जीववाद अथवा आत्मावाद (Animism)
जीववाद अथवा आत्मावाद (Animism)- सर्वप्रथम टायलर ने आत्मा को आधार बनाकर धर्म की उत्पत्ति का एक सिद्धान्त प्रस्तुत किया, जिसे जीवन अथवा आत्मवाद के नाम से जाना जाता है। टायलर ने धर्म के मूलस्रोत को ढूँढा व सर्वप्रथम उसकी वैज्ञानिक व्याख्या की है। उनके अनुसार सभी धर्म मूलतः आत्मा के विचार पर आधारित हैं, हालांकि ऊपरी स्वरूप के सभी धर्मों में विभिन्नता पाई जाती है जोकि उनके सामाजिक, भौगोलिक, आर्थिक, राजनैतिक परिवेश से निर्मित होती है।
टायलर जीववाद की व्याख्या करते हुये आत्मा को दो भागों में बाँटते हैं –
(1) वे आत्मायें जो जीवित अवस्था में मानवीय शरीर में रहती हैं और मनुष्य के मरने के पश्चात भी इनका अस्तित्व बना रहता है।
(2) ऐसी आत्मायें भी होती हैं जिनका अस्तित्व मानवीय आत्माओं से परे होता है। बोलचाल की भाषा में इन्हें प्रेत अथवा दैवीय आत्मा कहा जाता है। ये आत्मायें अत्यधिक शक्तिशाली एवं अमर होती हैं। ये विश्व की घटनाओं एवं मानवीय जीवन को नियमित तथा निर्देशित करती हैं।
अतः मानव आत्माओं के प्रति आस्था एवं भय रखता है। आस्था पर अत्यधिक बल देने के कारण टायलर धर्म की परिभाषा आध्यात्मिक शक्तियों में विश्वास के रूप में देते हैं। टायलर आगे कहते हैं कि आदिम लोगों का विश्वास था कि आत्माओं का साक्षत्कार स्वप्न में परछाइयों में प्रतिबिम्बों में किया जा सकता है। वे मृत्यु को एक ऐसी घटना मानते हैं जिसमें मानव शरीर से कोई अदृश्य शक्ति निकल जाती है। वह अदृश्य शक्ति आत्मा है जो मनुष्य को जीवित रखती है। आत्मा एक पतली निराकार मानव प्रतिमूर्ति आकृति में कुहरा अथवा छाया की भांति है। टायलर के अनुसार इन्हीं प्रेत आत्माओं के प्रति भय, आस्था, श्रद्धा ही आदिम धर्म का स्रोत है।
आलोचना
(क) धर्म की उत्पत्ति केवल परछाई, स्वप्न आदि के माध्यम से नहीं समझी जा सकती अपितु अन्य कारक भी महत्वपूर्ण हैं। दुर्खीम ने धर्म को सामाजिक तथ्य बताया और समाजिक कारकों को धर्म की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण माना।
(ख) वर्तमान वैज्ञानिक युग में आत्मा की अवधारणा अप्रासंगिक हो चुकी है अतः इस आधार पर आत्मावाद आलोचना की कसौटी पर खरा नहीं उतरता।
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