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स्वास्थ्य का अर्थ एंव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक

स्वास्थ्य का अर्थ एंव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक
स्वास्थ्य का अर्थ एंव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक
स्वास्थ्य का क्या अर्थ है? स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले तत्व कौन-कौन से है? स्पष्ट कीजिए।

स्वास्थ्य का अर्थ एंव स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक- स्वास्थ्य व्यक्ति की प्राकृतिक स्थिति है। स्वस्थ व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से प्रसन्न रहता है। किसी भी राष्ट्र की प्रगति का स्तर उस राष्ट्र के नागरिकों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। वही राष्ट्र महानता के स्वरूप को प्राप्त कर सकता है व उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच सकता है जिस राष्ट्र के नागरिक स्वस्थ हों। इमर्सन महोदय भी इसका समर्थन करते कहते हैं कि “स्वास्थ्य ही प्रथम धन है”

प्राचीन समय में हैल्थ शब्द का प्रयोग बड़े ही उदार भाव से शरीर की ठीक-ठाक स्थिति एवं समग्रता के सन्दर्भ में किया गया। यह शब्द प्रसन्नचित का पर्याय था। इसका अर्थ ही निरोग एवं प्रसन्नचित्त से लिया जाता रहा है। आज के समय में भी यह आम धारणा है कि स्वास्थ्य का अर्थ बीमारी का अभाव है तथा लोग हृष्ट-पुष्ट शरीर को स्वास्थ्य मानते हैं। कुछ लोग सुन्दर शरीर को स्वास्थ्य कहते हैं। कुछ स्वास्थ्य को शारीरिक योग्यता कहते हैं जिसके द्वारा वह शरीर से अधिक से अधिक काम, कम आराम में लेते हैं या अधिक जीवित रहें और अच्छी सेवा करें। एक माँ से यदि बच्चे के स्वास्थ्य के बारे में पूछा जाता है तो शायद उनका उत्तर यही होगा कि जब बच्चा ठीक से स्तनपान करता है व हंसता हुआ खेलता रहता है तो वह स्वस्थ है। एक डॉक्टर स्वास्थ्य की परिभाषा इस प्रकार देगा कि “यह शरीर के सभी अंगों एवं विभिन्न संस्थानों की सामान्य रूप से कार्य करने की स्थिति है। इन्साइक्लोपीडिया ऑफ हैल्थ के अनुसार, “यह वह स्थिति है जिसमें व्यक्ति अपने बौद्धिक, भावनात्मक एवं शारीरिक संसाधनों को अधिकतम दैनिक आजीविका एवं जीवन के लिए हिलाने-डुलाने में समर्थ हो ।”

स्वास्थ्य की अवधारणा को पूर्ण रूप से समझने में निम्न परिभाषाएँ महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं-

1. जे. एफ. विलियम्स के अनुसार, “स्वास्थ्य शरीर का वह गुण है जो व्यक्ति को अधिकतम जीने और उत्तम सेवा करने योग्य बनाता है।”

2. बेकन के अनुसार, “स्वस्थ शरीर आत्मा का अतिथि भवन और दुर्बल तथा रुग्न ( बीमार) शरीर आत्मा का कारागृह है। “

3. वोल्टमर एवं एसलिंगर के अनुसार, “स्वास्थ्य, मानसिक एवं शारीरिक उस अवस्था को समझा जाता है जिसमें व्यक्ति शारीरिक भागों से सम्बन्धित आन्तरिक एवं वातावरण से सम्बन्धित बाहरी कार्य-कलापों से पूरी तरह समायोजित होता है।’ “

उपरोक्त कथन के अनुसार वास्तव में उस व्यक्ति को स्वस्थ मानते हैं जो आन्तरिक रूप से अपने शरीर के सभी अंगों का उचित प्रकार से संचालन कर सकता है और बाह्य रूप से अपने वातावरण के साथ सुन्दर समन्वय स्थापित कर सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य की अधिक विस्तृत तथा सकारात्मक परिभाषा दी है। यह इस संगठन के संविधान में दी गई 20 शब्दों की उक्ति है जो स्वास्थ्य के तीन आयामों की पहचान करती है। W.H.O. के अनुसार, “स्वास्थ्य केवल रोग अथवा असमर्थता या अपंगता की अनुपस्थिति ही नहीं बल्कि संपूर्ण शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक संपन्नता की स्थिति है।”

