राजनीति विज्ञान / Political Science

भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका का वर्णन कीजिए।

भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका

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भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका

जय प्रकाश नारायण ने एक बार कहा था कि ‘जाति भारत में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण दल है।’ हेरल्ड गोल्ड के शब्दों में, ‘राजनीति का आधार होने के बजाय जाति उसको प्रभावित करने वाला एक तत्व है।’ प्रो. वी. के. मेनन का यह निष्कर्ष सही है कि “स्वतन्त्रता के बाद भारत के राजनीतिक क्षेत्र में जाति का प्रभाव पहले की अपेक्षा बढ़ा है।” मॉरिस जोन्स भी लिखते हैं कि, ‘जाति के लिए राजनीति का महत्त्व और राजनीति के लिए जाति का महत्त्व पहले की तुलना में बढ़ गया है।” और विनोबा भावे के अनुसार, ‘इसका एक प्रमुख कारण यह है कि ‘नवीन संविधान में वयस्क मताधिकार को स्वीकार किया गया है।’

जाति-व्यवस्था भारतीय समाज का एक परम्परागत पक्ष है। स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात् संविधान और राजनीतिक संस्थाओं के निर्माण से आधुनिक प्रभावों ने भारतीय समाज में धीरे-धीरे प्रवेश करना प्रारम्भ कर दिया। आधुनिक प्रभावों के फलस्वरूप वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचन प्रारम्भ हुए और जातिगत संस्थाएं यकायक महत्त्वपूर्ण बन गयीं क्योंकि उनके पास भारी संख्या में मत थे और लोकतन्त्र में सत्ता प्राप्ति हेतु इन मतों का मूल्य था। जिन्हें सत्ता की आकांक्षा थी उन्हें सामान्य जनता के पास पहुंचने के लिए सम्पर्क सूत्र की भी आवश्यकता थी। सामान्य जनता को अपने पक्ष में मिलाने के लिए यह भी जरूरी था कि उनसे उस भाषा में बात की जाए तो उनकी समझ में आ सके। जाति व्यवस्था इस बात को प्रकट करती थी। इस पृष्ठभूमि में जाति की भूमिका राजनीति में अधिकाधिक महत्त्वपूर्ण होती गयी। भारतीय राजनीति में ‘जाति’ की भूमिका का अध्ययन निम्न शीर्षकों में किया जा सकता है-

(1) निर्णय प्रक्रिया में जाति की प्रभावक भूमिका– भारत में जातियां संगठित होकर राजनीतिक और प्रशासनिक निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करती हैं। उदाहरणार्थ, संविधान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण के प्रावधान रखे गए हैं जिनके कारण ये जातियां संगठित होकर सरकार पर दबाव डालती हैं कि इन सुविधाओं को और अधिक वर्षों के लिए बढ़ा दिया जाए। अन्य जातियां चाहती हैं कि आरक्षण समाप्त किया जाए अथवा इसका आधार सामाजिक-आर्थिक स्थिति हो अथवा उन्हें भी आरक्षित सूची में शामिल किया जाए ताकि वे इसके लाभ से वंचित न रह जाएं।

