और प्रतिद्वन्द्विता। इन संगठनों का प्रभाव इस बात पर निर्भर करता था कि स्थानीय नेताओं के समाज की केन्द्रस्थ सत्ता से किस प्रकार के सम्बन्ध थे। धर्म, व्यवस्था और प्रदेश के आधार पर इन जातियों की स्थिति बनती और बिगड़ती थी। पहले इन जातियों का सम्बन्ध जाति या गांव की पंचायत और राजा या जमींदार से रहता था। अब जातीय पंचायत के स्थान पर विधानसभाएं और संसद हैं तथा राजा के स्थान पर राष्ट्रीय सरकार है।

रजनी कोठारी का यह भी विचार है कि देश की राजनीति पर किसी एक जाति का प्राधान्य नहीं हो सका क्योंकि कुछ स्थानों पर ब्राह्मणों को वर्चस्व था तो कुछ प्रदेशों में जैसे गुजरात और मारवाड़ में जैन, वैष्णव जैसे सम्प्रदायों के हाथ में आर्थिक शक्ति थी।

(ii) जाति व्यवस्था का एकीकरण का रूप- जाति का दूसरा रूप एकीकरण का है अर्थात् व्यक्ति को समाज से बांधने का है। जाति प्रथा जन्म के साथ ही प्रत्येक व्यक्ति का समाज में स्थान नियत कर देती है। जाति के आधार रपर ही उस व्यक्ति का व्यवसाय और आर्थिक भूमिका निश्चित हो जाती है। चाहे जितना भी बड़ा व्यक्ति क्यों न हो, उसका अपनी जाति से लगाव पैदा हो जाता है, जाति के प्रति उसकी निष्ठा बढ़ने लगती है। यही निष्ठा आगे. चलकर बड़ी निष्ठाओं अर्थात् लोकतन्त्र और राजनीतिक व्यवस्था के प्रति भी विकसित हो जाती है। इस प्रकार जातियां जोड़ने वाली कड़ियां बन जाती हैं। लोकतन्त्र के अन्दर विभिन्न समूहों में शक्ति के लिए प्रतिद्वन्द्विता होती है और विभिन्न जातियों में आपस में मिल-जुलकर गठजोड़ बनाने की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है ताकि वे सत्ता का लाभ प्राप्त कर सकें।

(iii) जाति व्यवस्था का चैतन्य रूप- जाति प्रथा का तीसरा रूप चेतना बोध है। कुछ जातियां अपने को उच्च समझती हैं और इस कारण समाज में उनकी विशेष प्रतिष्ठा होती है। इस कारण कुछ निम्न समझी जाने वाली जातियां भी अपने को उनके साथ जोड़ने की चेष्टा करती हैं। क्षत्रिय वर्ग के साथ जो प्रतिष्ठा जुड़ी हुई है, उसके कारण देश के विभिन्न भागों में अनेक जातियों ने इस वर्ण का दावा किया है। कुछ जातियों ने इसी प्रकार ब्राह्मण पद का भी दावा किया है। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थिति में परिवर्तन के परिणामस्वरूप जाति विशेष की स्थिति भी बदलती है। सामाजिक व्यवहार में अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग रूप धारण करने के कारण जाति व्यवस्था में लोच और परिवर्तनशीलता आ जाती है। इसके लिए चार मार्ग अपनाए जाते हैं प्रथम, संस्कृतिकरण का तरीका है। संस्कृतिकरण में छोटी जातियां सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए ब्राह्मणों के रीति-रिवाजों की नकल करने लगीत हैं, इसे ब्राह्मणीकरण भी कहा जाता है। द्वितीय, लौकिकीकरण या अबराह्मणीरण का तरीका है, आर्थिक उन्नति, राजनीतिक एकता और बुद्धिवाद की सार्वजनीय प्रवृत्तियों के प्रभाव से अक्सर अब्राह्मण जातियां ब्राह्मणों की नकल करने की प्रवृत्ति को छोड़ देती हैं और अन्य अब्राह्मण जातियों से मिलकर राजनीति व सामाजिक अधिकार प्राप्त करने की चेष्टा करती हैं। तृतीय, महापुरुषों से सम्बन्ध जोड़ने का तरीका है। कभी-कभी कतिपय जातियां अपनी उच्चता सिद्ध करने के लिए अपना सम्बन्ध पौराणिक पुरुषों से जोड़ने का प्रयत्न करती हैं। जैसे गुजरात के पाटीदार, बंगाल के महाशय और राजस्थान के जाट, आदि। चतुर्थ, जाति आधुनिक राजनीति में अपने लिए भागीदारी प्राप्त करने का तरीका है। कुछ जातियां सीधे ही आधुनिक राजनीति में भाग लेने लगीं और इस प्रकार इन्होंने समाज में भी उच्च स्थिति प्राप्त की। आन्ध्र प्रदेश और बिहार इसके उदाहरण हैं।

