विविधता की अवधारणा-
विविधता से तात्पर्य ऐसी स्थिति से है जिसमें समस्त भाषायी, क्षेत्रीय, भौगोलिक एवं सांस्कृतिक रुप से अलग-अलग रहने वाले मानव एक समुह/ समाज या एक स्थान विशेष में साथ-साथ निवास करते हैं।
ऐसा माना जाता है कि सभी व्यक्ति शारीरिक रचना की दृष्टि से समान होती है। उनके मूल ऐसे होते हैं जिन्हें विशेष लक्षणों के कारण ऐसे समूह में रखा जा सकता है जो उन लक्षणों मैं से निम्न लक्षण वाले समूहों से अलग होते हैं। अनेक ऐसे जैविक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा राजनीतिक आधार हैं जो किसी भी देश के निवासियों में विविधता विकसित कर देते हैं। दूसरी ओर ऐसा भी माना जाता है कि कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से किसी अन्य व्यक्ति के समान नहीं होता है। लोगों में जो समानता हमें प्रजातीय लक्षणों के कारण दिखाई देती है, वस्तुतः यह केवल वैध समानता ही है। एक प्रजाति के लोग भी सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक आधार पर समूहों में ही हो सकते हैं। राजनीतिक दृष्टि से भी उनमें से कुछ अल्पसंख्यक समूह सत्ताधारी तथा शासक वर्ग के हो सकते हैं। समाजशास्त्र जैसे विषय में विविधता का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है।
विविधता का अर्थ –
विविधता का आशय व्यक्तियों एवं समूहों में पाई जाने वाली असमानताएं हैं। विविधता के अवधारणा में स्वीकृति एवं सम्मान सन्निहित होते हैं। इसका अर्थ यह समझ लेना है कि प्रत्येक व्यक्ति विशिष्ट एवं अनुपम होता है तथा हमें अपने वैयक्तिक भेदों को मान्यता देनी चाहिए। ये भेद प्रजाति, सजाति, लिंग (जेण्डर), लैंगिग अभिविन्यासों. सामाजिक आर्थिक प्रस्थिति, आयु, शारीरिक क्षमताओं, धार्मिक विश्वासों अथवा वैचारिकियो जैसे. पहलुओं के आधार पर हो सकते हैं। विविधता के अध्ययन से अभिप्राय इन भेदों का अन्वेषण सुरक्षित, सकारात्मक तथा पोषक वातावरण के रूप है। यह एक-दूसरे को समझने तथा सरल सहिष्णुता से विविधता के बहुमूल्य पहलुओं की ओर आगे बढ़ने से सम्बन्धित है। यदि ऐसा नहीं होगा तो कोई भी समाज विविधता के होते हुए अपना तथा स्थायित्व बनाए रखने में सफल नहीं हो सकता।
विविधता की अवधारणा के सम्बन्ध में यह तथ्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि अमेरिका एवं भारत जैसे बहुलवादी एवं बहुसांस्कृतिक देशों में इसकी कोई सुस्पष्ट परिभाषा नहीं है तथा यह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति, एक संगठन से दूसरे संगठन तथा एक लेखक से दूसरे लेखक के लिए भिन्न हो सकती है। कुछ संगठनों में विविधता प्रजाति, जेण्डर, धर्म तथा विकलांगता पर कठोरता से केन्द्रित होती है, जबकि अन्य संगठनों में विविधता की अवधारणा का विस्तार लैंगिक (यौन) अभिविन्यासों, शरीर की छवि, सामाजिक-आर्थिक प्रस्थिति आदि के रूप में हो सकता है। वेलनर ने विविधता का सम्प्रत्यीकरण लोगों में पाए जाने वाले वैयक्तिक भेदों तथा समानताओं की बहुलता के रूप में किया है। विविधता में अनेक मानवीय लक्षण जैसे प्रजाति, आयु, जाति, नस्ल, राष्ट्रीय उत्पत्ति, धर्म, संजाति, लैंगिक अभिविन्यास आदि सम्मिलित होते हैं।
विविधता के कारण-
