विद्यालयों में बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक कौन से हैं? विवेचन कीजिए।
विद्यालयों में बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक- अच्छा स्वास्थ्य सुखी जीवन का आधार हैं और अच्छा स्वास्थ्य शैशवकाल से ही आरम्भ हो जाता है, क्योंकि एक स्वस्थ शिशु ही एक स्वस्थ वयस्क के रूप में विकसित होता है तथा जिसका स्वास्थ्य उसका साथ नहीं देता उसके लिए जीवन में किसी अन्य चीजों का कोई महत्त्व नहीं रहता। अब प्रश्न यह उठता है कि स्वस्थ कैसे रहा जा सकता है और हमारे स्वास्थ्य का अच्छा या खराब होना किन कारकों पर आधारित है।
स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक मुख्य रूप से निम्न हैं-
1. पौष्टिक व संतुलित भोजन- संतुलित व पौष्टिक आहार से दैनिक कार्यों के लिए शक्ति प्राप्त होती है। शरीर का स्वस्थ या अस्वस्थ होना संतुलित भोजन पर निर्भर करता है, क्योंकि शरीर रूपी मशीन में भोजन ईंधन का कार्य करता है। भोजन माँसपेशियों, ऊतकों और शारीरिक ढांचे का निर्माण करता है। शारीरिक विकास व विभिन्न शारीरिक क्रियाओं के दौरान नष्ट हुई रक्त कोशिकाओं की निरंतर पूर्ति में सहायता करता है कहा भी जाता है कि “जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन” जीवन के सुखों का उपभोग भी व्यक्ति तभी कर सकता है जबकि उसके पास इन्हें भोगने के लिए स्वस्थ शरीर हो और स्वस्थ शरीर का आधार संतुलित व पौष्टिक आहार है। असन्तुलित भोजन से व्यक्ति कुपोषण का शिकार हो जाता हैं तथा अनेक तरह के रोगों और शारीरिक अक्षमताओं से घिर जाता है व्यक्ति कुपोषण का शिकार हो जाता हैं तथा अनेक तरह के रोगों और शारीरिक अक्षमताओं से घिर जाता है। इसलिए बच्चों को आरम्भ से ही संतुलित भोजन संबंधी ज्ञान करा उन्हें कुपोषण से बचाया जाए।
2. जैविक कारक- ये ऐसे कारक है जिन्हें हम परिवर्तित नहीं कर सकते और हमारा स्वास्थ्य इन कारकों से प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। वंशक्रम व जैविक कारक दोनों ही समान हैं, क्योंकि वंशानुक्रम जैविक कारक ही पहुँचाता है और हमारे शरीर की संरचना व स्वास्थ्य इससे मुख्य रूप से प्रभावित होता है। पुरूष के शुक्राणु व स्त्री के रज से मिलने के कारण भ्रूण बनता है। पुरूष व स्त्री के कीटाणु कोशिकाओं को कहा जाता है। अंडे और शुक्राणु में पतले धागे जैसे संरचना होती है, जिसे क्रोमोसोम कहते हैं। ये ही वंशानुक्रम के वाहक हैं। आने वाली संतान का शारीरिक ढांचा ये जीनस ही निर्धारित करते हैं और यदि जीनस स्वस्थ होते हैं तो आने वाली संतान भी स्वस्थ होती है।
3. रोग- निरोधक शक्ति- हमारे शरीर में रोगों से लड़ने की जो शक्ति होती है, उसे ही प्रतिरक्षा शक्ति कहते हैं। रोग निरोधक शक्ति जिस व्यक्ति में जितनी अधिक होती है, उतना ही रोगमुक्त रहता है। जिन व्यक्तियों में स्वस्थ रहने की अच्छी आदतें होती हैं उनमें इस तरह की शक्तियाँ प्राकृतिक रूप से स्वतः ही विकसित हो जाती हैं तथा वे लोग जल्दी रोग्रस्त नहीं होते। स्वस्थ व पौष्टिक भोजन व बच्चों को उचित प्रतिरोधक टीके लगवाकर भी हम प्रतिरक्षा शक्ति को विकसित कर सकते हैं।
4. वातावरणीय कारक वातावरण से भाव दो प्रकार के वातावरण से है— भौतिक वातावरण और सामाजिक वातावरण भौतिक वातावरण से अभिप्राय है हमारे आस-पास की वस्तुएँ व प्राकृतिक परिवेश जैसे मकान, पेड़, नदियाँ, जंगल, पहाड़, आदि तथा सामाजिक वातावरण से अभिप्राय है हमारे आस-पास रहने वाले व्यक्ति, उनके कार्य, उनके रीति-रिवाज व अन्धविश्वास आदि। भौतिक व सामाजिक वातावरण हमारे स्वास्थ्य पर गहन प्रभाव डालते हैं, क्योंकि मनुष्य वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों की अन्तःक्रिया की उपज है। वातावरण मां के गर्भ में भी बच्चे पर प्रभाव डालता है और जन्म के बाद बच्चा पलता-बढ़ता ही वातावरण की गोद में है। इसलिए यदि वातावरण जिसमें व्यक्ति रहता है और पलता रहता है, शुद्ध व अनुकूल नहीं, उसका स्वस्थ रहना भी नामुमकिन है।
एक अच्छे वातावरण को प्रभावित करने या बनाए रखने में निम्न कारण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं-
- अच्छे रीति-रिवाज
- प्रचुर मात्रा में धूप
- आस-पड़ोस की शुद्धता
- प्रदूषण की न्यूनता
- स्वास्थिकी का ज्ञान
- पौष्टिक व संतुलित आहार
- व्यक्तिगत विचारों व आदतों का अच्छा होना।
5. विश्राम व शिथिलन- विश्राम व शिथिलन भी स्वास्थवर्धक कारक है। शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक सन्तुलन को बनाए रखने में विश्राम एक औषधि का कार्य करता है, क्योंकि विश्राम के समय शरीर के टूटे-फूटे तंतुओं और कोशिकाओं का पुननिर्माण होता है। विश्राम शिथिलन के दो पक्ष हैं— शारीरिक विश्राम और मानसिक विश्राम । शारीरिक विश्राम की आवश्यकता शारीरिक गतिविधियों (Motor activities) के बाद पड़ती है और मानसिक विश्राम की आवश्यकता बौद्धिक व्यायाम अर्थात पढ़ाई-लिखाई व चिन्ता उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों के बाद पड़ती है। इन दोनों से मानसिक व शारीरिक स्वास्थ्य के बीच आदर्श सन्तुलन बन पड़ता है। स्वास्थ्य शरीर में स्वास्थ्य मन की यूनानी कहावत बहुत प्रसिद्ध है।
6. उचित आकृति – जीवन में हम जो नियमित कार्य या गतिविधियाँ करते हैं, उन्हें करने से हमारे शरीर की अलग-अलग मुद्राएँ कार्यानुसार बनती हैं, उन्हें ही कार्यात्मक आकृति का नाम दिया जाता है। इन आसनों का आप के शारीरिक स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। लिखते व पढ़ते हुए शरीर की क्या आकृति बनती है व खड़े होना व चलते समय हमारे शरीर की क्या मुद्रा रहती है। कमर का झुक जाना, अंगों में विकृति, पाचन क्रिया में बाधा, रक्त संचार ठीक प्रकार न होना आदि बहुत से ऐसे दुष्परिणाम होते हैं जो गलत आकृति के द्वारा होते हैं। इसलिए छोटे बच्चों को काम करने के ढंग से सम्बन्धित उचित आसनों से परिचित व अभ्यास कराया जाए।
7. व्यक्तिगत स्वच्छता- व्यक्तिगत आरोग्य का सबसे अच्छा प्रतिरक्षात्मक उपाय व्यक्तिगत स्वच्छता है। बच्चों को स्वाभाविक रूप से साफ रहने की कोई इच्छा या आदत नहीं होती, उन्हें यह सब सिखाना पड़ता है। साधारण शब्दों में व्यक्तिगत स्वच्छता का अर्थ है अपने आप को स्वच्छ रखना क्योंकि कोई भी ऐसे व्यक्ति से बात करना पसन्द नहीं करेगा जिसके दाँत गंदे हों, से बदबू आती हो, बालों में कंघी न की हो या जिसके कपड़े गंदे हों। इसलिए स्वास्थ्यप्रद अभिवृत्ति और विकास का