प्रो. रजनी कोठारी ने जाति के राजनीतिकरण की चर्चा करते हुए कहा है “इससे पुराना समाज नयी राजनीतिक व्यवस्था के करीब आया है।” इस प्रक्रिया को उन्होंने तीन चरणों में बांटा है—

(i) शक्ति और प्रभाव की प्रतिस्पर्द्धा- ऊंची जातियों तक सीमित रही भारत का पुराना समाज जब नयी व्यवस्था के सम्पर्क में आने लगा तो सबसे पहले शक्ति और प्रभाव की स्पर्द्धा समाज की प्रतिष्ठित और जमी हुई जातियों तक सीमित रही। जिन जातियों ने उच्च शिक्षा प्राप्त करके आधुनिक बनने का प्रयत्न किया, वे प्रतिष्ठित जातियों के समकक्ष आने लगीं। इन जातियों ने अधिकार और पद प्राप्त करने के लिए अफना राजनीतिक संगठन बनाया जिससे दो ऊंची जातियों में प्रतिस्पर्द्धा और प्रतिद्वन्द्विता बढ़ने लगी। तमिलनाडु और महाराष्ट्र में ब्राह्मण अब्राह्मण, राजस्थान में राजपूत जाट, गुजरात में बनियां ब्राह्मण पाटीदार, आन्ध्र प्रदेश में काम्मा-रेड्डी और केरल में एजवा-नायर द्वन्द्व इसके उदाहरण हैं।

(ii) जाति के अन्दर की प्रतिस्पर्धी गुटबन्दी – इस चरण में भिन्न जातियों की प्रतिस्पर्धा के साथ-साथ जाति के अंदर भी प्रतिस्पर्धी गुट बन जाते हैं। प्रतिद्वन्द्वी नेताओं के पीछे गुट बन जाते हैं। इन गुटों में विभिन्न जातियों के लोग होते हैं। अनपा गुट मजबूत करने के लिए उन जातियों की भी सहायता ली जाती है, जो अब तक दायरे से बाहर थीं। चुनाव में समर्थन प्राप्त करने के लिए नीची जातियों के प्रमुख लोगों को छोटे राजनीतिक पद और लाभ में कुछ हिस्सा देकर प्रतिस्पर्धी नेता अपना गुट मजबूत करने का प्रयत्न करते हैं। जहां इस प्रकार मुखियों को इनाम और पद देकर इन जातियों का समर्थन प्राप्त करना सम्भव नहीं हुआ, वहां विभिन्न जातियो और उपजातियों में आपसी प्रतिस्पर्धा पैदा करके उनका संगठन बनाने की और उन संगठनों के मध्यस्थ या बिचवइयों द्वारा समझौता की कोशिश की गयी। इस चरण में पुराने ब्राह्मण और कायस्थ, आदि प्रशासनिक जातियों के नेताओं के बजाय व्यवसायी और कृषक जातियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की संख्या बढ़ी। ये नेता सौदा पटाने में कुशल थे, ज्यादा व्यावहारिक थे और अपने वर्ग और जाति के लोगों का नेतृत्व कर सकते थे।

(iii) जाति के बन्धन ढीले पड़ना और राजनीति को व्यापक आधार मिलना – रजनी कोठारी के अनुसार तीसरे चरण में एक ओर राजनीतिक मूल्यों की प्रधानता हुई और जाति-पांति से लगाव कम हुआ, वहां दूसरी ओर शिक्षा, नये शिल्प और शहरीकरण के कारण, समाज में परिवर्तन आया। भौतिक उन्नति की नयी धारणाओं का जोर बढ़ा। पुराने पारिवारिक बन्धन टूटने लगे और लोग काम-धन्धे के लिए शहरों में जाकर बसने लगे। जाति की भावना ढीली लगी और सामाजिक व्यवहार से उत्पन्न होने वाली नयी प्रवृत्तियां फैलने लगीं। राजनीतिक संस्थाओं का ढांचा व्यापक होने लगा और जाति की भावना को नया रूप मिलने लगा। राजनीतिक प्रवृत्तियों ने नयी निष्ठाओं को जन्म दिया, जो पुरानी निष्ठाओं को काटती हैं। जाति अब राजनीतिक समर्थन या शक्ति का एकमात्र आधार नहीं, रही, यद्यपि राजनीति में इनका अधिकाधिक उपयोग किया जा रहा है।

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