योग शिक्षा से आप क्या समझते हैं? इसके लक्ष्य, क्षेत्र, कार्य एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
योग शिक्षा का अर्थ- योग का व्यक्ति के जीवन में बहुत महत्त्व है। व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो, इसके लिए योग एक महत्त्वपूर्ण साधन है। योग साधना एक ऐसी सरल तथा सफल साधना है जिसके द्वारा व्यक्ति का विकास ही नहीं वरन् सारे समाज, राष्ट्र तथा अन्त में सारी मानवता का कल्याण हो सकता है। यदि व्यक्ति अच्छा है, ईमानदार है, चरित्रवान है, कर्तव्यनिष्ठ है तो समाज भी ऐसा ही बनेगा। यदि समाज अच्छा है तो राष्ट्र अच्छा होगा। यदि सभी राष्ट्र अच्छे हैं तो विश्व अच्छा होगा। युद्ध तथा आतंकवाद का भय समाप्त हो जायेगा। विश्व में स्थायी शान्ति की स्थापना हो जायेगी तथा सारे विश्व का कल्याण होगा।
योग शिक्षा का लक्ष्य- योग शिक्षा को माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के छात्र छात्राओं के लिए अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिससे देश की युवा, पीड़ी का सर्वांगीण विकास हो सके। वे सत् चरित्र वाले बनें। उन्हें देश के गौरव की पहचान करवाई जाए, जिससे विश्व में भारत को वही सम्मान तथा गौरव प्राप्त हो, जो उसे अतीत में प्राप्त था।
शिक्षा संस्थाओं में योग शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्य हो सकते हैं-
- योग साधना के माध्यम से विद्यार्थियों के आत्मिक तथा आध्यात्मिक विकास में सहायता करना।
- विद्यार्थियों के शारीरिक विकास का मार्ग प्रशस्त करना।
- युवा वर्ग को विभिन्न रोगों से ग्रसित न होने देना।
- योग-साहित्य तथा योग-आचरण से उनमें अच्छे संस्कार डालना। युवा पीढ़ी को मानवीय मूल्यों का ज्ञान करवाना।
- रोगों से ग्रसित न होने देना। रोग ग्रस्त होने की दशा में योगिक क्रियाओं से रोग मुक्त होने के उपाय बताना।
योग शिक्षा का क्षेत्र –
योग शिक्षा के क्षेत्र की बात यदि योग से उठाए जाने वाले लाभों के संदर्भ में की जाय तो यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि योग का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है तथा एक दृष्टि से सीमाहीन है। व्यक्तिगत कल्याण केवल आर्थिक उपयोग की सीमाओं को लांघ कर आत्मिक उत्थान तथा परमपिता परमेश्वर से मिलने की बात कहने लग जाए तो ऐसे स्थिति में उस विषय को किन सीमाओं में बाँधा जा सकता है। अनंत में लीन होने की अभिलाषा किस मानव में नहीं होती। परमपिता परमेश्वर में लीन होने के लिए ऋषि-मुनि, साधु-सन्त, योगी भोगी सभी कितना प्रयास करते हैं। गर्भ-गृह के अंधकूप में कौन बार-बार उल्टा लटके रहना चाहेगा। अनन्त में विलीन होने के लिए जितने भी साधन बन पड़े, उतने ही थोड़े हैं।
योग शिक्षा का कार्य-
योग शिक्षा के कार्य बहुत व्यापक हैं, जिसे सीमाओं में बाँधा संभव नहीं है। योग मानव जीवन से सम्बन्धित सभी पहलुओं से किसी न किसी रूप में हुआ है। योग शिक्षा ही सही अर्थों में जीवन को सही ढंग से जीने की कला है, शिक्षा है।
जुड़ा योग शिक्षा द्वारा शारीरिक विकास तथा शारीरिक स्वास्थ्य की दिशा में निम्नलिखित कार्य निभाए जाते हैं-
1. योग की शिक्षा अथवा योग का ज्ञान रीढ़ की हड्डी तथा शारीरिक मांसपेशियों के उचित गठन, नियंत्रण तथा लचीला और शक्तिशाली बनाने में सहायता देता है।
