मैक्स वेबर के पद्धतिशास्त्र
मैक्स वेबर के पद्धतिशास्त्र | Max Weber’s Methodology – बोगार्डस ने लिखा है, ‘पद्धतिशास्त्र को मैक्स वेबर की देन यह थी कि उन्होंने सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में वैज्ञानिक पद्धति तथा मूल्यांकनात्मक निर्णय पद्धति में अन्तर किया था। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मानवीय सम्बन्धों का अध्ययन करते समय इन दोनों पद्धतियों को कदापि मिलने न देना चाहिए। उन्होंने अपने तरीके से समाजशास्त्र के एक विज्ञान के विकास के लिए नींव डाली।’ यह वेबर की पद्धतिशास्त्रीय गहन अन्तर्दृष्टि के कारण ही सम्भव हुआ। यह बात निम्नलिखित विवेचना से और भी स्पष्ट हो जाएगी।
मैक्स वेबर के समय तक जर्मनी में यह परम्परा बहुत-कुछ दृढ़ हो गई थी कि जिन पद्धतियों से प्राकृतिक विज्ञानों में घटनाओं का अध्ययन और विश्लेषण किया जाता है. पद्धतियों को सामाजिक घटनाओं के अध्ययन में काम में नहीं लाया जा सकता। इसका तात्पर्य यही हुआ कि जो यथार्थता प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन तथा निष्कर्षों में होती है, उस यथार्थता की कुछ ऐसी है कि उनका उसी भाँति विवरण मात्र प्रस्तुत किया जा सकता है जैसाकि हमें इतिहास समाजशास्त्रीय अध्ययन व विश्लेषणों में आशा नहीं की जा सकती। सामाजिक घटनाओं की प्रकृति । देखने को मिलता है, क्योंकि सामाजिक विज्ञानों का क्षेत्र विभिन्न रूपों में स्वाधीन इच्छा, प्रातीतिक भावनाओं और विचारों तथा बौद्धिक संवेदनशीलता (geist) का क्षेत्र समझा जाता था। इस सम्बन में सबसे बड़ी बात यह थी कि उपरोक्त ऐतिहासिक सम्प्रदाय का यह विश्वास था कि केवल प्राकृतिक विज्ञानों में ही सामान्यीकृत सैद्धान्तिक श्रेणियों का प्रयोग हो सकता है, सामाजिक विज्ञानों में नहीं सामाजिक विज्ञानों में तो केवल ऐतिहासिक पद्धति के द्वारा ही सामाजिक घटनाओं की व्याख्या और उनमें अन्तर्निहित प्रेरक शक्ति एवं सांस्कृतिक प्रभावों का स्पष्टीकरण किया जा सकता है।
वेबर ने अपने पद्धतिशास्त्र को उपरोक्त ऐतिहासिक सम्प्रदाय की समालोचना से ही प्रारम्भ किया। उनके अनुसार इस सम्प्रदाय का यह कहना गलत है कि वैज्ञानिक आधार पर सामाजिक घटनाओं का अध्ययन नहीं किया जा सकता है। सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करने वाला वैज्ञानिक अगर चाहे तो अपने अध्ययन में वैज्ञानिक मान बनाए रख सकता है। दूसरी बात यह है कि सामान्यीकृत सैद्धान्तिक श्रेणियों का प्रयोग न केवल प्राकृतिक विज्ञानों में बल्कि समाजशास्त्र में भी स्वीकार्य है। वास्तव में सामाजिक वैज्ञानिक का सर्वप्रमुख कर्त्तव्य घटनाओं का विवरण मात्र देना ही नहीं बल्कि उनमें पाए जाने वाले कार्य-कारण सम्बन्ध को दर्शाना है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि ऐतिहासिक क्रम से सभी विशिष्ट तथ्यों का विश्लेषण तथा स्पष्टीकरण किया जाए। इसके लिए तो केवल इतना ही पर्याप्त होगा कि सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तनीय तत्वों को निश्चित ढंग से