भारत में विभिन्न जातियों, धर्मों के लोग निवास करते हैं। यहाँ अनेकों भाषाओं का प्रचलन है तथा समाज में विभिन्न जातियों का अस्तित्व है। इसके बावजूद भी ये सभी एक देश व एक स्थान पर साथ-साथ निवास करते हैं जो भारतीय समाज में विविधता का प्रमुख कारण है, जैसे-
1. जातीय कारण-
भारतीय समाज और संस्कृति में जातिगत विविधता भी बड़ी महत्वपूर्ण है। यद्यपि यह विविधता प्राकृतिक या वाह्य कारणों से नहीं वरन् हिन्दू संस्कृति की ही देन है, तथापि अलगाव और सामाजिक जीवन के खण्डात्मक विभाजन की दृष्टि से बड़ी महत्वपूर्ण है। जे0 एच0 हट्टन (J. H. Hutton) के अनुसार भारतवर्ष में करीब 3,000 से भी ऊपर जातियाँ और उपजातियाँ हैं। इनकी उत्पत्ति इसी समाज के भीतर से हुई परन्तु सामाजिक सम्मिलन की दृष्टि से जातिगत विविधता ने भारतीय समाज में बड़ा अलगाव पैदा किया है। विवाह, छुआछूत, जाति के प्रति भक्ति, दूसरी जातियों के प्रति ऊँच-नीच की भावना और उससे उत्पन्न घृणा आदि के कारण ही भारतीय समाज में विविधता पाई जाती है।
2. संजातीय कारण-
नृजातिकी समूह किसी समाज की जनसंख्या का वह भाग होता है जो परिवार की पद्धति, भाषा, मनोरंजन, प्रथा, धर्म, संस्कृति एवं उत्पत्ति आदि आधार पर अपने को दूसरों से पृथक् समझता है। दूसरे शब्दों में, एक प्रकार की भाषा, प्रथा, धर्म, परिवार, रंग एवं संस्कृति से सम्बन्धित लोगों के एक समूह को नृजातिकी की संज्ञा प्रदान दी जाती है। समान इतिहास, प्रजाति, जनजाति, वेश-भूषा, खान-पान वाला सामाजिक समूह भी एक नृजातीय समूह होता है जिसकी अनुभूति उस समूह एवं अन्य समूहों के सदस्यों को होनी चाहिये। समान आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हितों की रक्षा तथा अभिव्यक्ति करने वाले समूह को भी संजातीय समूह कहा जा सकता हैं। एक नृजातिकी के लोगों में परस्पर प्रेम, सहयोग एवं संगठन पाया जाता है, उनमें अहं की भावना पायी जाती है। एक नृजातिकी के लोग दूसरी नृजातिकी के लोगों से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने हेतु अपनी भाषा, वेश-भूषा, रीति रिवाज एवं उपासना पद्धति की विशेषताओं को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। समाजशास्त्रीय भाषा में इसे नृजातिकी केन्द्रित पवृत्ति (Ethnocentrism) कहते हैं। नृजातिकी के आधार पर एक समूह दूसरे समूह से अपनी दूरी बनाये रखता है। सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से शक्तिशाली नृजातिकी समूह कमजोर नृजातिकी समूह का शोषण करते हैं, उनके साथ भेद-भाव रखते हैं। इससे समाज में असमानता, संघर्ष एवं तनाव पैदा होता है। भाषा, धर्म और सांस्कृतिक विभेद, संजातीय समस्या के मुख्य कारण हैं। भारत में भाषा, धर्म, सम्प्रदाय एवं प्रान्तीयता की भावना के कारण अनेक तनाव एवं संघर्ष हुए हैं।
3. भाषायी कारण-
भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति का शायद सबसे शक्तिशाली माध्यम है। प्राकृतिक अलगाव के कारण इस देश में प्रायः प्रत्येक दस मील पर भाषा और बोली में अन्तर पाया जाता है। 2001 की जनगणना के अनुसार देश में 1,652 भाषाएँ बोली जाती हैं। वैसे भारतीय संविधान में केवल 18 भाषाओं का ही उल्लेख किया गया है, परन्तु इनके अतिरिक्त भारत में और भी भाषाएँ और बोलियाँ हैं जिनका कुछ-न-कुछ साहित्य है। वैसे तो अधिकांश भाषाएँ लिपि-रहित हैं, परन्तु कुछ की लिपियाँ भी हैं और समृद्ध भी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश और समाज में भाषागत विविधता भी बहुत है। भारत की सभी भाषाओं को तीन भाषा परिवारों में रखा गया है
1. इण्डो आर्यन भाषा परिवार- इसके अन्तर्गत हिन्दी, संस्कृत, बंगला, उर्दू, राजस्थानी हरियाणवी आदि भाषायें सम्मिलित हैं।
2. द्रविड़ भाषा परिवार- इसके अन्तर्गत तमिल, तेलगू, कन्नड़, मलयाली और गोंडी आदि भाषायें सम्मिलित हैं।
3. आस्ट्रिक भाषा परिवार- इसके अन्तर्गत बिरहोर, कोरकू, हो, खरिया, भूमिज, संथाली, मुण्डारी, जुआँग, खासी, कोरवा आदि भाषायें सम्मिलित हैं। उपरोक्त भाषाओं के अतिरिक्त भारत में चीनी-तिब्बती परिवार की भाषा भी पायी जाती है, यथा लेपचा, नेवाड़ी, मणिपुरी और नागा भाषा आदि।
4. भौगोलिक कारण-
भौगोलिक दृष्टि से भारत भिन्न-भिन्न खण्डों और उपखण्डों में विभक्त है तथा उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम में हजारों किलोमीटर तक फैला हुआ है। भारत का कुल क्षेत्रफल 32,87,263 वर्ग किलोमीटर (विश्व का 2.42 प्रतिशत) है। यह सम्पूर्ण भू-भाग तीन भागों में विभाजित है- (क) हिमालय का विस्तृत पर्वतीय प्रदेश, (ख) गंगा का मैदान और (ग) दक्षिणी पठारी भाग सभी खण्डों और उपखण्डों के वासियों की भाषा, रहन-सहन, तौर-तरीके, वेशभूषा, संस्कृति और सामाजिक संगठन अलग-अलग हैं। इतना ही नहीं, विभिन्न भागों में पाए जाने वाले पशु, वर्षा की दशा, भूमि की किस्म, खान-पान इत्यादि में भी विविधता पाई जाती है।
5. प्रजातीय कारण-
भारत की विशालता को देखते हुए इसे एक छोटा-सा महाद्वीप कहना ठीक होगा। कभी-कभी भारत को विभिन्न जातियों और प्रजातियों का अजायबघर भी कह दिया जाता है। बिलोचिस्तान से लेकर असम और म्यांमार (बर्मा) तक, पश्चिमी तट पर गुजरात से लेकर कुर्ग की पहाड़ियों तक तथा हिमालय पर्वत से लेकर कन्याकुमारी तक विविध प्रजातियों के लोग रहते है, जैसे- श्वेत (काकेशियन), पीत (मंगोलियन), श्याम (नीगागे, तस्मानियन, मलेशियन, बुशमैंन) आदि। सम्पूर्ण भारत में यों तो बहुत प्रजातियाँ रहती हैं, परन्तु 8 प्रजातियाँ विशेषतया उल्लेखनीय हैं- आर्य प्रजाति, मंगोल प्रजाति, द्रविड़ प्रजाति, मंगोल द्रविड़ प्रजाति, सीथो- द्रविड़ नीग्रटो प्रजाति और भूमध्यसागरीय प्रजाति। इन सभी प्रजातियों के खान-पान, व्यवसाय, रहन-सहन, आचार-विचार, मनोरंजन के साधन, सामाजिक संगठन, भाषा और शारीरिक विशेषताएँ भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं। इस प्रकार, भारत में सभी प्रमुख प्रजातियाँ विद्यमान रही हैं। यद्यपि आज प्रजातीय मिश्रण के कारण शुद्ध रूप में कोई प्रजाति नहीं पाई जाती है, तथापि प्रजातियों के सम्मिश्रण से उत्पन्न विविधता स्पष्टतः देखी जा सकती है।
6. जनजातीय कारण-
