Uncategorized

भारतीय राज्यों में जाति के विभिन्न स्वरूपों का उल्लेख कीजिए।

भारतीय राज्यों में जाति के विभिन्न स्वरूप
भारतीय राज्यों में जाति के विभिन्न स्वरूप

अनुक्रम (Contents)

भारतीय राज्यों में जाति के विभिन्न स्वरूप

भारत में राज्य राजनीति के कतिपय अध्ययनकर्ताओं के अनुसार विभिन्न राज्यों में जाति के चार विभिन्न स्वरूप विकसित हुए हैं-

(1) जातिवाद का पहला स्वरूप दक्षिणी भारत और विशेषकर तमिलनाडु में मिलता है जहां ब्राह्मणों और अनेक निम्न जातियों के बीच गम्भीर संघर्ष रहा है। तमिलनाडु में आरम्भ से ही राजनीति पर ब्राह्मणों का प्रभुत्व रहा और इसके विरुद्ध काफी दिनों से आन्दोलन चलता रहा जिसके परिणामस्वरूप रामास्वामी नायकर द्वारा द्रविड़ कड़गम नामक संगठन की स्थापना की गयी जो बाद में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम दल के रूप में विकसित हुआ। तमिलनाडु में यह आन्दोलन ब्राह्मणों को उच्च स्थानों से हटाने के लिए था। सन् 1914 यह ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन शुरू हुआ और 1916 में एक पृथक् राजनीतिक दल ‘जस्टिस पार्टी’ के नाम से स्थापित हुआ जिसका उद्देश्य गैर-ब्राह्मण जातियों के हित को विकसित तथा सुरक्षित करना था। इस संगठन का उद्देश्य सरकार का समर्थन प्राप्त करके प्रशासन और स्थानीय निकायों यहां तक कि शिक्षा संस्थाओं में गैर-ब्राह्मण जातियों के लिए स्थान सुरक्षित करना था। 1922 में सरकार द्वारा लोक सेवाओं में निर्धारित किए गए कोटे में गैर-ब्राह्मण जातियों के लिए लगभग 42% और ब्राह्मण जाति के लिए 16% स्थान निर्धारित किए गए। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि ब्रिटिश काल में ही गैर ब्राह्मण जातियां ब्राह्मण विरोधी आन्दोलन में बड़ी हद तक सफल हुई। 1949 में यह आन्दोलन सी. एन. अन्नादुराई के नेतृत्व में डी. एम. के. के अधीन शुरू हुआ। ब्राह्मण विरोधी भावना के राजनीतिक महत्त्व को दृष्टि में रखते हुए अन्य राजनीतिक दल भी जाति युद्ध में संलग्न रहे हैं। यहां तक कि कांग्रेस पार्टी द्वारा राजगोपालाचारी (जो एक ब्राह्मण थे) के राजनीतिक प्रभाव को कम करने के लिए कामराज नाडार को राजनीति में ऊंचा उठाने के प्रयत्न किया गया। संक्षेप में, स्वतन्त्रता के पहले और स्वतन्त्रता के बाद तमिलनाडु में ब्राह्मण और निम्न जातियों के बीच घोर टकराव रहा और इस संघर्ष में ब्राह्मणों को पराजित होना पड़ा।