पृथक का लिया जाए तथा परिवर्तनीय अवस्थाओं के अन्तर्गत उनकी क्रिया, कार्य तथा प्रभावों अध्ययन करके उनके कार्य-कारण के महत्व को दर्शाया जाए। इसका तात्पर्य यह हुआ कि सामाजिक घटनाओं के परिवर्तनीय तत्वों में से समानताओं के आधार पर सबसे महत्वपूर्ण तत्वों और कुछ सैद्धान्तिक श्रेणियों में बाँट लिया जाए। इस प्रकार से चुने गए तत्व सम्पूर्ण घना की सामान्य विशेषताओं का प्रतिनिधित्व करेंगे और साथ ही सामाजिक वैज्ञानिक के ध्यान को इधर-उधर के व्यर्थ तत्वों में भटकने से भी बचाएँगे। इसलिए ये तत्व वैज्ञानिक के लिए आदर्श होंगे। यही वेबर के पद्धतिशास्त्र के बुनियादी शब्द ‘आदर्श-प्ररूप’ हैं जिसकी कि विस्तारपूर्वक विवेचना हम आगे करेंगे। इस प्रकार समाजशास्त्र में ‘प्ररूपवादी पद्धति को चालू करने का श्रेय वेबर को ही है।
इस पद्धति के विषय में वेबर ने लिखा है कि उन्होंने समाजशास्त्र में इसके प्रयोग पर इतना बल इसलिए दिया है क्योंकि उनका विश्वास है कि सब कुछ का अध्ययन’ ‘कुछ नहीं का अध्ययन है, अर्थात जो यह सोचता है कि वह समाज की सभी घटनाओं का अध्ययन कर लेगा, वह वास्तव में कुछ भी अध्ययन नहीं कर सकता। इसका कारण यह है कि सब कुछ का अध्ययन करके वह जो कुछ भी प्रस्तुत करेगा, उसमें कुछ वैज्ञानिक यथार्थता हो ही नहीं सकती। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि सामाजिक घटनाओं में से कुछ ऐसे आदर्श प्ररूपों या टाइपों को छाँट लिया जाए। जिनके अध्ययन से सम्पूर्ण घटना के सम्बन्ध में यथार्थ व वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो सके।
परन्तु वेबर के अनुसार, आदर्श-प्ररूपों को स्वीकार करने का तात्पर्य कदापि यह नहीं है कि हमारा अध्ययन भी आदर्शात्मक होगा और हमारा निष्कर्ष मूल्यांकनात्मक निर्णयों पर आधारित होगा। वेबर अपने पद्धतिशास्त्र को मूल्यांकनात्मक-निर्णयों से बहुत दूर रहते हुए ही।
मूल्यांकनात्मक निर्णयों से दूर रहते हुए वैज्ञानिक विश्लेषण करने का एक सामान वैज्ञानिक तरीका या उपाय यह है कि समाजशास्त्री केवल ‘क्या है’ के अध्ययन तक ही अपने को सीमित रखे और ‘क्या होना चाहिए’ की ओर अग्रसर न हो। इसका तात्पर्य यह है कि घटना जिस रूप में वास्तव में है उसी रूप में उसका यथार्थ अध्ययन व विश्लेषण किया जाए न कि इस विषय का वह घटना अच्छी है या बुरी, उचित है या अनुचित या अगर ऐसे होता तो अच्छा होता ।
मैक्स वेबर के समाजशास्त्र के विषय में विवेचना करते समय हम यह लिख चुके हैं कि आप अपने समाजशास्त्र को एक विज्ञान के रूप में सुप्रतिष्ठित करने के लिए एक ऐसे पद्धतिशास्त्र का विकास करना चाहते हैं जिसके द्वारा
(क) सामाजिक सम्बन्धों के ऐतिहासिक उद्विकास के विशिष्ट तथा विभेदक पक्षों का अध्ययन, (ख) सामाजिक जीवन की बुनियादी गतिविधियों तथा कार्यों के अन्तर्निहित कारणों का निर्धारण (ग) विभिन्न सांस्कृतिक तत्वों की अन्तःक्रिया की व्याख्या प्रस्तुत की जा सके। समाजशास्त्र के पद्धतिशास्त्र की सार्थकता इसी में निहित है।
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