शीत युद्ध के बाद यूरोप की प्रकृति में क्रांतिकारी परिवर्तन हुए।
यूरोप हमेशा से शक्ति राजनीति का केन्द्र रहा है। अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध का प्रमुख केन्द्र यूरोप ही रहा है। परन्तु शीत युद्ध की समाप्ति ने यूरोप के मूल चरित्र को ही बदल दिया। इसमें न केवल जर्मनी का एकीकरण हुआ बल्कि राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से विभाजित यूरोप का भी एकीकरण हो गया। यूरोप में हुए क्रांतिकारी परिवर्तन के लिये में ऐसे तो अनेकों कारण है परन्तु इसका श्रेय मुख्य रूप से सोवियत संघ के राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाच्योव और उनकी खुलेपन की नीतियां हैं। इसमें यूरोप का साझा बाजार भी यूरोप की भौतिक प्रवृत्ति को बदलने के लिये जिम्मेदार है।
(1) दोनों गुटों के मध्य मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध
मार्च, 1985 में गोर्बाच्योव ने रूसी प्रशासन की सत्ता का दायित्व संभाला। उन्होंने शान्ति और प्रगति को सोवियत विदेश नीति का आधार बनाया। शीत युद्ध की समाप्ति, निःशस्त्रीकरण, राष्ट्रों से सहयोग और भाई-चारे सम्बन्धी उनकी विदेश नीति की अद्भुत उपलब्धियाँ हैं। उन्होंने आक्रमण के स्थान पर सुरक्षा को महत्त्व प्रदान किया। अफ्रीकी राष्ट्रों में हस्तक्षेप का विरोध करने की नीति अपनाई। हिन्द महासागर को शान्ति का क्षेत्र घोषित करने का समर्थन किया। अमेरिका के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध की स्थापना करने की नीति अपनाई। सार रूप में, शीत युद्ध की समाप्ति साम्यवाद की समाप्ति, तनाव शैथिल्य, निःशस्त्रीकरण, जर्मनी का एकीकरण, चीन से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध तथा विश्व में शान्ति और सहयोग की नीति को महत्त्व प्रदान कर प्रगति के लिए मार्ग प्रशस्त करना आदि गोर्बाच्योव की विदेश नीति की ऐतिहासिक सफलता है, जो चिरस्मरणीय रहेगी।
( 2 ) साम्यवाद का अवसान
सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के देश, जैसे हंगरी, पोलैण्ड, यूगोस्लाविया, रूमानिया आदि साम्यवादी तानाशाही के सुदृढ़ केन्द्र माने जाते थे। लेकिन सन् 1989-90 के वर्षों में सोवियत संघ और यूरोप, पूर्वी यूरोप के देश साम्यवादी निरंकुशता से एक-एक कर छुटकारा पाते गये। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों में बहुदलीय, अन्य पद्धतियों के साथ सह-अस्तित्व और धार्मिक स्वतंत्रता के आगमन से मार्क्सवाद का नाम भी बाकी नहीं रह पाया है। अल्बानिया के अतिरिक्त पूर्वी यूरोप की तानाशाहियाँ, जो कि स्टालिन द्वारा थोप दी गयी थीं, सन् 1989 में केवल छः मास की अवधि के अन्दर ढह गयीं। हंगरी, पोलैण्ड और इटली के साम्यवादी दलों ने अपने अवसान की घोषणा स्वयं की।
( 3 ) जर्मनी का एकीकरण
जर्मनी का एकीकरण जर्मनी में घटित विभिन्न घटनाओं का प्रतिफल था। 1 जुलाई, 1990 को दोनों जर्मनियों का आर्थिक एकीकरण। इन्होंने जर्मन एकीकरण का मार्ग निष्कंटक कर दिया। इसके पश्चात् 12 सितम्बर, 1990 को विश्व युद्ध के चारों मित्र देशों- ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस और सोवियत संघ ने एक समझौते द्वारा बर्लिन पर अपने आधिपत्य के बाकी अधिकारों को भी समाप्त कर दिया। एकीकरण के उपरान्त पूर्वी जर्मनी का कोई अस्तित्व नहीं रहा। वह संयुक्त राष्ट्र संघ या अन्य अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों का सदस्य नहीं रहा। यह एक आश्चर्यजनक घटना थी।