(2) राजनीतिक दलों में जातिगत आधार पर निर्णय- भारत में सभी राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों का चयन करते समय जातिगत आधार पर निर्णय लेते हैं। प्रत्येक दल किसी भी चुनाव क्षेत्र में प्रत्याशी मनोनीत करते समय जातिगत गणित का अवश्य विश्लेषण करते हैं। कोचेनेक द्वारा अपने अध्ययन के अन्तर्गत आन्ध्र, कर्नाटक, महाराष्ट्र व राजस्थान में कांग्रेस उम्मीदवारों के चयन में जातिगत आधार के अनेक उदाहरण दिए गए हैं। वस्तुतः यह के चुनाव स्थिति कम-अधिक रूप में सभी राज्यों में रही है और साम्यवादी दल सहित सभी राजनीतिक दलों द्वारा इसी व्यवहार को अपनाया गया है। सन् 1962 में गुजरात में स्वतन्त्र पार्टी की सफलता का राज उसका क्षत्रिय जाति के समर्थन में छिपा हुआ था। हरिजन मुसलमान ब्राह्मण शक्तिपुंज बनाकर ही 1971 का आम चुनाव कांग्रेस ने जीता था। मई 2007 में सम्पन्न उ. प्र. विधानसभा चुनाव मायावती ने ‘अनुसूचित जाति, ब्राह्मण और मुसलमान का शक्तिपुंज’ बनाकर ही जीता है। कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों में जातीय आधार पर अनेक गुट पाए जाते हैं जिनमें प्रतिस्पर्द्धा की भावना विद्यमान रहती है।

(3) जातिगत आधार पर मतदान व्यवहार- भारत में चुनाव अभियान में जातिवाद को साधन के रूप में अपनाया जाता है और प्रत्याशी जिस निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव लड़ रहा है उस निर्वाचन क्षेत्र में जातिवाद की भावना को प्रायः उकसाया जाता है ताकि सम्बन्धित प्रत्याशी की जाति एक मतदाताओं का पूर्ण समर्थन प्राप्त कर सके। उत्तर प्रदेश के चुनावों में चरण सिंह की सफलता सदैव ही जाट जाति के मतों की एकजुटता पर निर्भर रही है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह तथा बिहार में लालू प्रसाद यादव अपनी जाति के नेता के रूप में नवें दशक की राजनीति में उभरे तथा आगे चलकर वे कुछ सीमा तक अन्य पिछड़ी जातियों का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे। केवल के चुनावों में साम्यवादी और मार्क्सवादी दलों ने भी वोट जुटाने के लिए सदैव जाति का सहारा लिया है।

मतदान व्यवहार के सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि चुनाव के अन्तर्गत कोई महत्त्वपूर्ण प्रश्न या समस्या सामने हो तो फिर जाति के तत्व का प्रभाव बहुत कम हो जाता है। 1971 के लोकसभा चुनाव, 1977 के लोकसभा चुनाव, 1980 के लोक सभा चुनाव तथा दिसम्बर 1984 के लोकसभा चुनाव में यही स्थिति थी। नौवीं लोकसभा (1989) और दसवीं लोकसभा (1991) के चुनावों में देखा गया कि बिहार के अतिरिक्त अन्य किसी भी राज्य में जाति का तत्व अधिक या बहुत अधिक प्रभावशाली नहीं रहा, लेकिन इसके नितान्त विपरीत नवम्बर 1993 में में उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में जाति एक तत्व की लगभग निर्णायक भूमिका रही। इन चुनावों में पिछड़ी जातियों और अनुसूचित जातियों के बीच गठबन्धन की स्थिति बन गई तथा इस गठबन्धन ने सत्ता प्राप्त कर ली। अन्य पिछड़ी जातियों के साथ अनुसूचित जातियों के गठबन्धन की यह स्थिति अल्पकालीन रही।

ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और चौदहवीं लोकसभा के चुनाव में उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे कुछ राज्यों में जाति के तत्व की भूमिका और कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में प्रभावशाली भूमिका देखी गई, लेकिन इस आधार पर यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि जनता ने राजनीति में जातिवादी सोच को अपना लिया है। इस स्थिति का एक बड़ा कारण यह है कि राजनीतिक दल जनता के सामने कोई मुद्दे प्रस्तुत नहीं कर पाये और चुनावी राजनीति जातिवादी सोच की दिशा में प्रेरित हुई, लेकिन इस सोच को अपनाना उचित नहीं होगा कि लम्बे समय तक यही स्थिति बनी रहेगी।

(4) मन्त्रिमण्डलों के निर्माण में जातिगत प्रतिनिधित्व- राजनीतिक जीवन में जातीयता का सिद्धान्त इतना गहरा धंस गया है कि राज्यों के मन्त्रिमण्डलों में प्रत्येक प्रमुख जाति का मन्त्री होना चाहिए। यह सिद्धान्त प्रान्तों की राजधानियों से प्राप्त पंचायतों तक स्वीकृत हो गया है कि प्रत्येक स्तर पर प्रधान जाति को प्रतिनिधित्व मिलना ही चाहिए। यहां तक कि केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल में भी हरिजनों, जनजातियों, सिखों, मुसलमानों, ब्राह्मणों, जाटों और राजपूतों को किसी-न-किसी रूप में स्थान अवश्य दिया जाता है।

(5) जातिगत दबाव समूह- मेयर के अनुसार, “जातीय संगठन राजनीतिक महत्त्व के दबाव समूह के रूप में प्रवृत्त हुए हैं।” प्रो. जे. सी. जौहरी के अनुसार, “जातिगत दबाव समूह अपने निहित स्वार्थों एवं हितों की पूर्ति के लिए नीति निर्माताओं को जिस ढंग से प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं उससे तो उनकी तुलना यूरोप और अमरीका में पाए जाने वाले ऐच्छिक समुदायों से की जा सकती है।”

अनेक जातीय संगठन और समुदाय जैसे तमिलनाडु में नाडार जाति संघ, गुजरात में क्षत्रिय महासभा, बिहार में यादव सभा, आदि राजनीतिक मामलों में रुचि लेने लगते हैं और अपने-अपने संगठित बल के आधार पर राजनीतिक सौदेबाजी भी करते हैं। यद्यपि देश की सभी प्रमुख जातियों को इस प्रकार पूर्णतया संगठित नहीं किया जा सका है। मगर जो जातियां इस प्रकार संगठित नहीं हो सकीं, वे राजनीतिक सौदेबाजी में सफल नहीं रहीं और उनके सदस्यों को अपनी आवाज उठाने के लिए उपद्रव और तोड़-फोड़ का सहारा लेना पड़ा।

(6) जाति एवं प्रशासन- लोकसभा और विधानसभाओं के लिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था प्रचलित है। केन्द्र एवं राज्यों की सरकारी नौकरियों एवं पदोन्नतियों के लिए जातिगत आरक्षण का प्रावधान हैं। मेडिकल एवं इंजीनियरिंग कॉलेजों में विद्यार्थी की भर्ती हेतु आरक्षण के प्रावधान मौजूद हैं। 8 सितम्बर 1993 से केन्द्र सरकार की सेवाओं में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण लागू हो गया है। ऐसा भी माना जाता है कि भारत में स्थानीय स्तर के प्रशासनिक अधिकारी निर्णय लेते समय अथवा निर्णयों के क्रियान्वयन में प्रधान और प्रतिष्ठित अथवा संगठित जातियों के नेताओं से प्रभावित हो जाते हैं।

