योग के महत्त्व एवं उपयोगिता का विवेचन कीजिए।
योग न केवल शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ाता है, बल्कि हमारे व्यक्तित्व में भी निखार लाता है। जीवन के प्रति आपके नजरिए को बदलता है तथा आपके विचारों, इच्छाओं, मनोभावों व शारीरिक प्रविधियों में एक तूफानी बदलाव लाता है। योग के महत्व पर प्रकाश डालते हुए किन हबर्ड कहते हैं-
“यह बताना बड़ा कठिन है कि वह क्या चीज हैं जो खुशी लाती है, क्योंकि गरीबी व धन दोनों असफल हो चुके हैं।
योग जीवन को अच्छी तरह समझने और उसे अच्छी तरह से जीने की कला में पारंगत करता है। हमारे जीवन के सभी पक्षों और विकास के सभी आयामों को योग क्रियायें सभी तरह से प्रभावित करती हैं। संक्षेप में योग के महत्त्व और उसकी उपयोगिता को निम्न प्रकार से लिपिबद्ध किया जा सकता है-
1. शारीरिक महत्त्व –
प्रत्येक व्यक्ति की इच्छा होती है कि शरीर हष्ट-पुष्ट हो, उसके अंगों-प्रत्यंगों की कार्य क्षमता में वृद्धि हो तथा वह एक लम्बा जीवन व्यतीत करे। वह निरोग तथा ओजस्वी और कांतिमय बना रहे। शरीर को हृष्ट-पुष्ट बनाने, अंगों की कार्य क्षमता में वृद्धि करने व उसे निरोग बनाये रखने में योग साधना कोई सानी नहीं। इसके द्वारा निम्न प्रकार के शरीरिक एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी लाभ प्राप्त होने की पूरी-पूरी संभावना रहती है।
योग सम्बन्धी प्राणायाम द्वारा हमारे फेफड़ों के फैलने व सिकुड़ने की शक्तियों में वृद्धि होती है, जिससे अधिक ऑक्सीजन फेफड़ों में जाती है। दिल की कार्यक्षमता बढ़ती है और यह शक्तिशाली हो जाता है तथा श्वास क्रिया को नियंत्रित कर श्वास को स्थिर एवं शान्त करने में सहायता मिलती है। अधिक ऑक्सीजन के कारण रक्त साफ हो जाता है तथा शारीरिक थकान दूर होती है।
पाचन क्रिया को नियंत्रित करने में सहायता मिलती है, जिससे बहुत सी बीमारियों से छुटकारा मिल जाता है।
रीढ़ की हड्डी और मांसपेशियों के उचित गठन में योग साधना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
योग साधना से शरीर की रोग निरोधक शक्ति में वृद्धि होती है।
योग शारीरिक थकान दूर करने में ही नहीं बल्कि दीर्घायु बनाने के कार्य में भी बहुत उपयोगी सहायता प्रदान करता है।
2. मानसिक महत्त्व-
यदि मन स्वस्थ है तो ही शरीर स्वस्थ होगा। इसीलिए कहते हैं कि ‘मन चंगा तो कटौती में गंगा’ या मन के जीते जीत है और मन के हारे हार’। वर्तमान भौतिक युग में एक ओर सुख-सुविधाओं में वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर मानसिक तनाव में भी वृद्धि हुई है। इस भागम-भाग, तनावपूर्ण तथा अशान्त जीवन से मुक्त होने का बहुत ही सरल उपाय है ‘योग’ जिससे मानसिक शक्तियों के समुचित पोषण और विकास के लिए उपयुक्त चेतना और शक्ति भी प्राप्त होती है।
योग द्वारा प्राप्त इस सुन्दर और स्वस्थ शरीर में सबल और सशक्त मस्तिष्क का विकास स्वतः हो जाता है।
योग द्वारा चित्तवृत्तियों और मन की चंचलता तथा अंकुश लगाने की शक्ति आती है। एकाग्रचित्तता एवं ध्यान की स्थिरता मानसिक शक्तियों के लिए उपयुक्त पृष्ठभूमि तैयार करती है तथा अभ्यास, संयम, साधना और समाधि द्वारा इन्हें उचित पोषण मिलता रहता है।
योग साधना, ग्रहण क्षमता, धारण शक्ति तथा पुनःस्मरण शक्ति में सहायक बनकर योगी की स्मृति प्रक्रिया को अच्छे से अच्छा बनाने में सहयोग प्रदान करती है। जिस प्रकार शरीर की सफाई के लिए स्नान आवश्यक है, उसी प्रकार मन की सफाई के लिए प्राणायाम जरूरी है। जिससे स्मरण शक्ति में वृद्धि, नाड़ी संस्थान शक्तिशाली होता है और मन की चंचलता दूर होती है।
3. नैतिक महत्त्व-