2. हमारा शरीर विकारों से भरा हुआ है। बात, कफ, पित्त के कारण अनेक रोग शरीर में लगे रहते हैं। ऐसी स्थिति में शरीर से विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालने में यौगिक क्रियाएँ महत्वपूर्ण योगदान देती हैं।
3. योग से रक्त दबाव, हृदय गति तथा शरीर का तापमान आदि को सामान्य तथा उपयुक्त बनाये रखने में सहायता मिलती है।
4. हमारे शरीर का शरीर पर बहुत प्रभाव पड़ता है। भाग-दौड़ की जिन्दगी में आहार भी भाग-दौड़ अर्थात् पैकेट बंद तथा जंकफूड हो गया है।
5. शान्ति से बैठकर भोजन करने का समय ही नहीं है। ऐसी स्थिति में पाचन क्रिया का बिगड़ना स्वाभाविक है। योग पाचन क्रिया को ठीक प्रकार से नियंत्रित कर शरीर की आवश्यकता के अनुरूप ढालने में सहायता करता है।
मानसिक स्वास्थ्य पर मन की शान्ति-
जैसा कि बार-बार कहा गया है कि वर्तमान भौतिकवादी युग में मनुष्य की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति बढ़ी है तो उसके साथ-साथ मानसिक तनाव तथा अशान्ति भी बढ़ी है। असंतोष बढ़ा है। बीमारियाँ बढ़ी हैं। ऐसी स्थिति में मानसिक स्वास्थ्य तथा मन की शान्ति के लिए सरल उपया बचा है तो वह केवल योग हैं।
मानसिक तनाव को दूर करने तथा मानसिक स्वास्थ्य तथा विकास की दिशा में योग शिक्षा द्वारा निम्न कार्य किए जा सकते हैं-
1. योग से चिंता, तनाव, संघर्ष व शिथिलता को दूर करके उपयुक्त मानसिक शान्ति व स्वास्थ्य प्राप्त करने में मदद मिलती है।
2. ज्ञानेन्द्रियाँ सबल बनती हैं। उनकी संवेदना तथा ग्रहणशीलता में योग द्वारा वृद्धि होती है।
3. यौगिक क्रियाओं से स्नायु संस्थान, रीढ़ की हड्डी तथा मस्तिष्क स्वस्थ, सजग पुष्ट बनता है तथा मानसिक स्वास्थ्य में वृद्धि होती है।
4. मानसिक व्याधियों तथा शारीरिक अस्वस्थता में योग द्वारा उपचार लाभप्रद होता है।
सामाजिक विकास-
योग शिक्षा से व्यक्ति की कायाकल्प हो जाती है। व्यक्ति चरित्रवान् बनता है। कर्तव्य पालन की भावना बढ़ती है। यदि जन-जन में कर्तव्यनिष्ठा आ जाए, जन-जन चरित्रवान बन जाए तो समाज, राष्ट्र तथा अन्त में सारे विश्व का कल्याण हो जाए। योग शिक्षा से व्यक्ति में सामाजिक कल्याण तथा विकास की भावनाएँ भी भरी जा सकती हैं। सामाजिक विकास तथा उन्नति में योग शिक्षा निम्न आधार पर सहायक हो सकती है।
1. व्यक्ति समाज कल्याण के लिए तभी सहायक हो सकता है। यदि वह स्वयं तन तथा मन से स्वस्थ है। योग तन तथा मन को स्वस्थ रखकर व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि करता है। व्यक्तियों की कार्यक्षमता में वृद्धि से अभिप्राय है। समाज की भलाई तथा विकास।
2. योग राजसी तथा तथा तामसी भोजन के स्थान पर सात्विक भोजन पर बल देता है। यह कहा जाता है— ‘जैसा अन्न वैसा मन’। सात्विक भोजन से आचरण तथा व्यवहार में सुधार होता है। योग सद् आचरण की प्रेरणा देता है। आज की युवा पीढ़ी पर देश का भविष्य निर्भर करता है। यदि वर्तमान युवा पीड़ी सद् आचरण करने वाली होगी तो निश्चित रूप से भारत का भविष्य सुरक्षित है।
नैतिक विकास-
योग शिक्षा नैतिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है। कहा जाता है कि यदि धन गुम हो जाये तो व्यक्ति धन फिर कमा लेगा। यदि उसका स्वास्थ्य ठीक नहीं है। तो वह जीवन में कुछ खोता है, परन्तु चरित्र ही नहीं है तो उसने सब कुछ खो दिया है।
