एक अच्छे शैक्षिक प्रशासक के गुण
शैक्षिक प्रशासक के गुण – शिक्षा प्रशासक अनुकूल शैक्षिक परिस्थितियों का निर्माण करता है। युवा पोड़ी निर्माता तथा शैक्षिक व्यवस्था की धुरी है। प्रशासन के गुणों की व्याख्या करते हुए पी० सी० रेन ने कहा है कि- “जो घड़ी के लिए मुख्य स्प्रिंग है या मशीन के लिए पहिया है या जहाज के लिए इंजन है वही संस्था के लिए प्रशासक है।” प्रशासक मात्र प्रबन्धक नहीं है बल्कि वह एक ऐसा नेता है जिसे संगठन करना, निरीक्षण करना एवं पथ प्रदर्शन करना होता है। इन सब का निर्वाह करने के लिए उसका व्यक्तित्व अत्यन्त प्रभावशाली एवं प्रभावपूर्ण होना चाहिए।
1. प्रभावशाली व्यक्तित्व और चरित्रवान-
व्यक्ति भिन्न-भिन्न गुणों और आदतों का समायोजन है। सभी गुणों का औसत मात्रा में किसी व्यक्ति में उपस्थित होना ही प्रभावशाली व्यक्तित्व होता है। एक प्रशासक को सदैव क्रियाशील होना चाहिए। विद्यालय की सक्रियता प्रशासक के उदात्त व्यक्तित्व की द्योतक होती है। अपने चरित्र को बनाने के लिए प्रशासक को विचारक, दृढ इच्छा शक्ति वाला, दृढ़ संकल्प शक्ति वाला तथा निर्धारित सिद्धान्तों, दायित्वों एवं आदर्शों का पालन करने वाला भी होना चाहिए। एक चरित्रवान प्रशासक ही शिक्षकों तथा शिक्षार्थियों पर अपना प्रभाव डाल सकता है तथा उन्हें उचित दिशा देकर उनका मार्ग प्रशस्त कर सकता है। एक प्रशासक में चिन्तन, निर्णय एवं कार्य में दृढ़ता, निष्पक्षता, सत्यता तथा स्थायित्वता का होना प्रथम आवश्यकता है। इनके अभाव में प्रशासक अपने कार्य क्षेत्र में स्वस्थ वातावरण का सृजन करने में असमर्थ होता है। एक प्रशासक को सामाजिक परम्पराओं के प्रति सच्ची श्रद्धा होनी चाहिए। वह सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करने वाला होना चाहिए।
2. नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता-
सभी कर्मचारी संगठित रूप से कार्य करते रहें इसके लिए प्रशासक में नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता का होना बहुत आवश्यक है। एक प्रशासक को चाहिए कि वह अपने सहयोगियों एवं अनुगामियों की योग्यताओं, क्षमताओं एवं अनुभवों का स्वागत करें। इससे उनको संगठन एवं संचालन में सुविधा मिलेगी। प्रशासक का नेतृत्व प्रजातांत्रिक सिद्धान्तो पर आधारित होना चाहिए क्योंकि उसके सहयोगी भी उसी के समान शैक्षणिक योग्यता वाले एक अनुभवी होते हैं। एक प्रशासक में अच्छी सूझबूझ, किसी भी मनोदशा का अध्ययन कर सकने की क्षमता एवं विभिन्न व्यक्तियों की मनोवृत्तियों को समझने की क्षमता होना बहुत आवश्यक है। इसके अतिरिक्त आत्म विश्वास, सामाजिकता, सहयोग एवं संगठन आदि गुण भी प्रशासक में होने चाहिए। प्रशासक का दृष्टिकोण दार्शनिक होना चाहिए। दार्शनिक दृष्टिकोण में तीन बातें बहुत आवश्यक हैं-
(क) ग्रहणशीलता- यदि उसके निकट कार्य करने वाले कर्मचारियों में प्रवीणता है तो प्रशासक को उससे ग्रहण करने योग्य गुणों को ग्रहण करना चाहिए।
(ख) भेदनशीलता- विभिन्न जटिल समस्याओं का निराकरण करने के लिए भेदनशीलता का गुण प्रशासक में होना चाहिए।
(ग) लोचशीलता- अच्छे प्रशासकीय व्यक्तित्व में लोचशीलता का गुण बहुत आवश्यक है। इस गुण का अर्थ है परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको बदल लेना। यह गुण समयानुसार ही प्रकट होना चाहिए।
3. मानसिक विशेषताएँ-
मानसिक विशेषताओं के अन्तर्गत तीन बातें शामिल हैं-
( i) बुद्धिज्ञान, (ii) परिज्ञान, (iii) दार्शनिक दृष्टिकोण।
