क्योटो प्रोटोकाल | What is the Kyoto Protocol in hindi?
क्योटो प्राटोकाल (Kyoto Protocol in hindi)-
क्योटो प्राटोकाल का आयोजन 1992 में संयुक्त राष्ट्र की पहल पर ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए किया गया। हरित गृह गैसों उत्सर्जन में अनियंत्रित वृद्धि के मद्देनजर यह महसूस किया गया कि विकसित देशों की ओर से उत्सर्जन में कटौती की बाध्यकारी वचनबद्धता के बिना परिवर्तन के खतरों का मुकाबला नहीं किया जा सकता। परिणामस्वरूप (UNFCCC) ने इस मसले पर एक अन्तर्राष्ट्रीय समझौते का मसौदा तैयार करने के लिए बातचीत शुरू की। लम्बे विचार-विमर्श के बाद जापान के क्योटो शहर में 11 दिसम्बर, 1997 को हुए (UNFCCC) के तीसरे सम्मेलन अर्थात् ‘कोप’ (Cop) के तीसरे सत्र में क्योटो प्राटोकॉल को स्वीकार किया गया। यह एक कानूनी बाध्यकारी समझौता है।
इसके अंतर्गत विकसित देशों के लिए उत्सर्जन में कटौती की सीमा तय की गई है। क्योटो प्राटोकॉल का अंतिम उद्देश्य ऐसी हर मानवीय गतिविधियों पर रोक लगाना है जिससे पर्यावरण के लिए खतरा पैदा होता है। प्रोटोकॉल के अनुसार विकसित देशों को 6 ग्रीन हाउस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, मिथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, सल्फर हेक्साफ्लोराइड, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन व परफ्लूरोकार्बन) के उत्सर्जन में कम से कम 5 प्रतिशत की कमी करनी थी। संयुक्त उपक्रम की प्रक्रिया के अंतर्गत ये देश अन्य देशों में कुछ खास परियोजनाओं में वित्तीय सहयोग कर एमिशन रिडक्शनपाइंटस अर्जित कर सकते हैं। इसके अलावा विकासशील देशों में ग्रीन टेक्नोलॉजी को बढ़ावा देकर स्वच्छ विकास की प्रक्रिया को प्रोत्साहित करते भी अपनी जिम्मेदारी निभा सकते हैं।
क्योटो प्राटोकाल- एनेक्स-1 (Annex 1)
क्योटो संधि के अनुसार उन सभी देशों को जो कि एनेक्स-I में शामिल हैं, इस संधि की पुष्टि करनी है जो वायुमंडल में 55 प्रतिशत कार्बनडाईऑक्साइड उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं। ज्ञातव्य है कि एनेक्स में 37 विकसित देश व यूरोपीय संघ शामिल हैं। उन्हें यह मात्रा 2008 से 2012 के बीच कम करके 5.2 प्रतिशत तक लानी थीं। हस्ताक्षरकर्ता प्रत्येक राष्ट्र अपने निजी लक्ष्यों की भी हासिल करेगा जैसे यूरोपीय संघ के देश मौजूदा मात्रा में 8 प्रतिशत और जापान 5 प्रतिशत कमी लाने पर सहमत हुआ। 1997 में अनुमोदित क्योटो संधि का 2002 में संशोधन कर अतिम रूप दिया गया और रूस द्वारा स्वीकृति के बाद फरवरी 2005′ को क्योटो प्रोटोकॉल लागू किया गया। 2008 में भारत समेत 183 देशों ने इस संधि को अपनीमंजूरी दे दी थी। संधि के अंतर्गत जहां विकासशील देशों के लिए कोई कानूनी बाध्यता नहीं है वहीं विकसित देशों को 2012 तक 5.2 के औसत से ग्रीन हाउस गैस के उत्सर्जन को 1990 की उत्सर्जन दरों से नीचे लाने की बाध्यता थी।
क्योटो प्रोटोकॉल के तहत एनेक्स-I में शामिल विकसित देशों को उत्सर्जन में कमी करने के लिए तीन मेकेनिज्म का विकल्प प्रदान किया गया। ये हैं;
1. अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन व्यापार (International Emissions Trading-IET)
2. क्लीन डेवपमेंट मेकेनिज्म (Clean Development Mechanism-CDM)
3. संयुक्त क्रियान्वयन (Joint Implementation-JI)
इनमें से अंतिम दो को परियोजना आधारित तंत्र’ कहा जाता है। जहां IET के तहत प्रतिबंधित उत्सर्जन का प्रावधान है वहीं अंतिम दो उत्सर्जन कमी का उत्पादन सिद्धांत पर आधारित है। सीडीएम केतहत एनेक्स-I के देश विकासशील देशों में स्वच्छ परियोजनाओं में जिसमें कि उत्सर्जन में कमी होती है। निवेश के द्वारा अपनी उत्सर्जन कमी के लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।
भारत ने 2002 में क्योटो प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए और उसका अनुमोदन किया। इस प्रोटोकॉल में विकासशील देशों को शर्तों में कुछ छूट दी गई है जिससे भारत को ग्रीन टेक्नालॉजी हस्तांतरण एवं विदेशी निवेश तथा कार्बन व्यापार के क्षेत्र में फायदा हो सकता है। भारत यद्यपि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के मामले में काफी पीछे है पर फिर भी वह अपनी जिम्मेदारियों से भली भाँति वाकिफ है। साथ ही उसका दृष्टिकोण है कि इसके लिए जिम्मेदार विकसित देशों को इस दिशा में ज्यादा प्रयास करने की जरूरत है।
क्योटो प्रोटोकॉल का लक्ष्य वर्ष 2012 तय किया गया था। पर इसके लक्ष्य पूरे नहीं हुये। इस प्रोटोकॉल को गहरा आघात उस समय लगा जब कनाडा ने स्वयं को इससे अलग कर लिया। इस प्रोटोकॉल का स्थान लेने के लिए वैश्विक स्तर पर समझौता जारी है। देशों के बीच मतभेद के कारण किसी सर्वमान्य समझौते पर नहीं पहुंचा जा सका है। बाली तथा कोपेनहेगेन में भी विचार-विर्मश किया गया। कोपेनहेगेन सम्मेलन में हालांकि कुछ सहमति बनकर जरूर उभरी जिसकी चर्चा आगे की गई है।
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