योग शिक्षा नैतिक विकास तथा संवेगात्मक विकास की दिशा में निम्नलिखित कार्य करती है-
1. योग सद् आचरण, संयम, इन्द्रिय-निग्रह की भावना मन में भरता है। उपयुक्त समय पर उपयुक्त कार्य करना तथा संवेगात्मक व्यवहार करने के गुण पैदा करता है।
2. आज सत्यप्रियता, कर्त्तव्यनिष्ठा, दया, सहानुभूति, प्रेम, शान्ति, सहयोग केवल पुस्तकीय शब्द रह गये हैं। वास्तविक जीवन में इसका कोई मूल्य नहीं है। यौगिक क्रियाओं से व्यक्ति में ये गुण पैदा ही नहीं होते, वरन् वास्तविक जीवन में व्यक्ति इन्हें अपनाता भी है।
सांस्कृतिक विकास-
किसी भी देश के उत्थान-पतन में उस देश की संस्कृति का बहुत योगदान होता है। भारत का गौरवमय इतिहास इस बात का प्रमाण है। भारत ‘सोने की चिड़ियां’ के नाम से विख्यात था, जहाँ धन-धान्य की कोई कमी नहीं, आध्यात्मिक आधार पर विश्व गुरु संस्कृति का पतन होता रहा, देश का पतन होता रहा। आज भारत की आधी से भी अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से भी निम्न जीवन जीने को विवश है तथा भारत विश्व समुदाय का कर्जदार है। ऐसी विकट स्थिति में रोशनी की माध्यम सी लौ नजर आती है तो वह केवल योग है।
योग-शिक्षा व्यक्ति को सुसंस्कृति बनाने तथा सांस्कृतिक विकास की दिशा में निम्नलिखित कार्य कर सकती है-
1. योग शिक्षा सद् आचरण, संयम, नियम तथा इन्द्रिय-निग्रह आदि के माध्यम से उपयुक्त मानवीय मूल्यों को विकसित कर व्यक्ति को संस्कृति बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है।
2. युवा वर्ग को विशेष रूप से योग सम्बन्धी साहित्य तथा दर्शन आदि से परिचित करवा कर, अपनी संस्कृति को, जो पश्चिमी संस्कृति के कारण समाप्त होती जा रही है, जानने तथा पहचानने में सहायता मिल सकती है। युवा वर्ग को अपनी प्राचीन संस्कृति पर गर्व करने का अवसर तथा उसके मूल्यों को आत्मसात करने का अवसर मिल सकता है।
आध्यात्मिक विकास-
भारत आर्थिक आधार आधार पर नहीं वरन् आध्यात्मिक आधार पर विश्व गुरु माना जाता रहा है। विश्व के अनेक देशों के लोग ज्ञान प्राप्त करने के लिए भारत आये थे। भारत के साधु-सन्यासियों का संयमी जीवन, लम्बी आयु, जीवन के आदार्श उसके प्रेरणा स्त्रोत थे। धीरे-धीरे हम अपना गौरव भूलते चले गए। वर्षों तक विदेशियों द्वारा लूट तथा दासता के जीवन ने हमें आर्थिक आधार पर ही नहीं आध्यात्मिक आधार पर ही खोखला बना दिया।
योग-शिक्षा ही एक ऐसा उपाय नजर आता है जो व्यक्ति के आत्मिक उत्थान तथा आध्यात्मिक विकास की दिशा में निम्नलिखित कार्य सम्पन्न कर सकती है-
1. योग शिक्षा से स्थूल शरीर के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर के अस्तित्व का बोध संभव है। महत्त्व शरीर का नहीं आत्मा का है। शरीर तो जन्म लेता तथा मरता है, परन्तु आत्मा अमर हैं। जैसे हम कपड़े बदलते हैं उसी तरह आत्मा शरीर बदलती हैं। स्थूल शरीर तो यही समाप्त हो जाता है, ऊपर सूक्ष्म शरीर ही जाता है।
2. सभी प्राणी उस परमपिता परमेश्वर के अंश हैं। इसलिए सभी से प्रेम करना चाहिए। छोटे-बड़े का भेदभाव भूल कर समता की भावना भरने से योग शिक्षा बहुत सहायक हो सकती है।
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