(i) बुद्धिज्ञान- क्योंकि प्रशासक को विभिन्न लोगों के साथ कार्य करना पड़ता है जो काफी शिक्षित और चालाक होते है। अब यह आवश्यक है कि वह औसत से अधिक ज्ञान रखता हो तभी वह संस्था का संचालन कर पाएगा, दूसरे व्यक्ति उसके कार्यों से प्रेरित हो सकेंगे। बुद्धिमान होने पर ही वह दूसरों का मार्ग निर्देशन कर पाएगा, दूसरों को आवश्यक परामर्श दे पाएगा, शैक्षिक योजनाओं को क्रियान्वित करने की क्षमता होगी। उसे अपने विषय का तो ज्ञान होना ही चाहिए साथ ही अन्य विषयों का ज्ञाता भी होना चाहिए। बौद्धिक रूप से उसे अन्यों की तुलना में श्रेष्ठ होना चाहिए।
(ii) परिज्ञान- यदि प्रशासक बुद्धिमान होगा तो दूरदर्शी अवश्य होगा। वह यह जानता है कि किस प्रकार विद्यालय की शैक्षिक प्रगति होगी। उसे विद्यालय के कर्मचारियों, सहयोगियों, शिक्षकों, विद्यार्थियों को प्रेरित करते रहना चाहिए जिससे शैक्षिक प्रगति के साथ सामाजिक प्रगति भी हो सके। प्रधानाचार्य को प्रशासक के रूप में प्रेरणा का स्रोत बनकर विद्यालय के साथ-साथ सम्पूर्ण समाज की प्रगति करने का प्रयास करना चाहिए।
(iii) दार्शनिक दृष्टिकोण- दार्शनिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत तीन बातें मुख्य रूप से आती हैं-
(अ) ग्रहणशीलता- प्रशासक का दृष्टिकोण इस प्रकार का हो कि वह केवल स्वयं को ही समस्त गुणों से सम्पन्न न समझे बल्कि यदि उसके नीचे कार्य करने वाले कर्मचारी प्रवीण हैं तो उसको उनके गुणों को ग्रहण करने में नहीं हिचकना चाहिए।
(ब) भेदनशीलता- प्रशासक में भेदनशीलता का गुण होना चाहिए। जैसे-एक डॉक्टर बीमारी का पता लगाकर, उसे ठीक करने के लिए आपरेशन करता है, उसी प्रकार प्रशासक को समस्या को पूर्ण रूप से समझकर उसके समाधान का उपाय सोचना चाहिए।
(स) लोचशीलता- प्रशासक को लोचशील होना चाहिए अर्थात् उसे परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको बदल लेना चाहिए।
4. स्वतन्त्र विचारक-
प्रशासक को लोकतन्त्रीय दृष्टिकोण वाला होना चाहिए। उसे विद्यालय प्रशासन को प्रजातांत्रिक सिद्धान्तों जैसे-स्वतन्त्रता, समानता, भ्रातृत्व तथा न्यायप्रियता को आधार मानकर चलाना चाहिए। उसे समाज के आदर्शों, उद्देश्यों एवं हितों को ध्यान में रखकर कार्यक्रम तैयार करने चाहिए।
5. सामाजिक वृद्धि –
प्रशासक को अपनी सामाजिकता में वृद्धि करना चाहिए तभी वह अभिभावकों तथा समाज के नागरिकों से सम्पर्क स्थापित कर सकेगा। उसे समाज की आवश्यकताओं, मूल्यों, मान्यताओं तथा नियमों की पूर्ण रूप से जानकारी रखनी चाहिए तभी वह विद्यालय को विकास की ओर ले जाने में सक्षम होगा। वर्तमान समय में जबकि शिक्षा का भार विभिन्न संस्थाओं पर आ गया है तो विद्यालय और समाज में पारस्परिक निकटता अवश्य हो, यह कार्य एक अच्छा विद्यालय प्रशासक सरलता से कर सकता है।
6. मानवीय सम्बन्ध स्थापित करने की योग्यता-
एक कुशल विद्यालय प्रशासक को विद्यालय और समाज के मध्य, शिक्षक और शिक्षार्थी के मध्य, शिक्षक-शिक्षक के मध्य, छात्र-छात्र के मध्य, प्रबन्धकों एवं अभिभावकों के मध्य सन्तुलित मानवीय सम्बन्ध स्थापित करना चाहिए।
7. कुशल संगठनकर्ता-
एक विद्यालय प्रशासक को कुशल संगठनकर्ता होना चाहिए तभी वह व्यक्तिगत, विद्यालयी, सामाजिक, शैक्षिक तथा अन्य समस्याओं का समाधान बिना किसी कठिनाई के कर सकेगा। उसे नियमों तथा कानूनों का ज्ञाता भी होना चाहिए जिससे सभी के हितों की पूर्ति हो सके।
8. व्यावसायिक निपुणता एवं विद्वता-