इस परिभाषा को कई बार पूर्ण नहीं माना गया लेकिन समय की कसौटी व परिवर्तनों के साधन के रूप में यह परिभाषा आज भी महत्त्वपूर्ण समझी जाती है। यह परिभाषा तीन पहलुओं को हमारे सामने प्रस्तुत करती है— भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक सम्पन्नता। लेकिन इसके साथ ही साथ जिन पक्षों को यहाँ छोड़ दिया गया है, जिनके कारण इस परिभाषा को आलोचना का सामना करना पड़ा, वे भी महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे आध्यात्मिक सम्पन्नता एवं पावन स्वास्थ्य आदि ।

विश्व संगठन की इस परिभाषा को विस्तार से समझने के लिए हम इसके उपरोक्त वर्णित तीनों आयामों का वर्णन करते हैं जब हम भौतिक (शारीरिक) और मानसिक सम्पन्नता की बात करते हैं तो यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हम मानसिक स्वास्थ्य को ही निर्णायक कारक मानते . हैं। क्योंकि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से कितना ही सम्पन्न (स्वस्थ) क्यों न हो, यदि वह मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं है तो बीमार या अस्वस्थ ही समझा जाएगा। इस प्रकार स्वास्थ्य मानसिक और शारीरिक दोनों प्रकार की उस स्थिति को समझा जाता है जिसमें कोई व्यक्ति शरीर के विभिन्न अंगों से सम्बन्धित समायोजन आन्तरिक रूप से करता है और बाह्य रूप से अपने चारों ओर के परिवेश से तादात्मय स्थापित करता है। इसलिए किसी भी मनुष्य के सामाजिक स्वास्थ्य के स्तर का मापन उसकी व्यक्तिगत भावनाओं के आधार पर नहीं होता, अपितु दूसरों की खुशहाली पर पड़े प्रभावों के मापदण्ड से मूल्यांकित किया जाता है। अतः हम संक्षेप में कह सकते है कि यह तीनों कारक एक दूसरे से अलग न होकर एक दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे में निहित हैं।

अतः स्वास्थ्य सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक सम्पन्नता की स्थिति है। स्वस्थ व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक रूप से प्रसन्न रहता है, तभी सामाजिक कर्त्तव्यों को निभाने में समर्थ होता है।

स्वास्थ्य के विभिन्न पहलू

स्वास्थ्य के विभिन्न आयाम होते हैं। एक व्यक्ति को तभी स्वस्थ कह सकते हैं जब वह किसी भी पहलू में कम न हो। किसी भी एक पहलू में भी व्यक्ति अपूर्ण है तो उसे स्वस्थ व्यक्ति नहीं कहा जा सकता। स्वास्थ्य के निम्न आयाम होते हैं- 1. शारीरिक स्वास्थ्य 2. मानसिक स्वास्थ्य 3. सामाजिक स्वास्थ्य 4. भावनात्मक स्वास्थ्य 5. आध्यात्मिक स्वास्थ्य।

1. शारीरिक स्वास्थ्य- शारीरिक स्वास्थ्य कई कारकों द्वारा प्रभावित होता है। जैसे जैविक, वातावरणीय, सामाजिक, सांस्कृतिक कारक जिनमें अच्छी शारीरिक आकृति, कद के अनुसार उचित भार, चमकदार आँखे, साफ व सुंदर त्वचा व बाल आदि सभी कारक अच्छे व्यक्तित्व के भाग हैं। शारीरिक स्वास्थ्य जीवन का आधार है। शरीर के सभी संस्थानों का सुचारु रूप से कार्य आवश्यक व महत्त्वपूर्ण है। जैसा कि प्रसिद्ध दार्शनिक अरस्तू ने भी कहा है, “स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ दिमाग का वास होता है।” अतः शारीरिक स्वास्थ्य व्यक्ति के पूर्ण स्वास्थ्य की पहली कड़ी है।

2. मानसिक स्वास्थ्य – शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य के बिना सम्पूर्ण नहीं है। मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है- तनाव और दबाव से मुक्ति। यदि व्यक्ति का मानसिक अच्छा होता है तो उसके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य के मध्य सह-सम्बन्ध अच्छा होगा और व ये दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति स्वयं को सुरक्षित तथा सुव्यवस्थित महसूस करता है।

3. सामाजिक स्वास्थ्य – सामाजिक स्वास्थ्य व्यक्ति की सामाजिक सुरक्षा पर निर्भर करता है। यदि वह स्वयं को सुरक्षित महसूस नहीं करता है तो वह सामाजिक रूप से स्वस्थ नहीं होगा। कुछ ऐसे कारक हैं जो सामाजिक स्वास्थ्य के आधार होते हैं, जैसे स्वास्थ्य सेवाएँ, आपसी सम्बन्ध, पेंशन, जीवन बीमा, प्रोविडेंट फंड सम्बन्धी सुविधाएँ आदि। सामाजिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति सैद्धांतिक, आत्मनिर्भर व जागरूक होता है तथा जीवन के प्रति उसका सकरात्मक दृष्टिकोण होता है।