योग-साधना व्यक्ति को नैतिक रूप से ऊँचा उठाने में निम्न प्रकार से यथेष्ट सहयोग प्रदान करती है।
योग-साधना से प्राप्त इन्द्रिय शक्ति निग्रह द्वारा व्यक्ति को अपनी इच्छाओं पर आवश्यक नियंत्रण रखकर उन पर अंकुश लगाने की क्षमता प्राप्त होती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति विषय वासनाओं का दास न होकर उनका स्वामी बन जाता है और इस तरह रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दों के मोहजाल से दूर रहकर पथ भ्रष्ट न होने देने में योग साधना अमूल्य सहयोग प्रदान करती है।
योगी का भोजन और उससे सम्बन्धित आदतें काफी सात्विक और नियंत्रित होने के कारण उसके आचार-विचार में बहुत अधिक सादगी, सात्विकता और अच्छाइयां घर कर लेती हैं।
योग साधना द्वारा संवेगों पर उचित नियंत्रण स्थापित करने और भावात्मक संतुलन बनाये रखने की क्षमता विकसित होती है।
यम, नियम, संयम, साधना और समाधि द्वारा नैतिक सम्बन्धी सद्विचारों और आदतों को पोषित कर पल्लवित और सुरभित करने का सुयोग प्राप्त होता है। सत्यप्रियता, प्रिय शब्द समय की पाबन्दी, ईमानदारी, सहिष्णुता, शान्ति, सहानुभूति आपसी प्रेम भाव एवं सहयोग आदि सभी नैतिक मूल्यों की स्थापना में योग साधना का महत्त्वपूर्ण सहयोग होता है।
4. सामाजिक महत्त्व-
व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है। उसके लिए समाज के बिना रहना यदि असंभव नहीं है तो कठिन अवश्य है। क्योंकि व्यक्ति जो कुछ भी लेता है, समाज से . लेता है। व्यक्ति के गुणों व अवगुणों की पहली पाठशाला परिवार है तथा अन्तिम पाठशाला समाज है। व्यक्तियों से मिलकर समाज बनता है। इसलिए जैसे व्यक्ति होंगे, वैसे ही समाज होगा। योग साधना से केवल व्यक्तिगत हित ही नहीं वरन् समाज का भी हित होता है, क्योंकि व्यक्ति के हित में ही समाज का हित निहित है अतः योग साधना का सामाजिक दृष्टि से निम्न महत्त्व है-
समाज में जिस प्रकार के व्यक्ति होंगे, वे अपने अनुकूल समाज का निर्माण करना चाहेंगे। योग साधना के पथ पर चलने वाले व्यक्तियों से इस प्रकार एक अच्छे समाज की रचना का सुअवसर प्राप्त हो सकता है।
सामाजिक बुराइयों जैसे छल, कपट, धोखाधड़ी, नशीले पदार्थों का सेवन, रिश्वतखोरी, काला बाजारी, हिंसा व मारकाट तथा अन्य इन्द्रिय-जनित और सांसारिक विषयों की आशक्ति से सम्बन्धित अपराधों की संख्या में कमी लाने के कार्य भी यौगिक पथ अमूल्य सहयोग प्रदान कर सकता है।
आज समाज के सामने मूल्यों और नैतिकता के मापदण्डों को बनाये रखने का जो संकट है और जो आपसी वैमनस्य, ईर्ष्या और शत्रुता और घृणा का जो वातावरण घर-बाहर, देश विदेश में व्याप्त है, उसे यौगिक साधना द्वारा सुझाए गए प्रेम सहयोग, शान्ति, संयम, धैर्य, सहिष्णुता, साधना और सच्चाई के मार्ग से ही सहज और सुखमय बनाया जा सकता है।
5. आध्यात्मिक महत्त्व-
योग साधना व्यक्ति को शरीर एवं मन से कहीं अधिक ऊपर आध्यात्मिक प्रगति का रास्ता दिखाती है।
शरीर और मन से परे व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के अभिन्न अंग आत्मा को जानने, पहचानने का अवसर मिलता है।
भारतीय दर्शन के अनुसार व्यक्ति के दो शरीर है-
स्थूल और सूक्ष्म, यौगिक साधना शारीरिक तथा शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों से परे अति सूक्ष्म तथा सुप्त दैविक तथा अलौकिक शक्तियों के जागरण में मददगार होती है।
सृष्टि ईश्वरमय है। सभी प्राणी उसी परमात्मा के अंश हैं तथा हमें सभी के प्रति प्रेम और आदर भाव रखने चाहिए।
केवल स्वयं की आत्मा ही नहीं बल्कि सभी प्राणियों की आत्माओं का उद्गम और गंतव्य स्थान परमात्मा है।
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