( 4 ) शीत युद्ध का अन्त
सन् 1989 में शीत युद्ध के मूल कारणों का अन्त हो गया। जुलाई, 1990 में नाटो शिखर सम्मेलन में राष्ट्रपति बुश ने घोषणा की कि नाटो एवं वारसा पैक्ट देशों के बीच शीत युद्ध समाप्त हो चुका है। 19 नवम्बर, 1990 को पेरिस में नाटो तथा वारसा सन्धि देशों के उपशासनाध्यक्षों ने एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर कर यूरोप में शीत युद्ध का विधिवत् अन्त कर दिया।
(5) सोवियत संघ का विघटन
सोवियत संघ क्षेत्रफल की दृष्टि से विश्व का विशालतम देश था। एशिया और यूरोप महाद्वीपों तक इसका विस्तार था।
गोर्बाच्योव ने अपनी गृह नीति से रूसी जनता को प्रभावित किया । गोर्बाच्योव ने ग्लासनोस्त (Glasnost) अर्थात् खुलेपन की नीति का पालन कर वहाँ के समाज के लिये रूसी बन्द दरवाजे खोल दिये, जिससे रूसी समाज को लोकतांत्रिक समाज से सम्बद्ध किया जा सके। बाहरी हवाओं को रूस में प्रवेश की स्वतंत्रता, लौह आवरण की स्टालिन की नीति पूर्णतः विपरीत नीति थी। इसका नतीजा यह हुआ कि सोवियत संघ खण्डित हो गया।
दिसम्बर, 1991 में गोर्बाच्योव और बोरिस येल्तसिन ने एक समझौता द्वारा सोवियत संघ की केन्द्रीय संस्थाओं को समाप्त करने का फैसला लिया। गोर्बाच्योव ने पार्टी के महासचिव पद से त्याग-पत्र देने के साथ इसकी केन्द्रीय समिति को भंग कर दिया। साम्यवादी पार्टी की सम्पत्ति का राष्ट्रीयकरण कर दिया। 25 दिसम्बर, 1991 को सोवियत संघ का औपचारिक रूप से विघटन कर दिया गया तथा उसके समस्त गणराज्य स्वतंत्र हो गये।
( 6 ) बाजारोन्मुख अर्थव्यवस्था
सन् 1917 में बोल्शेविक क्रांति के उपरान्त सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप के देशों में थोपी गयी साम्यवादी अर्थव्यवस्था के फलस्वरूप सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप में आर्थिक विकास की गति धीमी रही। 80 के दशक में सोवियत संघ की अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाने लगी। हंगरी, पोलैण्ड तथा बल्गारिया आदि साम्यवादी देशों पर विदेशी ऋण अत्यन्त तीव्रता से बढ़ रहा था। अन्त में जब सन् 1991 के अन्त में सोवियत संघ में उपभोक्ता वस्तुओं की उत्पादन और वितरण की स्थिति चरमराहट की सीमा पर पहुँच गयी तो प्रत्येक दिशा में आर्थिक सुधार की माँग की जाने लगी। इस स्थिति में गोर्बाच्योव ने केन्द्रोन्मुख व्यवस्था का अन्त करके बाजारोन्मुख मूल्य का निर्धारण जैसे कदम उठाये।
( 7 ) नाटो की नवीन भूमिका
नाटो का संगठन साम्यवादी भय के निवारण के लिये किया गया था। सोवियत संघ व पूर्वी यूरोप में लोकतांत्रिक परिवर्तन होने पर तथा सोवियत संघ की महाशक्ति के रूप में भूमिका दुर्बल होने के पश्चात नाटो ने सोवियत संघ के गणराज्यों के साथ सहयोग के नवीन आयामों को खोजने एवं उनके साथ रचनात्मक सहयोग की भूमिका निर्मित करने के उद्देश्य से ‘नाटों की काउंसिल’ बनाने का फैसला किया। सदस्य देशों के राष्ट्राध्यक्षों की शिखर बैठक में नव-स्वतंत्र बाल्टिक राज्यों- लिथोनिया, लेटविया व एस्टोनिया के नाटो की सदस्यता प्राप्त करने के आवेदन पर भी विचार किया गया। इस प्रकार का गैर साम्यवादी सैनिक रूप परिवर्तित कर दिया गया। वारसा सन्धि को भंग कर दिया गया।