4. भावनात्मक स्वास्थ्य- भावनात्मक रूप से स्वस्थ व्यक्ति वह होता है जो अपने संवेगों या भावनाओं जैसे, क्रोध, डर, ईर्ष्या व द्वेष, सुख व दुख आदि पर अपना उचित नियंत्रण व रख सके। हर विषम परिस्थिति में भी भावनाओं पर नियंत्रण रखना भावनात्मक स्वास्थ्य का प्रतीक है। आज के तनाव युक्त जीवन में भावनात्मक स्वास्थ्य का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है।

5. आध्यात्मिक स्वास्थ्य – आध्यात्मिक स्वास्थ्य का अर्थ है व्यक्ति का अपने मन पर नियंत्रण होना। मन की वृत्तियों पर नियंत्रण व नैतिक मूल्यों की मान्यता ही आध्यामिक स्वास्थ्य है। मन की वृत्तियाँ अर्थात् चित वृत्तियों का निरोध ही आध्यात्मिक स्वास्थ्य है।

स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक

प्रतिदिन न एक या दो गोलियाँ खाकर या कुछ बंदिशों का पालन करके स्वास्थ्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसे प्राप्त करने के लिए स्वास्थ्य का ज्ञान व यह किस पर निर्भर करता यह जानना आवश्यक है। यदि व्यक्ति अपने स्वास्थ्य के विषय में जागरूक है तो यह उसके लिए वरदान है और अगर इसे नजरअंदाज किया तो यह एक तरह से सजा होगी। स्वास्थ्य कुछ कारकों द्वारा प्रभावित होता है जो निम्न हैं- 1. जैविक कारक 2. वातावरण से संबंधित 3. व्यक्तिगत कारक।

1. जैविक कारक-

जैविक कारकों को परिवर्तित नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये वंशानुक्रम पर आधारित होते हैं और ये हमारे शरीर को प्रभावित करते हैं। हमारे शरीर व स्वास्थ्य की रचना कुछ अंश में वंशानुक्रम व कुछ अंश में वातावरणीय है। वंशानुक्रम व्यक्ति के विकास में अहम् भूमिका रखता है। जो गुण हम अपने जन्म के समय प्राप्त करते हैं उसे ही वंशानुक्रम कहते हैं। आने वाली संतान के रंग, रूप, बुद्धि, बल, आँखों का रंग, शारीरिक ढांचा ये जीनस (Genes) ही निर्धारित करते हैं। यदि जीनस स्वस्थ होते हैं तो आने वाली संतान भी स्वस्थ होती है।

2. वातावरण से संबंधित कारक-

वातावरणीय कारक का अर्थ है कि जन्म के पश्चात् हमें क्या प्राप्त होता है? परन्तु कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि वातावरण का प्रभाव जन्म “स पहले भी मनुष्य पर पड़ता है। उनके मतानुसार बच्चा माँ के गर्भाशय में आंतरिक व बाह्य वातावरण से प्रभावित होता है। व्यक्ति के शारीरिक विकास में वातावरण का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वातावरण दो प्रकार के होते हैं

(i) आन्तरिक वातावरण- आन्तरिक वातावरण का सम्बन्ध व्यक्ति की आंतरिक स्थितियों से है। ये स्थितियाँ आन्तरिक जैविक अंगों द्वारा कार्य करने से सम्बन्धित होती हैं। आन्तरिक वातावरण की स्थिरता स्वस्थ व्यक्ति के रक्त की बनावट, शरीर द्रव पदार्थ और शरीर के तापमान पर निर्भर करती है। बाह्य वातावरण की तुलना में आन्तरिक वातावरण शरीर के विकास के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। शारीरिक मुद्रा मनुष्य के स्वास्थ्य पर अत्यधिक प्रभाव डालती हैं, जो कि आन्तरिक वातावरण से प्रभावित होती है।