(7) राज्य राजनीति में जाति- माइकेल ब्रेचर के अनुसार अखिल भारतीय राजनीति की अपेक्षा राज्य स्तर की राजनीति पर जातिवाद का प्रभाव अधिक है। यद्यपि किसी भी राज्य की राजनीति जातिगत प्रभावों से अछूती नहीं रही है तथापि बिहार, उत्तर प्रदेश, केरल, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान और महाराष्ट्र राज्यों की राजनीति का अध्ययन तो बिना जातिगत गणित के विश्लेषण के कर ही नहीं सकते। उत्तर प्रदेश और बिहार तो जातिगत राजनीति की मिसाल बन चुके हैं। बिहार की राजनीति में राजपूत, ब्राह्मण, कायस्थ और जनजातियां प्रमुख प्रतिस्पर्धी जातियां रही हैं तथा गत पच्चीस वर्षों में तो बिहार की समस्त राजनीति अगड़ों और पिछड़ों के बीच तीव्र संघर्ष में परिणत हो गई है। राजनीतिक और आर्थिक हितों की यह प्रतिस्पर्द्धा अनेक बार खूनी संघर्षो को जन्म दे देती है। मुसलमानों में भी अगड़ों और पिछड़ों की स्थिति बन गई है। इसके साथ ही पिछड़े मुसलमानों के भी अलग-अलग संगठन बन गए हैं। पसमांदा मुस्लिम महाज और आल इण्डिया बैकवर्ड मुस्लिम मोर्चा – ऐसे कुछ प्रतिस्पर्धी मुस्लिम संगठन हैं, जिनमें समय-समय पर खूनी संघर्ष की स्थिति बन जाती है। केरल में साम्यवादियों की सफलता का राज यही है कि उन्होंने ‘इजवाहा’ जाति को अपने पीछे संगठित कर लिया। आन्ध्र प्रदेश की राजनीति काम्मा और रेड्री जातियों के संघर्ष की कहानी हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में मराठा, ब्राह्मणों और महारों में प्रतिस्पर्द्धा रही है। गुजरात की राजनीति में दो ही जातियाँ प्रभावी हैं— पाटीदार और क्षत्रिय केरल की राजनीति अपने तीन समुदायों के इर्द-गिर्द घूमती रही है— हिन्दू, क्रिश्चियन और मुसलमान। केरल की राजनीति में अन्तिम दो प्रमुख राजनीतिक शक्तियों के रूप में सक्रिय हैं। कहने को तो वहां सही प्रकार के राजनीतिक दल हैं, किन्तु उन्हें ध्यानपूर्वक देखा जाए तो पता चलेगा कि वे सब जातीय संगठन हैं। मुस्लिम लीग मुसलमानों की है, दोनों केरल कांग्रेस के अधिसंख्य सदस्य ईसाई हैं। रा. प्रा. मो. नायर लोगों की संस्था है। कांग्रेस (इ) और दोनों साम्यवादी दलों में एजवा जाति के अलावा हिन्दुओं के कुछ प्रमुख वर्गों का प्रभाव देखा जा सकता है। राजस्थान की राजनीति में जाट राजपूत जातियों की प्रतिस्पर्द्धा प्रमुख रही हैं। संक्षेप में, राज्यों की राजनीति में ‘जाति’ का प्रभाव इतना अधिक हो रहा है कि टिंकर जैसे विद्वानों ने विचार व्यक्त किया है कि “भारत के बहुत बड़े भाग में आगे आने वाले अनेक वर्षों तक राज्यों की राजनीति जातियों की राजनीति बनी रहेगी।”

एक विशेष बात यह है कि संविधान के अन्तर्गत जातिगत आधार पर आरक्षण और संरक्षणों की जो व्यवस्था की गयी है “उसने जाति को और प्रभावशाली बनाया है तथा राजनीति पर जाति की पकड़ और गहरी हो गयी है।” वस्तुतः जातियों को राजनीतिक आधार पर दिए गए सभी विशेष अधिकारों से वंचित कर दिया जाना चाहिए, क्योंकि ये प्रतिबन्ध समतावादी समाज की धारणा को आघात पहुंचाते हैं। इस सम्बन्ध में जैसा कि श्रीनिवासन ने कहा, “इन विशेष उपबन्धों से बहुत अधिक लाभ प्राप्त करने वाली जातियां पिछड़ेपन के विशेषाधिकार को छोड़ने की अनिच्छा प्रदर्शित करती है।” थोड़े समय के लिए इन व्यवस्थाओं की भले ही आवश्यकता रही हो, लेकिन और अधिक समय तक इन्हें जारी रखना भारतीय लोकतन्त्र के हित में नहीं होगा।

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  • भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका के बारे में आप ने बहुत प्रशंसनीय जानकारी लिखी है। आप का दिल से धन्यवाद !

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