विद्यालय प्रशासक को व्यावसायिक निपुण होना चाहिए। विद्यालय की प्रगति के लिए उसे उन साधनों का ज्ञान होना चाहिए जिनसे धन की प्राप्ति हो सके। शिक्षा में नवीन प्रवृत्तियों पर बल दिया जा रहा है, मूल्यांकन में भी भारी परिवर्तन हो रहा है। अतः प्रधानाचार्य में व्यावसायिक निपुणता होना आवश्यक है। उसे समूची शिक्षा की प्रक्रिया से अवगत होना चाहिए। व्यावसायिक निपुणता विकसित करने के लिए उसे मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। क्योंकि मनोविज्ञान उसे बालकों से परिचित करवाता है तथा शिक्षा की परिस्थितियों के अनुकूल उचित शिक्षण विधियों का चयन कराकर विषय वस्तु को बालकों तक पहुँचाने में मदद करता है। उसे विद्यालय प्रशासन की रीतियों को अपनाने, पाठ्यक्रम निर्धारण हेतु सिद्धान्तों को अपनाने, उपयुक्त शिक्षण विधियों को विद्यालय में लागू करवाने में दक्ष होना चाहिए। व्यावसायिक निपुणता के अभाव में वह अपने पद के कर्तव्यों दायित्वों को निभाने में सफल न हो पायेगा।
प्रधानाचार्य अपने विद्यालय को नेतृत्व प्रदान करता है। उसे विद्वान होना चाहिए जिससे न केवल शिक्षक ही उसका सम्मान करें बल्कि समाज भी सम्मान करे। वह अपने शिक्षक साथियों को न केवल उपदेश मात्र ही दे वरन् जिस कार्य को वह करवाना चाहता है उसे स्वयं करके उदाहरण के रूप में दूसरों के सम्मुख प्रस्तुत होना चाहिए जिससे प्रजातांत्रिक ढंग से दूसरे उसका अनुकरण करके विद्यालय की प्रगति में सहायक हो सकें।
9. अध्यापकों को संगठित रख सकने की क्षमता-
शिक्षकों में सहयोग की भावना का सृजन करना, उनके हितों को ध्यान में रखना, उन्हें एक गुट में रखना तथा विद्यालय का एक संगठन के रूप में कार्य करना-आदि का उत्तरदायित्व प्रधानाचार्य पर है। उसे शिक्षकों को निम्न उद्देश्यों की पूर्ति हेतु संगठित करना आवश्यक है-
- विद्यालय के शैक्षिक कार्यक्रमों को निर्धारित करने, उन्हें लागू करने तथा उनमें सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से।
- शिक्षकों द्वारा अपने उत्तरदायित्वों को निभा सकने के उद्देश्य से विद्यालय में शिक्षकों की नियुक्ति विद्यालय के हितों में ही करवाएँ।
- पाठ्य-सहगामी क्रियाओं का चयन करने, उन्हें आयोजित तथा सम्पादित करने तथा छात्रों को अधिक से अधिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के अवसर देने के उद्देश्य से।
- प्रधानाचार्य तथा अन्य शिक्षकों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करने से उद्देश्य से।
10. अध्यापकों के मध्य कार्य वितरण करने की योग्यता-
विद्यालय का प्रशासक विद्यालय की प्रगति तभी कर सकता है जब वह विद्यालय के सभी कार्यों का वितरण अपने सहयोगियों में उनकी योग्यताओं, रुचियों, आदतों एवं क्षमताओं को ध्यान में रखकर करे। कार्यों का वितरण वैयक्तिक विभिन्नता (Differences) के सिद्धान्त को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए। कार्य विवरण में संतुलन रखने के साथ ही शिक्षकों को सुविधाएँ भी समान रूप से उपलब्ध करायी जानी चाहिए ताकि उन्हें अपने कार्य का निर्वाह करने में समस्याओं का सामना न करना पड़े। कार्य वितरण के बाद शिक्षकों द्वारा किए गए कार्य का समय-समय पर निरीक्षण अवश्य किया जाना चाहिए तथा उनके कार्यों का मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए तथा उनके कार्यों की ओर प्रेरित होकर मन से कार्य कर सकें।
डॉ. एस. एन. मुकर्जी ने बहुत ठीक लिखा है- “यह एक सच्चरित्र व्यक्ति, श्रेष्ठ संयोजक, एक कुशल प्रशासक होना चाहिए। उसकी निजी विचारधारा हो, उसकी सामान्य विद्वता के प्रति उसके सहकर्मियों का सम्मान हो, अपने अध्यापक वर्ग का नेता तथा योग्य व्यवस्थापक हो।”
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