भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के सम्मुख प्रमुख समस्याएं एवं प्रवृत्तियां
संविधान में भारतीय राज व्यवस्था के कुछ लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं। ये लक्ष्य हैं: लोकतांत्रिक गणतंत्रात्मक धर्म निरपेक्ष व्यवस्था, देश के सभी नागरिकों के लिए स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व; सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय; व्यक्ति की गरिमा राष्ट्र की एकता तथा अखण्डता राज व्यवस्था इस दिशा 1950 से ही आगे बढ़ रही है और इन दिशाओं में कुछ दूरियां भी तय की जा सकी हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था बनी हुई है और अब तक 14 आम चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं। धर्म निरपेक्षता, राष्ट्र की एकता और अखण्डता बनी हुई है तथा स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व अब भी हमारे आदर्श बने हुए हैं, लेकिन यह कह पाना संभव नहीं है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था और राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता की दृष्टि से स्थिति पूर्णतया संतोषजनक है या हमने स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के आदर्श को प्राप्त कर लिया है। वस्तुस्थिति यह है कि राजव्यवस्था के सम्मुख अनेक चुनौतियां और समस्याएं विद्यमान हैं। ऐसी कुछ प्रमुख समस्याएं और चुनौतियां हैं: जातिवाद, धर्म और साम्प्रदायिकता, भाषा का प्रश्न या भाषावाद और क्षेत्रीयतावाद आदि।
परम्परावादी भारतीय समाज में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना भारतीय राजनीति की एक अद्भुत विशेषता है। भारत में राजनीतिक आधुनिकीकरण के प्रारम्भ होने के पश्चात् यह धारणा विकसित हुई कि पश्चिमी ढंग की राजनीतिक संस्थाएं और लोकतान्त्रिक मूल्यों को अपनाने के फलस्वरूप परम्परागत संस्था जातिवाद का अन्त हो जायेगा किन्तु. स्वाधीनता के बाद की भारत की राजनीति में जाति का प्रभाव अनवरत रूप से बढ़ता गया। जहां सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में जाति की शक्ति घटी है वहां राजनीतिक और प्रशासन पर इसके बढ़ते हुए प्रभाव को राजनीतिज्ञों, प्रशासनाधिकारियों और केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने स्वीकार किया है।
कतिपय विद्वानों की यह मान्यता है कि लोकतान्त्रिक एवं प्रतिनिध्यात्मक संस्थाओं की स्थापना के बाद जाति व्यवस्था का भारत में लोप हो जाना चाहिए। अन्य कुछ विद्वानों की धारणा थी कि जाति व्यवस्था परम्परागत शक्ति के रूप में कार्य करती है तथा राजनीतिक विकास एवं आधुनिकीकरण के मार्ग में बाधक है। लेकिन वस्तुतः ये मान्यताएं सही नहीं है। इस सम्बन्ध में रजनी कोठारी का अभिमत है कि प्रथम, कोई भी सामाजिक तन्त्र कभी भी पूर्णतया समाप्त नहीं हो सकता, अतः यह प्रश्न करना कि क्या भारत में जाति का लोप हो रहा है, अर्थ-शून्य है। द्वितीय, जाति व्यवस्था आधुनिकीकरण और सामाजिक परिवर्तन में रुकावट नहीं डालती बल्कि इसको बढ़ाने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। ग्रेनबिल आस्टिन लिखते हैं, “स्थानीय और राज्य स्तर की राजनीति में जातीय संघ और समुदाय निर्णय प्रक्रिया को प्रभावित करने में उसी प्रकार की भूमिका अदा करते हैं जिस प्रकार पश्चिमी देशों में दबाव गुट (Presure Groups) ।” हमारे राजनीतिज्ञ एक अजीब असमंजस की स्थिति में हैं। जहां एक ओर वे जातिगत भेदभाव मिटाने की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर जाति के आधार पर वोट बटोरने की कला में निपुणता हासिल करना चाहते हैं।
भारत में जाति और राजनीति में किस प्रकार का सम्बन्ध है ? इस सम्बन्ध में चार प्रकार से विचार प्रस्तुत किए जाते रहे हैं-
सर्वप्रथम, यह कहा जाता है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था का संगठन जाति की संरचना के आधार पर हुआ है और राजनीति केवल सामाजिक सम्बन्धों की अभिव्यक्ति मात्र है। सामाजिक संगठन राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप निर्धारित करता है।
द्वितीय, राजनीति के प्रभाव के फलस्वरूप जाति नया रूप धारण कर रही है। लोकतान्त्रिक राजनीति के अन्तर्गत राजनीति की प्रक्रिया प्रचलित जातीय संरचनाओं को एस प्रकार प्रयोग में लाती है जिससे सम्बद्ध पक्ष अपने लिए समर्थन जुटा सकें तथा अपनी स्थिति को सुदृढ़ बना सकें। जिस समाज में जाति को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण संगठन माना जाता है उसमें यह अत्यन्त स्वाभाविक है कि राजनीति इस संगठन के माध्यम से अपने आपको संगठित करने का प्रयास करे। इस प्रकार यह कहा जा सकता है जिसे हम राजनीति में जातिवाद के नाम से पुकारते हैं वह वास्तव में जाति का राजनीतिकरण है।
तृतीय, भारत में राजनीति ‘जाति’ के इर्द गिर्द घूमती है। जाति प्रमुखतम राजनीतिक, दल है। यदि मनुष्य राजनीति की दुनिया में ऊंचा उठना चाहता है तो उसे अपने साथ ही अपनी जाति को लेकर चलना होगा। भारत में राजनीतिज्ञ जातीय समुदायों को इसलिए संगठित करते हैं ताकि उनके समर्थन से उन्हें सत्ता तक पहुंचने में सहायता मिल सके।
चतुर्थ, जातियां संगठित होकर प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में भाग लेती हैं और इस प्रकार जातिगत भारतीय समाज में जातियां ही ‘राजनीतिक शक्तियां’ बन गयी हैं।
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