(ii) बाह्य वातावरण – बाह्य वातावरण मुख्यतया तीन भागों में बाँटा जा सकता है—

(a) भौतिक वातावरण- उन दशाओं से बना होता है जो मनुष्य को प्रकृति द्वारा प्रदान की जाती हैं। इसमें जलवायु, पर्वत, वनस्पति, रेगिस्तान, नदियाँ, पशु जगत, गुरुत्वाकर्षण, वायु आदि आते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है— प्राकृतिक व कृत्रिम । कृत्रिम वातावरण में कुछ हद तक परिवर्तन किया जा सकता है, लेकिन प्राकृतिक वातावरण का व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। जनसंख्या का घनत्व भी हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है। भौतिक वातावरण के कारकों का व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक व सामाजिक स्वास्थ्य पर भी काफी प्रभाव पड़ता है।

(b) आर्थिक वातावरण- व्यक्ति का जीवन स्तर या आर्थिक स्तर व्यक्ति के स्वास्थ्य के शारीरिक, मानसिक व सामाजिक पहलुओं को निर्धारित करता है। उच्च आर्थिक स्तर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव डालता है तथा निम्न आर्थिक स्तर व्यक्ति के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यहां तक कि व्यक्ति के स्वास्थ्य की मात्रा को ही नहीं, बल्कि उसके स्वास्थ्य की गुणवत्ता को भी प्रभावित कर व्यक्ति की आयु को भी कम करता है।

(c) सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण- व्यक्ति समाज का अंग है और व्यक्तियों से ही समाज बनता है। ये एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। जहाँ एक ओर व्यक्ति की स्वस्थ आदतें, स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक हैं वहीं पर समाज में उपलब्ध स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम व्यक्ति के स्वास्थ्य को अच्छा बनाने में योगदान प्रदान करते हैं। इसके साथ-साथ स्वस्थ परम्पराएँ, रीति-रिवाज, प्रथाएँ, अंधविश्वास, आचार-विचार, नैतिकता, संस्कृति आदि भी व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

3. व्यक्तिगत कारक-

व्यक्तिगत कारक जो व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं वे निम्न हैं-

(i) शारीरिक व्यायाम- शारीरिक व्यायाम व्यक्ति के स्वास्थ्य को काफी हद तक प्रभावित करता है। नियमित व्यायाम व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, इनसे रक्त संचरण, ग्रंथियों के उत्प्रेरण, अंगों के शक्ति संवर्धन तथा शारीरिक विकास में सहायता मिलती है और स्वास्थ्य अच्छा रहता है।

(ii) संतुलित आहार — सन्तुलित भोजन से अभिप्राय पौष्टिक भोजन से है जिसमें प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट्स, वसा, खनिज, लवण आदि पौष्टिक तत्त्व उचित अनुपात में होंगे तो इससे शरीर को ऊर्जा मिलती है और शरीर स्वस्थ रहता है व बच्चा कुपोषण का शिकार नहीं हो पाता। अतः हमारा भोजन हमारे स्वास्थ्य को अत्यधिक प्रभावित करता है।

(iii) अच्छी आदतें- बच्चों में अच्छी आदतों की नींव बचपन में ही माता-पिता द्वारा डाली जाती है। ऐसी आदतें बच्चे का स्वभाव बन जाती हैं और व्यक्ति का स्वास्थ्य उसकी आदत तथा स्वभाव पर निर्भर करता है। अतः यह आवश्यक है कि बच्चों में अच्छी आदतों का विकास किया जाए। ऐसी आदतें जो बच्चे के स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं वे बच्चे की दिनचर्या की गतिविधियों के साथ अधिक जुड़ी होती हैं, जैसे- प्रातः शीघ्र उठना, शौच व स्नान आदि से निवृत होकर नाश्ता लेना व समय पर स्कूल के लिए प्रस्थान करना, इसी प्रकार सायं के समय खेलना, रात्रि में उचित समय पर भोजन करना तथा उचित समय सोना आदि अच्छी आदतों का उदाहरण है।

(iv) भोजन सम्बन्धी अच्छी आदतें— व्यक्ति को स्वस्थ बनाए रखने के लिए भोजन सम्बन्धी आदतें भी महत्त्वपूर्ण कारक होती इन आदतों का पालन बच्चों को अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करता है। भोजन के लिए हमें बच्चों में निम्न आदतों का विकास करना चाहिए-

  1. भोजन करने से पहले व बाद में हाथ अच्छी तरह धोने चाहिए।
  2. बिना भूख भोजन कभी नहीं करना चाहिए।
  3. भोजन सदैव स्वच्छ व ताजा लेना चाहिए।
  4. भोजन प्रतिदिन नियमित समय पर करना चाहिए।
  5. भोजन चबाकर खाना चाहिए।
  6. भोजन पौष्टिक होना चाहिए।