(2) जातिवाद का दूसरा रूप महाराष्ट्र में देखने को मिलता है। महाराष्ट्र की राजनीति तमिलनाडु से कुछ भिन्न रही है, यद्यपि यहां मराठा और ब्राह्मणों के बीच संघर्ष रहा और इस संघर्ष में मराठा जाति ने ब्राह्मणों के शताब्दियों से चले आने वाले प्रभुत्व का अन्त किया। बीसवीं शताब्दी की दूसरी चौथाई में राजनीतिक दलों में भी ब्राह्मणों का आधिपत्य था, उदाहरण के लिए, तिलक, गोखले, गोलवालकर, एस. एन. डांगे, आदि ब्राह्मण थे। स्वतन्त्रता के बाद मराठा जाति ने ब्राह्मणों को पराजित कर दिया और यह आन्दोलन 1960 में अपनी पूर्णता को पहुंच गया, जब महाराष्ट्र नामक एक पृथक राज्य की स्थापना की गयी और मराठा जाति को राजनीति में पूर्ण प्रधानता प्राप्त हुई। इस नये महाराष्ट्र राज्य में मराठा जाति की संख्या 45% थी। ए. जे. दस्तूर के शब्दों में, “जिस दिन महाराष्ट्र का निर्माण हुआ उस दिन से राज्य के राजनीतिक विशिष्ट वर्ग और राजनीतिक नेतृत्व में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण और मौलिक परिवर्तन हुए.. सत्ता, प्रभाव और शक्ति ब्राह्मणों के हाथों से निकालकर मराठों के हाथों में पहुंच गयी।”

(3) गुजरात, आन्ध्र और कर्नाटक जातिवाद का तीसरा प्रतिनिधि रूप प्रस्तुत करता है। इन तीनों ही राज्यों में तीन मध्यमवर्गीय जातियां राजनीतिक संघर्ष में रत दिखायी देती है। आन्ध्र में यह टकराव काम्मा और रेड्डी जातियों के बीच पाया जाता है। 1934 में आन्ध्र में साम्यवादी दल की स्थापना के बाद से इस दल का नेतृत्व काम्मा जाति के हाथों में रहा जबकि कांग्रेस पार्टी में रेड्डी जाति का प्रभुत्व रहा। कर्नाटक में यह विरोध लिंगायत तथा वोक्कलिंग जातियों के बीच पाया जाता है। गुजरात में पाटीदार और क्षत्रिय जातियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा पायी जाती है। इन तीनों राज्यों (आन्ध्र, कर्नाटक और गुजरात) में यह विशेषता दिखाई देती है कि इन राज्यों में राजनीतिक क्षेत्र में केवल दो जातियों का प्रभुत्व है जो अपनी प्रथाओं, सामाजिक स्थिति और सामाजिक-आर्थिक साधनों की दृष्टि से एक-दूसरे से बहुत मिलती-जुलती हैं। दूसरे शब्दों में, तमिलनाडु और महाराष्ट्र में जहां असमान जातियों के बीच टकराव पाया जाता है वहां इन राज्यों में यह प्रतिस्पर्द्धा लगभग दो समान जातियों के बीच पायी जाती है।

(4) बिहार की स्थिति उपर्युक्त राज्यों से भिन्न है। 1972 तक यहां उच्च जातियां ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और कायस्थ, और राजनीतिक शक्ति की धारक बनीं रहीं तथा उनके बीच ही सामाजिक और राजनीतिक प्रतियोगिता रही, लेकिन इसके बाद पिछड़ी जातियों में राजनीतिक चेतना आई। 1977-78 में जब जनता पार्टी के कर्पूरी ठाकुर मन्त्रिमण्डल ने पिछड़ी जातियों को संरक्षण प्रदान किया, तब इससे उत्पन्न विवाद ने जातीय आधार पर दो वर्ग खड़े कर दिए : अगड़ी जातियां और पिछड़ी जातियां समय-समय पर इन दोनों के बीच वैमनस्य की स्थिति भी खड़ी हो गई। बिहार की राजनीति में पुनः 1989 से पिछड़ी जातियों के राजनीतिक प्रभुत्व की स्थिति देखी गई। बिहार में समस्त राजनीतिक खेल, जातीय आधार पर ही खेला जाता रहा है और जाति की भावना ने अधिक गम्भीर रूप लेकर ‘जातिवादी खूनी संघर्षो’ को जन्म दे दिया है। यह चिन्ताजनक स्थिति है।

राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी राजनीति पर उच्च जातियों और मध्यम जातियों (जाट आदि) का एकाधिकार रहा है, लेकिन पिछले 15 वर्षों में पिछड़ी जातियों में राजनीतिक चेतना बहुत अधिक बढ़ गई है।

इसे भी पढ़े…

Disclaimer

Disclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment