समाजशास्‍त्र / Sociology

शोध प्रारूप के उद्देश्य और प्रकार | Objective and Types of Research Design in Hindi

शोध प्रारूप के उद्देश्य और प्रकार- Objective and Types of Research Design in Hindi

शोध प्रारूप के उद्देश्य

शोध की वस्तुनिष्ठता तथा वैज्ञानिकता की प्रभावशीलता हेतु शोध अभिकल्प का निर्माण किया जाता है। संक्षेप में इसके उद्देश्यों को प्रस्तुत किया जा रहा है-

1. प्रसरण नियन्त्रण (Control of Variance) – शोध के दौरान विशेषकर मानव प्रयोज्य समूहों पर बाहा कारकों का अधिक प्रभाव पड़ता है वहीं मानव के अन्दर होने वाले आन्तरिक परिवर्तन का प्रभाव भी अनुसन्धान को प्रभावित करता है। अभिकल्प के चयन का प्रमुख उद्देश्य प्रेक्षण में अध्ययन किए जाने वाले प्रमुख गोचरों पर बाह्य चरों के प्रभाव को निरसित करना या न्यून करना या उसे पृथक करना होता है।

2. समस्या समाधान प्रस्तुत करना (Presentation of Problem Solving) अनुसंधान अभिकल्प, शोध व्युत्पन्न समस्या का समस्याजनित अनुसंधान हेतु वैध, विश्वसनीय, वस्तुपरक एवं परिशुद्ध समाधान प्रस्तुत करने में सहायक होता है। बहुत से शोधार्थी न तो अभिकल्प को समझने का प्रयास करते हैं न ही उसमें रुचि लेते हैं पर इसे जानना आवश्यक होता है। प्रायः यह देखा जाता है कि शोधार्थी, समस्या, शोध उद्देश्य, परिकल्पना, चरों का निर्धारण, उपकरणों का प्रयोग, जनसंख्या निर्धारण, प्रतिदर्श चयन में त्रुटि करते हैं और वैज्ञानिक तथा सामाजिक अनुसंधानों में प्रदत्त संकलन एवं विश्लेषण में भी बुद्धि करते हैं। इसलिए शोध परिकल्प का प्रारम्भिक ज्ञान एक शोधार्थी के लिए आवश्यक है।

3. अनुसन्धान परिणामों का सामान्यीकरण (Generalization of Results) – सामान्यीकरण का आशय यह है कि एक छोटे से प्रतिदर्श पर किये गये अनुसन्धान का परिणाम सम्बन्धित जनसंख्या के शीलगुणों की व्याख्या में सहायक होता है। इसके अतिरिक्त प्राप्त परिणाम एवं निष्कर्ष ऐसी ही अन्य स्थितियों में भी मिल सकेंगे, इसका भविष्यकथन किया जा सकता है। किसी ठोस अभिकल्प से प्राप्त किए गये परिणाम सामान्यीकरण के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं तथा वह अभिकल्प की उत्तमता को व्यक्त करते हैं। सामान्यीकरण को दो बातें प्रमुख रूप से प्रभावित करती हैं – (i) आन्तरिक वैधता, (ii) बाह्य वैधता ।

इसे भी पढ़े…

शोध प्ररचना के प्रकार (Types of Research Design in Hindi)

शोध प्रारूप के कई नाम और अलग-अलग पहचानें हैं। इसके बावजूद भी यह कहना कठिन है। कि शोध प्रारूपों में इतनी भिन्नता है कि उनके बीच स्थायी अन्तर की रेखा खींची ही जा सकती है। हर प्रारूप का कोई न कोई अंग और अंश दूसरे प्रारूपों में सम्मिलित रहता है। इसलिये हर प्रारूप दूसरे प्रारूप से जुड़ा भी माना जा सकता है तथापि कई प्रकार के शोध प्रारूपों की चर्चा इस प्रकार है-

शोध प्रारूप के उद्देश्य और प्रकार

शोध प्रारूप के उद्देश्य और प्रकार

1. अन्वेषणात्मक / खोजपरक शोध प्ररचना- यह प्रारूप खोजवादी है। उपकल्पना के तथ्यों की खोज जिसका शोध करना है, उसके बारे में गहन सूचना, अवधारणाओं की स्पष्टता की खोज, अगली शोधों के लिए पृष्ठभूमि की तलाश, व्यावहारिक सत्यों के बीच सैद्धान्तिक वास्तविकताओं की तलाश करने में यह प्रारूप काफी मूल्यवान है। यह प्रारूप ढेर सारी सम्भावनाओं के बीच से सुनी गई उत्तरदायी सम्भावनाओं को खोज निकालने में दक्ष है। जैसे भारत में गरीबी के अन्य कारण बताये गये हैं पर कुछ निश्चित कारणों का पता लगाना हो तो अन्वेषणात्मक प्रारूप सबसे अच्छा है।

2. वर्णनात्मक शोध प्रारूप- इस प्रारूप का केन्द्रीय उद्देश्य विवरण प्रस्तुत करना है –

सम्पूर्ण का कार्य या परिणाम का, कारणों का परिस्थितियों का परिवर्तन और नियन्त्रणों का अर्थात् जिस क्षेत्र और विषय का अनुसन्धान किया जाना है उसके सम्बन्ध में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना ही इसका लक्ष्य है। जनमत, जनभावना, जनव्यवहार का अध्ययन भी इस प्रारूप के द्वारा किया जा सकता है। समूहों के व्यवहार से सम्बन्धित उपकल्पनाओं का परीक्षण भी इससे होता है। इस प्रारूप से किए जाने वाले अनुसन्धान में तथ्यों को जुटाने के लिए किसी भी विधि का प्रयोग किया जा सकता है।

3. परीक्षणात्मक शोध प्रारूप- भौतिक विज्ञानों में प्रयोगशालीय अध्ययनों की तर्ज पर यह शोध प्रारूप नियन्त्रित दशाओं के बीच शोध करने का मार्ग प्रशस्त करता है। चेपिन ने लिखा है कि परीक्षण आधारित शोध प्रारूप व्यवस्थित सामाजिक अध्ययन के लिए नियन्त्रित दशायें प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है। नियन्त्रित दशा का अर्थ कई चरों की स्थिति में से जिस चर को चाहे नियन्त्रित करके अध्ययन किया जाए। उदाहरण के लिए “अपराधी जन्मजात नहीं होते वरन् बनाये जाते हैं।’ का अध्ययन करना चाहे तो इस प्रारूप से बहुत सहायता मिल सकती है। बनाये जाने का अर्थ है “सम्पर्क से अपराध सीखना। हम दो समूह के बच्चों को लेकर यह प्रयोग कर सकते हैं। एक समूह का ‘चर’ होगा – अपराधियों का सम्पर्क और दूसरे में यही ‘चर’ नियन्त्रित रहेगा। अर्थात् दूसरा समूह अपराधियों की संगति से अलग रहेगा फिर हम दोनों समूह के बच्चों की सीख’ की तुलना कर निर्णय पर पहुँच सकते हैं। उपकल्पना या निष्कर्ष का पुनः परीक्षण कर सकते हैं।

इसे भी पढ़े…

4. विशुद्ध शोध प्रारूप- शोध का यह प्रारूप पूरी तरह शुद्ध ज्ञान के संचयन के लिए समर्पित है। व्यावहारिकता या उपयोगिता को ध्यान में रखकर इसे प्रयोग में नहीं लाया जाता। इसे इसीलिये आधारभूत शोध या Basic Research भी कहते हैं। विशुद्ध शोध के सम्बन्ध में कुछ लोगों का कहना है कि ‘ज्ञान के लिए ज्ञान’ की पिपासा आज के इस भौतिकवादी युग में निरर्थक है लेकिन यह बात सही नहीं है। विशुद्ध शोध द्वारा प्राप्त ज्ञान का प्रयोग व्यावहारिक शोध के अन्तर्गत भी किया जाता है।

5. व्यावहारिक शोध प्रारूप- ‘समाज’ ज्ञान से अधिक व्यवहार की संकुलता’ का नाम है। कुछ व्यवहार और प्रकार्य ऐसे हैं जिनको बढ़ावा देना समाज के हित में होता है। परन्तु कुछ व्यवहार, प्रकार्य या परिणाम, घटनाएँ ऐसे हैं जो अवांछित हैं, अनुपयोगी हैं। ये सामाजिक रोग या सामाजिक समस्या पैदा कर देते हैं – यदि उनको नियन्त्रित, निर्देशित न किया जाए तो उनसे विपरीत या बुरे परिणाम मिलेंगे, तो कौन से ऐसे व्यवहार हैं ? किनको नियन्त्रित और निर्देशित करने की जरूरत है ? और कैसे ? इन व्यावहारिक और उपयोगी प्रश्नों को सामने रखकर जो भी शोध किए जाते हैं उनके प्रारूप को उपयोगितावादी शोध का प्रारूप कहा जाता है।

6. क्रियात्मक शोध या एक्शन रिसर्च- व्यावहारिक या उपयोगितावादी शोध’ का ही यह अधिक सक्रिय और सक्षम तथा विकसित रूप है। अमेरिका के प्रो. कोलियर, स्टीफेन एम. कोरी, लिंकिन आदि ने एक्शन रिसर्च की अवधारणा प्रस्तुत की। भारत में भी गन्दी बस्ती सुधार योजना, पेयजल सुधार जैसी कई समस्याओं के सन्दर्भ में इस विधि का प्रयोग होने लगा है।

7. मूल्यांकनात्मक शोध- समाज सेवी गठन एवं सरकारें जनहित में देशहित में कई योजनाएँ चलाते हैं। अरबों, खरबों रूपया खर्च होता है। समय और श्रम लगता है। जिनके लिए योजनाएँ चलाई जाती हैं उनकी जीवन पद्धति पर भी असर पड़ता है। अनेक नई चीजें आ जुड़ती हैं उस क्षेत्र में या वहाँ के निवासियों के जीवन में पर, प्रश्न उठता है कि “क्या जो सोचकर या जिस उद्देश्य से योजनाएँ चलायी गयी थीं वे उद्देश्य पूरे हुए या हो रहे हैं ? या “पूरे नहीं हुए तो किस सीमा तक कार्य किया योजनाओं ने ? लाभ अधिक हुआ कि हानि आदि आदि ? ऐसे अनेक प्रश्न उठ खड़े होते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए जो शोध किए जाते हैं उन्हें ही मूल्यांकन शोध के नाम से जाना जाता है।

  1. अल्फ्रेड रेडक्लिफ- ब्राउन के प्रकार्यवाद की आलोचना
  2. पारसन्स के प्रकार्यवाद | Functionalism Parsons in Hindi
  3. मैलीनॉस्की के प्रकार्यवाद | Malinaski’s functionalism in Hindi

Important Links

Disclaimer

Disclaimer:Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: guidersarkari@gmail.com

About the author

Sarkari Guider Team

Leave a Comment