(v) उचित निद्रा तथा आराम- लगातार कार्य करने से व्यक्ति को मानसिक व शारीरिक थकावट का अनुभव होता है। आराम कर लेने व निद्रा लेने से हमारा शरीर तथा मस्तिष्क फिर से ऊर्जा युक्त होकर पुनः कार्य करने योग्य हो जाता है। पाचन क्रिया के लिए भी उचित समय पर आराम करने, सोने तथा कार्य करने की आदत डालनी चाहिए ताकि स्वास्थ्य ठीक बना रहे।

(vi) प्रतिरक्षा शक्ति- रोग निरोधक शक्ति जो हमारे शरीर में विद्यमान होती है उसे प्रतिरक्षा शक्ति कहा जाता है। यह स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाला मुख्य व्यक्तिगत कारक है। जिस व्यक्ति की रोगों से लड़ने वाली शक्ति जितनी अधिक होगी वह उतना ही स्वस्थ होगा। जिन व्यक्तियों में स्वस्थ रहने की अच्छी आदतें विद्यमान होती हैं उनमें यह शक्ति अपने आप विकसित होती रहती है और व्यक्ति को जल्दी से रोगग्रस्त नहीं होने देतीं।

(vii) शारीरिक मुद्रा- बच्चों का अच्छा स्वास्थ्य बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उनके शरीर का सही ढांचा (आकृति) विकसित हो, इसलिए यह आवश्यक है कि बच्चों को चलने-फिरने, उठने-बैठने तथा लिखने-पढ़ने की सही मुद्राओं की जानकारी दी जाए और उनका पालन करवाया जाए। ऐसा न करने पर शारीरिक अंग विकृत हो जाते हैं, दृष्टि कमजोर हो जाती है तथा स्नायु तंत्र दुर्बल हो जाता है।

(viii) उचित शारीरिक व्यायाम की आदत- इनसे रक्त संचरण ग्रंथियों के उत्प्रेरण अंगों के शक्ति संवर्धन तथा शारीरिक विकास में सहायता मिलती है और सामान्य स्वास्थ्य अच्छा रहता है। इन क्रियाओं के करने से शरीर के सभी संस्थान अपना कार्य सुचारु रूप से करने लगते हैं, फलतः शरीर का प्रत्येक भाग स्वस्थ व शक्तिशाली बना रहता है। इसलिए बच्चों में नियमित व्यायाम करने की आदत बचपन से ही डालनी चाहिए।

(xi ) व्यक्तिगत स्वच्छता- स्वास्थ्य की रक्षा और व्यक्तिगत आरोग्यता के लिए व्यक्तिगत स्वच्छता का उतना ही महत्त्व है, जितना कि सन्तुलित आहार, नियमित स्वच्छ आदतें, निद्रा एवं व्यायाम आदि का व्यक्तिगत आरोग्य का सबसे अच्छा प्रतिरोधक उपाय व्यक्तिगत स्वच्छता है। यह व्यक्ति के शरीर को बीमारियों से सुरक्षित रखने के साथ-साथ व्यक्ति को प्रभावशाली आकर्षक तथा प्रशंसा के योग्य बनाती है। अतः माता-पिता व विद्यालय के अध्यापकों का यह प्रमुख कर्तव्य है कि बच्चों को व्यक्तिगत स्वच्छता के महत्त्व के बारे में बताएँ व शरीर के हर अंग की देखभाल करने की आदतों का विकास करें।

(x) स्वास्थ्यपूर्ण वातावरण- अपने आपको स्वच्छ रखने स्वास्थ्यप्रद आदतें विकसित करने के साथ-साथ अच्छे स्वास्थ्य के लिए यह भी आवश्यक है कि हमारे चारों ओर का वातावरण जिसमें हम रहते हैं, वह भी स्वच्छ और स्वास्थ्यपूर्ण हो। ऐसे वातवरण में वे सभी बातें शामिल होती हैं जो हमारे रहन-सहन के ढंग, संवेगात्मक तथा भावात्मक तथा शरीर और मन की क्रियाओं को यथेष्ट प्रभाव डालने की क्षमता रखती हैं।

इस तरह से और भी बहुत सी ऐसी सामान्य बातें जैसे दुर्घटनाओं की उचित रोकथाम, प्राथमिक चिकित्सा का ज्ञान, अनावश्यक चिन्ताएँ, द्वन्द्व, तनाव तथा आदर्श अनुकरणीय आचरण और व्यवहारगत गुण, स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण, जिन पर चलने से अपने स्वास्थ्य का भली भाँति ध्यान रखा जा सकता है।

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