महत्त्वपूर्ण अंग स्वच्छता है। भारतीय संस्कृति भी वैयक्तिक स्वच्छता के प्रति सजग रही है। उदाहरणतः ‘मनुस्मृति’ के ये शब्द व्यक्तिगत स्वच्छता के महत्त्व को इंगित करते हैं— “सभी व्यक्तियों को अपने दाँत साफ करने चाहिए। अपने बाल सँवारने चाहिए। और दिन का कार्य आरम्भ करने से पहले प्रातः कालीन स्नान करना चाहिए… सूर्य की ओर मुँह करके सूर्य को जल देना चाहिए और उसी जल में अपना मुँह देखना चाहिए ताकि नजर (दृष्टि) स्वस्थ रहे’ अतः व्यक्तिगत स्वच्छता शरीर को बीमारियों से सुरक्षित रखने के साथ-साथ व्यक्तित्व को प्रभावशाली आकर्षक तथा प्रशंसा के योग्य बनाती है।
8. अच्छी आदतें व स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण— व्यक्ति का स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण व स्वास्थ्य से सम्बन्धित अच्छी आदतें भी स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। यदि वह स्वास्थ्य के प्रति सचेत एवं सजग है, इसके महत्त्व को समझता है तथा स्वास्थ्य के प्रति उसका दृष्टिकोण सकारात्मक है तो निश्चित रूप से उसका स्वास्थ्य अच्छा होता है। स्वास्थ्य को उन्नत करने की इच्छा-शक्ति, स्वास्थ्य के निमयों को पालने की आदत, व्यक्तिगत स्वच्छता की चाह व स्वस्थ आहार लेने सम्बन्धी आदतें तथा नशीली वस्तुओं से दूर रह कर स्वास्थ्य को उत्तम बनाया जा सकता है। अपने व्यक्तित्त्व का विकास किया जा सकता है। “
9. उचित शरीरिक व्यायाम – जीवन की प्रथम विशेषता है क्रिया। सजीव व अजीव का सबसे बड़ा अन्तर क्रिया द्वारा ही जाना जाता है। जिस समय किसी जीव में चलने-फिरने, भागने-दौड़ने आदि की शक्ति समाप्त हो जाती है व सजीव से अजीव बन जाता है। क्रिया जीवन की चिह्न और लक्ष्य है और स्थिरता मृत्यु अथवा अजीवता का। अतः शरीर को आरोग्यता व विकास के लिए व्यायाम करने की आदत का होना स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव दिखाता है। व्यायाम की नियमित आदत शरीर के सभी संस्थानों कार्य प्रणाली सुचारू रूप से सक्रिय रखने तथा माँसपेशियों में क्षमता, शक्ति, प्रतिक्रिया समय की योग्यता आदि में कार्य कुशलता का संचार करती है।
बच्चों में इस प्रकार की शारीरिक क्रियाओं तथा व्यायाम को नियमित करने की आदतों का विकास कर शारीरिक स्वास्थ्य को विकसित किया जा सकता है।
10. दुर्घटनाओं की उचित रोकथाम व प्राथमिक चिकित्सा- शारीरिक रूप से स्वस्थ व ठीक रहने में दुर्घटनाओं का होना बहुत गहन भूमिका निभाता है, क्योंकि ये दुर्घटनाएँ अच्छे-भले स्वस्थ्य एवं शक्तिशाली व्यक्ति को अपंग, अंधा या बहरा बना सकती है। दुर्घटनाओं का जीवन में घटित होना समाप्त नहीं किया जा सकता, परन्तु इनके घटने की सम्भावनाओं तथा उनसे होने वाले खतरनाक परिणामों का उचित नियन्त्रण करने के प्रयत्न किए जा सकते हैं। जिसके लिए उनके उचित बचाव के उपाय एवं सावधानियाँ, दुर्घटनाग्रसत होने पर उचित प्राथमिक चिकित्सा का उपलब्ध होना, बच्चों में प्राथमिक चिकित्सा सम्बन्धी ज्ञान व जानकारी तथा प्रशिक्षण आदि की पूरी चेतना उत्पन्न करने के प्रयत्न उनके स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव डालते हैं।
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