(8) चेकोस्लोवाकिया का विभाजन
चेकोस्लोवाकिया लगभग 75 वर्ष तक एक देश के रूप से रहा था। अब चेकोस्लोवाकिया औपचारिक रूप से दो गणराज्यों- चेक गणराज्य तथा स्लोवाकिया गणराज्य में विभक्त हो गया। इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण यह है कि विभाजन शान्तिपूर्ण तरीके से सम्पन्न हुआ।
( 9 ) यूरोप में सैन्य कटौती
इक्कीसवीं शताब्दी से विश्व में अनेक यूरोपीय देश अपनी सैन्य शक्ति में व्यापक कटौती करने लगे हैं। अमेरिका, हॉलैण्ड, बेल्जियम, जर्मनी, नाटो आदि ने अपनी सैन्य शक्ति आधे से अधिक कम कर दी है।
(10) एकध्रुवीय व्यवस्था
पश्चिम एशिया में इराक की पराजय तथा रूस की आन्तरिक क्षीणता के फलस्वरूप विश्व में अमेरिका का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इस बात की भी सम्भावना है कि भावी अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था एकध्रुवीय हो । यदि इस प्रकार का कोई विकास होता है तो इस पर मुख्य आपत्ति या इस प्रकार के विकास के सम्मुख मुख्य चुनौती गैर-पाश्चात्य राष्ट्रों द्वारा प्रस्तुत की जायेगी लेकिन इन्हें भी अपना प्रतिरोध संयुक्त राष्ट्र संघ के ही माध्यम से नियोजित करना होगा। परन्तु उस स्थिति में कुछ भी होना असम्भव होगा यदि संयुक्त राष्ट्र संघ ही पश्चिमी हितों के समक्ष समर्पण कर दे।
एकध्रुवीय व्यवस्था के स्थान पर बहुध्रुवीय व्यवस्था की स्थापना की जा सके, इस प्रक्रिया में संयुक्त राष्ट्र संघ को महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करना है। इसके लिए इसके संरचनात्मक ढाँचे में परिवर्तन लाना होगा। उदाहरण के लिए इस बात पर विचार करना होगा कि अब समय आ गया है जब निषेधाधिकार की व्यवस्था को खत्म करके सभी देशों को समान अधिकार प्रदान किया जाये ।
कुछ विचारकों का मानना है कि इराक़ के विरुद्ध लागू आर्थिक प्रतिबन्ध के परिणामस्वरूप आने तक प्रतीक्षा न करके इराक को कुछ और सप्ताहों का अवसर न प्रदान कर, अमेरिका ने अन्तर्राष्ट्रीय विधि के शासन की आत्मा पर आघात किये हैं। सोवियत संघ के पतन के कारण विश्व एकध्रुवीय हो गया है। लेकिन 9 व 10 दिसम्बर, 1991 को मेंस्ट्रिख में यूरोपीय समुदाय की जो सफल बैठक हुई, उसने द्वितीय ध्रुव का बीजारोपण कर दिया है। 1 जनवरी, 1994 को स्वतंत्र यूरोपीय मुद्रा संस्थान की स्थापना हुई। इसे यूरोप के एकीकरण की दिशा में सराहनीय कदम माना जा सकता है। सन् 1997 में संयुक्त यूरोपीय मुद्रा का चलन होने का प्रावधान था। मेस्ट्रिख घोषणा में राजनीतिक संघ, साझी विदेशी नीति, साझी प्रतिरक्षा व संयुक्त यूरोपीय संघ को भी प्रारूपित किया गया है। यह यूरोप के नैसर्गिक राष्ट्रवाद का उन्नयन है। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि नवोदित शक्ति अमेरिका की दादागिरी का सामना करने में समर्थ हो सकेगी।
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