भारतवर्ष में अनेक ऐसे मानव समूह निवास करते हैं जो आज भी आधुनिक सभ्यता के प्रभावों से बहुत दूर हैं। इन्हीं को जनजाति अथवा वन्य जाति कहा जाता है। सभी जनजातियों की भाषा अलग है, पूजा विधि अलग है और संस्कृति भी अलग है। इन सभी जनजातियों में भी सांस्कृतिक विविधता पाई जाती है। भारतीय संविधान में इनकी कुल संख्या 216 है, परन्तु इसके अतिरिक्त भी बहुत से ऐसे समुदाय हैं जो जनजातीय जीवन बिता रहे हैं। सम्पूर्ण भारत को जनजातियों की दृष्टि से चार क्षेत्रों में बांटा जा सकता है (अ) मध्य क्षेत्र में मध्य प्रदेश, बिहार व उड़ीसा तथा पश्चिम बंगाल की जनजातियाँ (जैसे कि सन्थाल, मुण्डा, उराँव, हो, भूमिज, कोया, खोण्ड, भूइयाँ, बैगा इत्यादि) आती हैं। (ब) उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में हिमालय की तराई, असम और बंगाल की जनजातियाँ (जैसे गद्दी, गूजर, किन्नउरा, कुकी, गारो, खासी, नागा इत्यादि) आती हैं। (स) दक्षिणी क्षेत्र में केरल, मैसूर, मद्रास (चेन्नई) तथा पूर्वी पश्चिमी घाटों पर रहने वाली जनजातियाँ (जैसे गोंड, कोण्डा डोरा, इरूला, टोडा, पनियन इत्यादि) आती हैं। (द) पश्चिमी क्षेत्र में राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में रहने वाली जनजातियाँ (जैसे मीना, भील, गमित, कोकना इत्यदि) आती हैं। जनजातियों की कुल जनसंख्या का इन चार क्षेत्रों में प्रतिशत वितरण इस प्रकार है-(i) हिमालय का क्षेत्र (11.35), (ii) मध्य भारत क्षेत्र (56.88), (iii) पश्चिमी भारत क्षेत्र (24.86) तथा (iv) दक्षिणी भारत क्षेत्र (6.21 )
7. धार्मिक कारण-
धार्मिक दृष्टिकोण से भारत के नागरिक विभिन्न धर्मों के अनुयायी हैं। यदि एक ओर हिन्दू धर्म में विश्वास करने वाले हैं तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म मानने वाले मुस्लिम लोग भी भारतवासी ही हैं। बौद्ध धर्म के लोग भी भारत में कुछ कम नहीं हैं। क्रिश्चियन अर्थात् ईसाई धर्म को मानने वाले भी नगरों और ग्रामीण समुदायों में वास करते हैं । सिक्ख धर्म के लोग भी भारत के विभिन्न प्रान्तों में फैलें हुए है। सभी धर्मों की अपनी भिन्न-भिन्न मान्यताएँ हैं तथा उपसना एवं पूजा की अपनी-अपनी भिन्न-भिन्न विधियाँ हैं। इन धर्मों के अतिरिक्त अनेक सम्प्रदाय, जैसे- रौब, वैष्णव, आर्य समाजी, नानक पन्थी, कबीर पन्थी इत्यादि उल्लेखनीय हैं जिनके अन्तर्गत उच्च कोटि के विचारक उत्पन्न हुए हैं।
8. राजनीतिक कारण-
प्रशासन की सुविधा के लिए भारत को पाँच प्रमुख भागों में विभक्त कर दिया गया है। ये पांच भाग हैं- केन्द्र, प्रान्त, जिला, ब्लॉक और नगर अथवा गाँव । इन सब भागों के अलग-अलग अधिकारीगण हैं और उनके अधिकार क्षेत्र तथा कर्तव्य भी अलग-अलग तथा सुनिश्चित हैं। जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा इन उपर्युक्त सभी भागों और उपभागों का प्रशासन चलता है। सरकारी नियम भी भिन्न-भिन्न भागों में अलग-अलग हैं। जनता द्वारा निर्वाचित प्रत्येक क्षेत्र (भाग) की सरकार को पूर्णतया यह स्वतन्त्रता है कि वह अपने क्षेत्र के नागरिकों के कल्याण के लिए समितियाँ और उपसमितियाँ बनाकर कार्यभार सँभाले । भारत में राजनीतिक दलों की भरमार है तथा उनकी विचाराधाराओं में पर्याप्त अन्तर है। केन्द्र में एक दल की सरकार है तो विभिन्न राज्यों में उससे भिन्न प्रकार के राजनीतिक दलों की सरकारें कार्य कर सकती हैं।
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